28 December 2009
टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके...
रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे
इक विरह की अगन में सुलगते बदन
करवटों में ही मल्हार गाते रहे
टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी
नाम कर मेरे, वो मुस्कुराते रहे
शेर जुड़ते गये, इक गज़ल बन गयी
काफ़िया, काफ़िया वो लुभाते रहे
टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके
बारहा तुम हमें याद आते रहे
कोहरे से लिपट कर धुँआ जब उठा
शौल में सिमटे दिन थरथराते रहे
मैं पिघलता रहा मोम-सा उम्र भर
इक सिरे से मुझे वो जलाते रहे
जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे
...बहुत ही प्यारी बहर है ये। अनगिनत गाने याद आ रहे हैं जिनकी धुनों पर मेरी ये ग़ज़ल गायी जा सकती है। रफ़ी साब का वो ओजपूर्ण देशभक्ति गीत "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम" या फिर महेन्द्र कपूर का गाया "तुम अगर साथ देने का वादा करो" या फिर लता दी का गाया "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिये"। एक-से-एक धुनें हैं इस बहर के लिये। अरे हाँ, वो किशोर दा जब जम्पिंग जैकाल जितेन्द्र के लिये अपने अनूठे अंदाज में "हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम" गाते हैं तो इसी बहरो-वजन पर गाते हैं। लेकिन इन धुनों की चर्चा अधुरी रह जायेगी अगर हमने जानिसार अख्तर साब के लिखे फिल्म शंकर हुसैन के गीत "आप यूं फासलों से गुजरते रहे" की चर्चा नहीं की तो, जिसे अदा जी सुनवा रही हैं अपने ब्लौग पर यहाँ।
आपसब को आने वाले नये साल की समस्त शुभकामनायें...
21 December 2009
हाकिम का किस्सा...
...तो सोचा आपलोगों को वही ग़ज़ल सुनाऊँ आज। तकरीबन दो साल पहले लिखी थी। तब शेर कहना सीख ही रहा था। नोयेडा में एक अकेले वृद्ध की हत्या उन्हीं के नौकर द्वारा किये जाने की खबर थी अखबारों में तो यूं ही दो पंक्तियाँ बन गयी{वो "खादिम का किस्सा" वाला} और फिर जिसे बढ़ा कर पूरी ग़ज़ल की शक्ल देने की कोशिश की। ग़ज़ल को सँवारने की जोहमत विख्यात शायर >हस्ती मल हस्ती साब ने की है जो युगीन काव्या के संपादक भी हैं। पेश है:-
जब छेड़ा मुजरिम का किस्सा
चर्चित था हाकिम का किस्सा
जलती शब भर आँधी में जो
लिख उस लौ मद्धिम का किस्सा
सुन लो सुन लो पूरब वालों
सूरज से पश्चिम का किस्सा
छोड़ो तो पिंजरे का पंछी
गायेगा जालिम का किस्सा
जलती बस्ती की गलियों से
सुन हिंदू-मुस्लिम का किस्सा
बूढ़े मालिक का शव बोले
दुनिया से खादिम का किस्सा
कहती हैं बारिश की बूंदें
सुन लो तुम रिमझिम का किस्सा
...इस बहरो-वजन पर >नासिर काज़मी साब ने कुछ बेहरतीन ग़ज़लें कही हैं। अभी वर्तमान में >विज्ञान व्रत और >डा० श्याम सखा ने भी धूम मचा रखी हैं इस बहर की अपनी ग़ज़लों से।
चलते-चलते संजीव गौतम जी की दो बेमिसाल ग़ज़लें पढ़िये >यहाँ।
14 December 2009
फ़िकर करें फुकरे..
विख्यात{और कुख्यात भी} वर्ल्ड हैविवेट बाक्सिंग चैम्पियन माइक टायसन अक्सर अपना बाउट शुरु होने से पहले कहा करता था और क्या खूब कहा करता था कि:-
"everybody has a plan till he gets a punch on the face"
बस यूं ही याद आ गयी ये बात। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में अपने प्रशिक्षण के दौरान पहले और दूसरे सेमेस्टर में हम सभी कैडेटों के लिये बाक्सिंग की प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना आदेशानुसार नितांत आवश्यक होता था। उन दिनों हर स्पर्धा से पहले दिमाग में कितने दाँव-पेंच पल-पल बनते-बिगड़ते रहते थे, लेकिन रिंग में उतरने के बाद विपक्षी का अपने चेहरे पर पड़ा एक नपा-तुला पंच तामीर किये गये सारे दाँव-पेंचों की धज्जियाँ उड़ा देता था। फिर कौन-सा लेफ्ट हुक? फिर काहे का अपर कट?? ये संदर्भ यूं ही याद आ गया अभी अपने ब्लौग-जगत में मची वर्तमान छोटी-मोटी हलचलों को देखकर। किसी का अलविदा कहना, किसी का संन्यास लेना, किसी का विरोध, किसी की उदासीनता, किसी की तटस्थता, किसी की मौन समाधि, किसी की शब्द-क्रांति...ये सब, ये सबकुछ विस्तृत सागर में उछाले गये छोटे तुच्छ कंकड़ से अधिक तरंग नहीं पैदा करते हैं। काश कि मेरे ये सभी संवेदनशील ब्लौगर-मित्र इस ब्लौग-सार को फौरन से पेश्तर समझ जाते...! काश...!! और यहाँ मैं रविरतलामी जी की एक टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा। जब वो लिखते हैं "यारों, जमाने भर के कचरे की बातें करते हो तो अपने स्वर्ण-लकीरों को बड़ा कर के तो दिखाओ जरा!!" तो क्या इन तमाम कथित विरोधों, अलविदाओं को अपने अंदाज में एक सटीक जवाब नहीं दे देते हैं हम सब की तरफ से?
दुष्यंत कुमार का ये शेर "कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता / एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो" भले ही सटीक और अनंत काल तक के लिये सामयिक हो बाहरी दुनिया के वास्ते, लेकिन यहाँ इस अभासी दुनिया में अपने विरोध स्वरुप ये अलविदा रुपी पत्थर कितनी भी तबीयत से कोई उछालते रहे...कोई सूराख नहीं होनी है इस ब्लौगाकाश में। अगर इस ब्लौगाकाश में कोई सूराख बनाने की ख्वाहिश सचमुच ही हिलोर मार रही हो तो उसके लिये यहाँ डटे रहना जरुरी है।
सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है। विपक्षी का एक तगड़ा पंच भले ही कुछ क्षणों के लिये अपने दाँव-पेंच की तामीर बिगाड़ देता हो, किंतु रिंग से बाहर जाकर तो कोई अपने लेफ्ट हुक या अपर कट चलाने से रहा। उसके लिये तो रिंग में बने रहना जरुरी है ना? क्यों??
...बस यूँ ही कुछ आवारा सोचों का उन्वान बन रहा था तो आपलोगों के संग साझा कर लिया। इधर दो-तीन दिनों से कुछ आहत दोस्तों और उमड़ती संवेदनाओं को देखकर विचलित मन जाने क्यों एक गाने पर अटका हुआ बार-बार इसे गुनगुनाता रहता है:-
दुनिया फिरंगी स्यापा है
फिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
हडिप्पाssssss....
07 December 2009
वादी में रंगों की लीला...
इधर वादी अपना रंग-रूप बदल रही है...बदल चुकी है। हरी-भरी वादी एकदम से लाल, भूरा और सफेद होने की तैयारी में। रंगों की ये अजीब लीला अचानक समीरलाल जी की एक हृदयस्पर्शी लघुकथा की याद दिला गयी। यूँ समीर जी की ये कथा किसी और संदर्भ को इंगित थी{खुशदीप सहगल जी की टिप्पणी इसी कथा पर काबिले-गौर हो}। आज पोस्ट के नाम पर सोचा कि आपलोगों को वादी में मची रंगों की इस अद्भुत लीला की कुछ झलकियाँ दिखाऊँ।
...तो पेश है कुछ तस्वीरें मेरे आस-पास की। ये सारी तस्वीरें मेरे सीओ {कमांडिन्ग आफिसर}कर्नल विवेक भट्ट ने अपने कैमरे{निकन डी-60} से खींची हैं इन तस्वीरों पर उनका सर्वाधिकार सुरक्षित है। मेरे सीओ साब बड़े ही जबरदस्त शूटर हैं- कैमरे से भी और राइफल से भी। देखिये ये तस्वीरें और जलिये-भुनिये :-)...
कैसी लगी ये तस्वीरें? ईश्वर ने क्या सचमुच अन्याय नहीं किया है जन्नत के इस टुकड़े संग? आखिरकार सब कुछ तो उसी परमपिता परमेश्वर के हाथों में होता है। इस जमीन की ये बेइंतहा खूबसूरती उसी सर्वशक्तिमान का तो जलवा है और वो यदि चाहे तो यहाँ का सुलगता माहौल भी एक चुटकी में सामान्य हो जाये...!!!
धरती के इस स्वर्ग में एक बार फिर से प्रेम-सौहार्द-भाईचारे और कश्मीरियत का मौसम लौटे, आइये सब मिलकर दुआ करें!
23 November 2009
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
...बहरे हज़ज के इस मीटर पर कुछ गीतों और ग़ज़लों के बारे में जिक्र किया था मैंने अपनी पिछली ग़ज़ल सुनाते समय। फिलहाल कुछ और गाने जो याद आ रहे हैं इस बहरो-वजन पर...एक तो रफ़ी साब का गाया बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है...रफ़ी साब की ही गायी एक लाजवाब ग़ज़ल भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाये...और एक याद आता है मुकेश की आवाज वाला तीसरी कसम का वो अमर गीत सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। इस बहर पर एक गीत जो सुनाना चाहूंगा, वो है गीता दत्त और मुकेश की आवाज में फिल्म बावरे नैन का जो मुझे बेहद पसंद है खयालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते । लीजिये सुनिये गीता दत्त की मखमली आवाज:-
पुनश्चः -
अपनी लिखी ग़ज़लों के बहरो-वजन पर उपलब्ध फिल्मी गीत या सुनी ग़ज़लों का जो मैं अक्सर जिक्र करते रहता हूँ अपनी पोस्ट पर, उसका उद्देश्य कहीं से भी अपना ज्ञान बघारना नहीं है, बल्कि मैं खुद के लिये इसी बहाने एक डाटा बेस तैयार कर रहा हूँ और मेरे ही जैसे अन्य नौसिखुये को ये बताना है कि एक बहरो-वजन की किसी भी धुनों पर हम अपनी उसी बहरो-वजन पे लिखी रचना को गुनगुना सकते हैं। इधर छुट्टियाँ संपन्न होने को आयी। अगली पोस्ट में मिलूँगा आपसब को वादिये-कश्मीर से।
16 November 2009
हे हर, हमहु पैहरब गहना...
विख्यात मैथिली-कवि विद्यापति के नाम से तो आपसब परिचित ही होंगे। उनके लिखे गीत खूब उपलब्ध हैं नेट पर भी। लेकिन जो गीत मैं सुनाने जा रहा हूँ, वो उनका लिखा तो नहीं किंतु उन्हीं की शैली में है बहुत ही प्यारी धुन पर।
गीत में गौरी{पार्वती, उमा} शिकायत करती हैं शिव से कि उनके पास पहनने को कोई गहना नहीं है। लक्ष्मी और सरस्वती तो खूब हीरे-मोतियों के गहने पहनी रहती हैं और उनका उपहास उड़ाती हैं। शिव करूणामय हो उठते हैं और अपने शरीर से एक चुटकी भस्म निकाल कर गौरी को देते हैं और गौरी को उस भस्म के साथ कुबेर{धनपति} के यहाँ भेजते हैं। कुबेर उस एक चुटकी भस्म को देखकर गौरी से कहते हैं कि इस भस्म के समतुल्य तो संसार का कोई गहना ही नहीं है और साबित करने के लिये उस एक चुटकी भस्म को तौलने के लिये पलड़े पे रख देते हैं। कुबेर के भंडार की समस्त संपत्ति दूसरे पलड़े पे चढ़ जाती है लेकिन वो भस्म वाला पलड़ा फिर भी नहीं उठता है। चकित गौरी वो एक चुटकी भस्म उठाये वापस शिव के चरणों मे आ गिरती हैं और कहती हैं कि उन्हें अब कोई गहना नहीं चाहिये।
अब सुनिये ये अद्भुत गीत मेरी सबसे पसंदीदा गायिका की आवाज में...नहीं, दूसरी सबसे पसंदीदा गायिका की आवाज में। सर्वाधिक पसंदीदा गायिका का खिताब आजकल छुटकी तनया ने हथिया लिया है।...तो पेश है ये बेमिसाल गीत तनया की मम्मी की आवाज में:-
हे हर, हमरो किन दिय गहना
हे हर, हमहु पैहरब गहना
लक्ष्मी और शारदा पैहरथि
हीरा-मोती के गहना
ई उपहास सहल नहि जाई अछि
झहैर रहल दुनु नैना
हे हर......
देखि दशा गौरी अति व्याकुल
शिव जी के उपजल करूणा
एक चुटकी लैय भस्म पठौलैन
गौरी के धनपति अंगना
हे हर.....
भस्म देखि कर जोड़ धनपति
कहलनि सुनु हे उमा
एहि भस्मक समतुल्य एको नहि
त्रिभुवन के ये हि गहना
हे हर...
एक पलड़ा पर भस्म के राखल
एक पलड़ा पर गहना
भंडारक सब संपत्ति चढ़ि गेल
पलड़ा रहि गेल ओहिना
हे हर...
लीला देखि चकित भेलि गौरी
देखु भस्मक महिमा
भस्म उठाय परौलिन गौरी
खसलनि शिव जी के चरणा
हे हर, हम नै लेब आब गहना
हे हर, अहिं थिकौं हमर गहना
...कैसा लगा आपसब को ये गीत? बताइयेगा जरूर!
09 November 2009
चंद सौलिड ख्वाहिशों का मरहमी लिक्विडिफिकेशन...
श्रीनगर से पटना तक की दूरी- बीच में पीरपंजाल रेंज को लांघना शामिल- महज पाँच घंटे में पूरी होती है...लेकिन पटना से सहरसा तक की पाँच घंटे वाली दूरी खत्म होने का नाम नहीं लेती, जबकि नौवां घंटा समापन पर है। ट्रेन की रफ़्तार मोटिवेट कर रही है मुझे नीचे उतर कर इसके संग पैदल चलने को। इस ट्रेन के इकलौते एसी चेयर-कार में रिजर्वेशन नहीं है मेरा...लेकिन कुंदन प्रसाद जी जानते हैं मुझे, बाई नेम...कुंदन इसी इकलौते एसी कोच के अप्वाइंटेड टीटी हैं और इस बात को लेकर खासे परेशान हैं, ये मुझे बाद में पता चलता है...मेरा नाम मेरे मुँह से सुनकर वो चौंक जाते हैं और एक साधुनुमा बाबा को उठाकर मुझे विंडो वाली सीट देते हैं...लेफ्ट विंडो वाली सीट ताकि मेरा प्लास्टर चढ़ा हुआ बाँया हाथ सेफ रहे।
एसी अपने फुल-स्विंग पर है तो टीस उठने लगती है फिर से बाँये हाथ की हड्डी में...पेन-किलर की ख्वाहिश...दरवाजा खोल कर बाहर आता हूँ टायलेट के पास...विल्स वालों ने किंग-साइज में कितना इफैक्टिव पेन-किलर बनाया है ये खुद विल्स वालों को भी नहीं मालूम होगा...कुंदन प्रसाद जी मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं...मैं भांप जाता हूँ उनकी मंशा और एक किंग-साइज पेन-किलर उन्हें भी आफर करता हूँ...सकुचाया-सा बढ़ता है उनका हाथ और गुफ़्तगु का सिलसिला शुरू होता है...मेरे इस वाले इन्काउंटर की कहानी सुनना चाहते हैं जनाब..."सच आपसे हजम नहीं होगा और झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा"- मेरे इस भारी-भरकम डायलाग को सुनकर वो उल्टा और इनकरेज्ड होते हैं कहानी सुनने को...इसी दौरान उनसे पता चलता है कि यहाँ के चंदेक लोकल न्यूज-पेपरों ने हीरो बना दिया है मुझे और खूब नमक-मिर्च लगा कर छापी है इस कहानी को...कहानी के बाद कुछ सुने-सुनाये जुमले फिर से सुनने को मिलते हैं...आपलोग जागते हैं तो हम सोते हैं वगैरह-वगैरह...मुझे वोमिंटिंग-सा फील होता है इन जुमलों को सुनकर...मेरा दर्द बढ़ने लगता और मोबाइल बज उठता है...थैंक गाड...कुंदन जी से राहत मिली...
रात के {या सुबह के?} ढ़ाई बज रहे हैं जब ट्रेन सहरसा स्टेशन पर पहुँचती है...माँ के आँसु तब भी जगे हुये हैं...ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?...पापा देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं...संजीता कनफ्युज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ...और वो छुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
चलते-चलते एक त्रिवेणी बकायदा बहरो-वजन में:-
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
डिसक्लेमर या डिसक्लेमर जैसा ही कुछ :-
ये पोस्ट, इस पोस्ट का शिर्षक, पोस्ट की बातें और इस कथित त्रिवेणी का तड़का यदि आपसब को डा० अनुराग या फिर उनके ब्लौग दिल की बात का भान दिलाता हो तो मुझे जरा भी क्षोभ नहीं। दोष डाक्टर साब का है पूर्णतया। मोबाइल स्विच-आफ करने को सामाजिक अपराध मानने वाला ये गैर-पेशेवर इंसान आदतन संक्रामक है। ग़ज़ब का संक्रामक। मैं और मेरी तुच्छ लेखनी उस एक मुलाकात के बाद से अनुरागमय हो चुके हैं।
03 November 2009
प्रथम परमवीरचक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा की स्मृति में
सोच कर सिहर उठता हूँ कि उस रोज- उस 3 नवंबर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा अगर अपनी बहादुर डॆल्टा कंपनी के पचास-एक जवानों के साथ श्रीनगर एयर-पोर्ट से सटे उस टीले पर वक्त से नहीं पहुँचे होते तो भारत का नक्शा कैसा होता...!
26 अक्टूबर 1947 को जब बड़ी जद्दोजहद और लौह-पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल के अथक प्रयासों के बाद आखिरकार कश्मीर के तात्कालिन शासक महाराज हरी सिंह ने प्रस्ताव पर दस्तखत किये तो भारतीय सेना की पहली टुकड़ी कश्मीर रवाना होने के लिये तैयार हुई। भारतीय सेना की दो इंफैन्ट्री बटालियन 4 कुमाऊँ{FOUR KUMAON} और 1 सिख{ONE SIKH} को इस पहली टुकड़ी के तौर पर चुना गया। 27 अक्टूबर 1947- जब भारतीय सेना की पहली टुकड़ी ने श्रीनगर हवाई-अड्डॆ पर लैंड किया, इतिहास ने खुद को एक नये तेवर में सजते देखा और इस तारीख को तब से ही भारतीय सेना में इंफैन्ट्री-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
मेजर सोमनाथ शर्मा इसी कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन{FOUR KUMAON} की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे और उन दिनों अपना बाँया हाथ टूट जाने की वजह से हास्पिटल में भर्ती थे। जब उन्हें पता चला कि 4 कुमाऊँ युद्ध के लिये कश्मीर जा रही है, वो हास्पिटल से भाग कर एयरपोर्ट आ गये और शामिल हो गये अपनी जाँबाज डेल्टा कंपनी के साथ। नीचे की तस्वीर में आप देख सकते हैं मेजर सोमनाथ को हाथ में प्लास्टर लगाये:-
उधर कबाईलियों का विशाल हुजूम कत्ले-आम मचाता हुआ बरामुला शहर तक पहुँच चुका था। उनकी बर्बरता की निशानियाँ और दर्द भरी कहानियाँ अभी भी इस शहर के गली-कुचों में देखी और सुनी जा सकती है। ...और जब दुश्मनों की फौज को पता चला कि भारतीय सेना की अतिरिक्त टुकड़ियाँ भी श्रीनगर हवाई-अड्डे पर लैंड करने वाली है, तो वो बढ़ चले उसे कब्जाने। उस वक्त मेजर सोमनाथ अपनी डेल्टा कंपनी के साथ करीब ही युद्ध लड़ रहे थे जब उन्हें हुक्म मिला श्रीनगर हवाई-अड्डे की रखवाली का...और फिर इतिहास साक्षी बना शौर्य, पराक्रम और कुर्बानी की एक अभूतपूर्व मिसाल का जिसमें पचपन जांबाजों ने पाँच सौ से ऊपर दुश्मन की फौज को छः घंटे से तक रोके रखा जब तक कि अपने सेना की अतिरिक्त मदद पहुँच नहीं गयी। मेजर सोमनाथ के साथ 4 कुमाऊँ की वो डेल्टा-कंपनी पूरी-की-पूरी बलिदान हो गयी। मृत्यु से कुछ क्षणों पहले मेजर सोमनाथ द्वारा भेजा गया रेडियो पर संदेश:-
“I SHALL NOT WITHDRAW AN INCH BUT WILL FIGHT TO THE LAST MAN & LAST ROUND"{मै एक इंच पीछे नहीं हटूंगा और तब तक लड़ता रहूँगा, जब तक कि मेरे पास आखिरी जवान और आखिरी गोली है}
मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च वीरता पुरुस्कार "परमवीर चक्र" से नवाजा गया और वो इस पुरुस्कार को पाने वाले प्रथम भारतीय बने। संयोग की बात देखिये 4 कुमाऊँ की इसी डेल्टा-कंपनी के संग युद्ध के दौरान शहीद हुये पाकिस्तानी सेना के कैप्टेन मोहम्मद सरवर को भी मरणोपरांत पाकिस्तान का सर्वोच्च वीरता पुरुस्कार "निशान-ए-हैदर" से सम्मानित किया गया था और वो भी इस पुरुस्कार को पाने वाले प्रथम पाकिस्तानी थे।
आप सब में से कोई अगर कुमाऊँ की पहाड़ियाँ नैनिताल आदि घूमने जायें, तो रानीखेत अवस्थित कुमाऊँ रेजिमेंट के म्यूजियम में अवश्य जाईयेगा...शौर्य की इस अनूठी दास्तान को करीब से देखने-जानने का मौका मिलेगा। जो लोग कश्मीर-वादी की सैर को हवाई-रास्ते से आते हों तो श्रीनगर एयरपोर्ट से बाहर निकलने के बाद तनिक ठिठक कर दो पल को हमारे हीरो मेजर सोमनाथ की प्रतिमा को सलाम जरूर दीजियेगा।...और जिन लोगों को कभी मौका मिले हमारे 4 कुमाऊँ के आफिसर्स-मेस में आने का,तो उन्हें दिखाऊँगा वो पहला परमवीर चक्र का असली पदक जो मेजर सोमनाथ के परिजनों ने हमारे मेस को सौंप दिया है श्रद्धापूर्वक।
26 October 2009
खुद से ही बाजी लगी है, हाय कैसी जिंदगी है
खैर, ...अपनी एक ग़ज़ल पेश करता हूँ फिलहाल, इस प्रार्थना से साथ कि अपने इस दुलारे हिंदी ब्लौग-जगत में सौहार्द का माहौल कायम रहे सदा-सदा के लिये।
खुद से ही बाजी लगी है
हाय कैसी जिंदगी है
जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है
करवटों में बीती रातें
इश्क ने दी पेशगी है
रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है
अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है
दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है
कत्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है
{मासिक पत्रिका ’वर्तमान साहित्य’ के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित}
...बहरे रमल की इस दो रूक्नी मीटर{मुरब्बा सालिम} पर अपने ब्लौग-जगत में बिखरे चंद ग़ज़ल रूपी हीरे-मोती-पन्ने ढ़ूंढ़ने की कोशिश में कुछ लाजवाब ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। श्रद्धेय प्राण साब की इसी बहरो-वजन पर एक बेहतरीन ग़ज़ल पढिये नीरज जी के ब्लौग पर यहाँ। आदरणीय सर्वत जमाल साब की दो लाजवाब ग़ज़लें इसी बहरो-वजन पर पढ़िये यहाँ और यहाँ। दीपक गुप्ता जी की एक नायाब ग़ज़ल इसी बहर में पढ़ें यहाँ। युवा शायर अंकित सफ़र की एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल जो इसी बहरो-वजन पे बुनी गयी है को पढ़ने के लिये यहाँ क्लीक करें।...और चलते-चलते वीनस केसरी का कमाल देखिये इस बहर पे लिखी हुई सबसे छोटे मीटर{एक रूकनी} वाली ग़ज़ल यहाँ।
पुनःश्च :-
हास्पिटल के सफेद-नीले लिबास से निजात पाये तीन दिन हो चुके हैं। काफी सुधार है। हाथ में कुछ अजीब सी पट्टियाँ बाँधे रखने का आदेश दिया है डाक्टरों ने और डेढ़ महीने बाद वापस बुलाया है। अभी फिलहाल अपने बेस हेड-क्वार्टर में हूँ और पाँच दिनों बाद जा रहा हूँ चार हफ़्ते के अवकाश पर।...तो अगली पोस्ट कोसी-तीरे बसे बिहार के एक सुदूर गाँव से।
...अरे हाँ, इन सब बातों में डाक्टर अनुराग तो रह ही गये! नहीं, उन्होंने मना किया है इस खासम-खास मुलाकात पर कुछ भी लिखने से।
श्रीनगर की उस शाम-विशेष के लिये ढ़ेरम-ढ़ेर शुक्रिया डाक्टर साब...!!!
19 October 2009
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
{त्रैमासिक पत्रिका लफ़्ज़ के दिसम्बर10-फरवरी 11 वाले अंक में भी प्रकाशित}
...ग़ज़ल यदि कहने लायक और जरा भी दाद के काबिल बनी है तो गुरूदेव के इस्लाह और डंडे से। इस बहरो-वजन पर बेशुमार गज़लें और गाने लिखे और गाये गये हैं। चंदेक जो अभी याद आ रहे हैं...चचा गालिब की "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले" और फिर जगजीत सिंह की गायी वो प्यारी-सी ग़ज़ल तो आप सब ने सुनी ही होगी "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता"...। इसी मीटर पर रफ़ी साब का गाया गाना याद आ रहा है जो मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ "खुदा भी आस्मां से जब जमीं पर देखता होगा..."। इस बहर पर एक और रफ़ी साब का बहुत ही पुराना युगल गीत चलते-चलते याद आ गया। मेरे ख्याल से "भाभी" फिल्म का है और मुझे बहुत पसंद है- "छुपा कर मेरी आँखों को..."। चलिये ये गाना सुनाता हूँ आपसब को:-
इसी बहर पर अंकित सफ़र की एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़िये यहाँ और उनके ब्लौग पर जाकर इस नौजवां शायर की हौसलाअफ़जाई कीजिये।
15 October 2009
हेडलाइन टूडे के रिपोर्टर गौरव सावंत के नाम
इंडिया टूडे ग्रुप की ही चर्चित हेडलाइन टूडे का अपना एक ब्लौग है Hawk Eye जिसके मुख्य कंट्रीब्युटर हैं हेडलाइन टूडे के स्टार कौरेस्पांडेन्ट गौरव सावंत । इसी ब्लौग पर उनकी 25 सितम्बर की प्रविष्टि है, जिसके बारे में मुझे जानकारी बस परसों ही मिली थी। किंतु उनकी ये प्रविष्टि बेसिर पैर की और इधर-उधर की सुनी-सुनाई बातों पर है। अब जिस घटना पर गौरव साब ने इतना कुछ लिखा है, उस घटना को मुझसे ज्यादा करीब से तो किसी ने देखा ही नहीं होगा। खुद वो सृष्टि-निर्माता सर्वशक्तिमान ने भी नहीं । ...और अब जो मैं अपने कमेंट के तौर पर इस स्टार रिपोर्टर की कथित सनसनिखेज प्रविष्टि पर कुछ लिखता हूँ उनके कमेंट बक्से में जाकर तो वो छपता ही नहीं। अपनी सैन्य नजदीकीयों और पारिवारिक पृष्ठ-भूमि का फायदा उठा कर सेना से जुड़े चंदेक खास शब्दों और टर्मिनौलोजी का इस्तेमाल कर लेने से रिपोर्टिंग भारी-भरकम और आकर्षक तो जरूर बन जाती है, लेकिन सत्य से परे होना कई लोगों के लिये दुख और पीड़ा का कारण बन जाती है- इस बात से गौरव साब को क्या मतलब हो सकता है भला।
मुझे नहीं लगता की मेजर सुरेश की दिवंगत आत्मा या पल्लवी या मुझे और मेरे संगी-साथियों को इस गलत और बेबुनियाद रिपोर्टिंग से पहुँचे कष्ट और व्यथा की खबर तक पहुँचेगी गौरव साब को। हिंदी कहाँ पढ़ते होंगे श्रीमान जी???...और मेरी इंगलिश में लिखी टिप्पणियों को उनका ब्लौग स्वीकार नहीं कर रहा। वैसे लिखने को तो ऐसी कई प्रविष्टियाँ मैं इंगलिश में भी लिख सकता हूँ और गौरव साब से कहीं बेहतर इंगलिश में, लेकिन न तो इतना समय है मेरे पास और न ही इच्छा-शक्ति।
चलते-चलते, गौरव साब से बस इतनी-सी इल्तजा है कि get your facts and figures straight sir before writing such reports. for you it may be just the matter of sensationalisation and increased TRP...whereas for others it may be pride-honour as well as pain & death !
05 October 2009
सुरेश की स्मृति में...
वो इकतीस का होता आज। अभी उस 22 सितम्बर की सुबह तक तो हमने आज के इस शाम की बातें की थी...एक खास डांस-स्टेप की बात, जो उसे सिखना था...जो मुझे सिखाना था। मिलेट्री हास्पिटल के इस बेड पर लेटा अब सोच रहा हूँ कि जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो क्या अपना वो सिगनेचर स्टेप फिर कभी कहीं डांस करते हुये कर पाऊँगा...? सोच तो ये भी रहा हूँ कि क्या सहज हो कर डांस भी कर पाऊँगा अब मैं कभी...??
मार्च की वो कोई शुरूआती तारीख थी। देहरादून की एक अलसायी दोपहर। एक दिन पहले ही मेरा पोस्टिंग-आर्डर आया था इधर कश्मीर वादी के लिये। मेरा मोबाईल बजा। एक अनजाना-सा नंबर स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था। मेरे हैलो कहते ही उधर से एक गर्मजोशी भरी आवाज आयी थी-" हाय सर! मेजर सुरेश सूरी दिस साइड..." और लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद मुझे इस अनदेखे यंगस्टर के प्रति एक त्वरित लगाव पैदा हो गया था। फिर अपने नये प्लेस आफ ड्यूटी पे रिपोर्ट करने तक सुरेश हर रोज मुझसे रिलिजियसली बात करता रहा और 25 मार्च को हम पहली बार मिले जब वो मुझे रिसिव करने के लिये आया था।
कितनी बातें, कितनी यादें इन विगत छः महीनों की... उसकी हँसी, वो हरेक बात पे उसका "बढ़िया है, सरssss" कहना और कहते हुये "सर" को लंबा खिंचना, उसकी गज़ब की सिंसियेरिटि, उसके वो हैरान कर देने वाले जुगाड़, वो जलन पैदा करने वाला डिवोशन, हर शुक्रवार को रखा जाने वाला उसका व्रत और इस व्रत को लेकर कितनी दफ़ा मेरे द्वारा उड़ाया गया उसका मजाक, वो साथ-साथ लंच करते हुये सैकड़ों बार चंद हैदराबादी रेसिपिज का उसका विस्तृत वर्णन, पार्टियों के दौरान उसके बनाये गये मौकटेल्स और कौकटेल्स, मेरी छुट्टी के दौरान हर रोज उसका वो फोन करके मुझे वैली का अपडेट्स देना और अभी-अभी तो आया था वो खुद ही एक महीने की छुट्टी से वापस पल्लवी को साथ लेकर...
...और इन सबके दरम्यान जाने कहाँ से आ टपकी ये तारीख बाइस सितम्बर वाली। ईद के ठीक बाद वाली तारीख। फिर उसकी तमाम स्मृतियों को भुलाती हुई उसकी वो आखिरी पलों वाली जिद याद आती है अब। बस वो जिद। सोचता हूँ, उन आखिरी क्षणों में उसने जो वो जिद न की होती तो क्या मैं ये पोस्ट लिख रहा होता...? सब कुछ तो प्लान के मुताबिक ही चला था। सब कुछ...??? हमारी ट्रेनिंग के दौरान राइफल की नली से निकलने वाली बुलेट की रफ़्तार, उसका प्रति मिनट कितने चक्कर लगाना, उसकी ट्रेजेक्टरी, उसका इमपैक्ट, उसका इफैक्ट ये सब तो विस्तार से बताया-सिखाया-पढ़ाया जाता है...किंतु प्रारब्ध की रफ़्तार और इसकी ट्रेजेक्टरी के बारे में तो कोई नहीं बताता, कोई नहीं सिखाता है। उसकी सिखलाई OJT होती है- on the job training...उसे वो सर्वशक्तिमान खुद अपने अंदाज़ में सिखाता है।
...बहुत कुछ सुना था, पढ़ा था जिंदगी के आखिरी क्षणों के बारे में कि ये होता है, वो होता है। कोई दिव्य-ग्यान जैसा कुछ होता है। सच कहूँ तो सितम्बर की इस बाइस तारीख को सीखा मैंने कि जिंदगी का कोई क्षण आखिरी नहीं होता। प्रारब्ध जब किसी के होने के लिये किसी और का न होना तय करता है, तो सारी जिंदगी बेमानी नजर आने लगती है...फिर क्या अव्वल, क्या दरम्यां और क्या आखिरी??? बस शेष रह जाते हैं कुछ पल्लवियों के आँसु और शेष रह जाती हैं चंद तस्वीरें :-
I salute you BOY for everything you were...!!!
पुनःश्च :-
आप सब के स्नेह, चिंता, दुआओं, शुभकामनाओं से अभिभूत हूँ। फिलहाल एक सुदूर मिलेट्री हास्पिटल के सफेद-नीले लिबास में लिपटा आप सब के असीम प्यार में डूबा अपनी कर्म-भूमि में वापस लौट जाने के दिन गिन रहा हूँ। जल्द ही ठीक हो जाऊँगा। कभी सोचा भी नहीं था कि अपने इस अभासी दुनिया के रिश्तों से इतना प्यार और स्नेह मिलेगा। ’शुक्रिया’ जैसे किसी शब्द से इसका अपमान नहीं कर सकता...
21 September 2009
कभी मौत पर गुनगुना कर चले...
रस्मे-दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है
मुगलिया सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के इस शेर को ईद के पावन मौके पर सुनाने से रोक नहीं पाता खुद को- विशेष कर अपनी चंद महिला-मित्रों को। फिलहाल चलिये एक ग़ज़ल सुनाता हूँ अपनी। ज़मीन अता की सुख़नवरी के पितामह मीर ने। "दिखाई दिये यूँ कि बेखुद किया, हमें आपसे ही जुदा कर चले" - इस एक ग़ज़ल के लिये शायद अब तक की सबसे महानतम जुगलबंदी हुई है। देखिये ना, अब जिस ग़ज़ल को लिखा हो मीर ने, संगीत पे ढ़ाला हो खय्याम ने और स्वर दिया हो लता जी ने...ऐसी बंदिश पे तो कुछ भी कहना हिमाकत ही होगी। ...और इस ग़ज़ल का ये शेर "परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे / नजर में सभू की खुदा कर चले" मुझे एक जमाने से पसंद रहा है। इसी शेर का मिस्रा दिया गया था तरही के लिये आज की ग़ज़ल पे एक बेमिसाल मुशायरे के लिये। तो पेश है मेरी ये ग़ज़ल:-
हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले
कदम-दर-कदम हौसला कर चले
उबरते रहे हादसों से सदा
गिरे, फिर उठे, मुस्कुरा कर चले
लिखा जिंदगी पर फ़साना कभी
कभी मौत पर गुनगुना कर चले
वो आये जो महफ़िल में मेरी, मुझे
नजर में सभी की खुदा कर चले
बनाया, सजाया, सँवारा जिन्हें
वही लोग हमको मिटा कर चले
खड़ा हूँ हमेशा से बन के रदीफ़
वो खुद को मगर काफ़िया कर चले
उन्हें रूठने की है आदत पड़ी
हमारी भी जिद है, मना कर चले
जो कमबख्त होता था अपना कभी
उसी दिल को हम आपका कर चले
{भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "सुख़नवर" के जुलाई-अगस्त 10 वाले अंक में प्रकाशित}
...इस ज़मीन से परे लेकिन इसी बहर पे एक ग़ज़ल जो याद आती है वो बशीर बद्र साब की लिखी और चंदन दास की गायी "न जी भर के देखा न कुछ बात की / बड़ी आरजू थी मुलाकात की" तो आप सब ने सुनी ही होगी। अरे हाँ, प्रिंस फिल्म में जब शम्मी कपूर महफ़िल में बैजन्ती माला को देखकर एक खास लटक-झटक के साथ गाते हैं बदन पे सितारे लपेटे हुए..., तो इसी बहर पे गाते हैं।
इधर ब्लौग-जगत अपना फिर से व्यर्थ के विवादों में पड़ा है। विवादों से परे हटकर जरा लता दी की "दिखाई दिये यूं..." को रफ़ी साब की मस्ती में "बदन पे सितारे..." की धुन पे गाईये, या उल्टा! बड़ा मजा आयेगा...!
चलते-चलते, मनु जी का ये बेमिसाल शेर सुन लीजिये इसी मुशायरे से:-
खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले
11 September 2009
मेजर आकाशदीप सिंह- शौर्य का एक और नाम
आकाश- मेजर आकाशदीप सिंह। मुझसे एक साल जुनियर था और उससे मैं कभी मिला नहीं था। हमारी ट्रेनिंग-एकेडमी अलग थी। ...किंतु नौ सितम्बर की वो करमजली सुबह जब इस जीवट योद्धा के धराशायी होने की खबर लेकर आयी तो लगा कि आकाश से रिश्ता तो कई जनमों का था...कई जनमों का है। नियंत्रण-रेखा के पास उस पार से आने वाले चंद सरफ़िरे मेहमानों के स्वागत में घात लगाये बैठा आकाश अपने AK-47 पर सधी उँगलियों से दो को मोक्ष दिलवा चुका था। तीसरे की खबर लेने जो जरा वो पत्थरों की आड़ से बाहर आया तो दुश्मन की एक मात्र गोली जाने कैसे छाती से चिपकी उसकी बुलेट-प्रूफ जैकेट को चकमा देती कमर के ऊपर से होते हुये उसके हृदय तक जा पहुँची। ...और अपने पीछे छोड़ गया वो अपनी बिलखती सहचरी दिप्ती, चार वर्षिया खुशी औए डेढ़ साल के तेजस्वी को। तेजस्वी को तो कुछ भान नहीं कि उसका पापा कहाँ है, लेकिन खुशी ताबूत में लाये गये पापा के पार्थिव शरीर को देखते ही रो पड़ी थी।
आपसब भारतीय सेना के इस जांबाज आफिसर की दिवंगत आत्मा को सलाम दीजिये ...तब तक मैं अपने कुछेक प्रश्न-चिह्नों से निबट कर जल्द ही मिलता हूँ अपनी अगली पोस्ट में!!!
31 August 2009
ये तेरा यूं मचलना क्या...
फिलहाल जल्दबाजी में फिर से अपनी एक हल्की-सी ग़ज़ल ठेल रहे हैं। अपनी रचनाओं को अच्छी पत्रिका में छपे देखने पर जो सुख रचनाकार को मिलता है, वो अवर्णनीय है। प्रस्तुत है ये एक छोटी बहर की मेरी ग़ज़ल जो वर्तमान साहित्य के अभी अगस्त वाले अंक में मेरी तीन अन्य ग़ज़लों के संग छपी है:-
ये तेरा यूँ मचलना क्या
मेरे दिल का तड़पना क्या
निगाहें फेर ली तू ने
दिवानों का भटकना क्या
सुबह उतरी है गलियों में
हर इक आहट सहमना क्या
हैं राहें धूप से लथ-पथ
कदम का अब बहकना क्या
दिवारें गिर गयीं सारी
अभी ईटें परखना क्या
हुआ मैला ये आईना
यूँ अब सजना-सँवरना क्या
है तेरी रूठना आदत
मनाना क्या बहलना क्या
{मासिक पत्रिका ’वर्तमान साहित्य’ के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित}
...बहरे हज़ज की ये मुरब्बा सालिम ग़ज़ल 1222-1222 के वजन पर है। हमेशा की तरह इस बार इस रुक्न पर कोई ग़ज़ल या गीत याद नहीं आ रहा। आप में से किसी को कुछ याद आता है तो अवश्य बतायें| ग़ज़ल में जो कुछ अच्छा है, गुरूजी का स्नेहाशिर्वाद है और त्रुटियाँ सब की सब मेरी।
17 August 2009
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से...
पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
हासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से
....इस बहरो-वजन पर शायद सबसे ज्यादा ग़ज़ल कही गयी है। दो ग़ज़लें इस मीटर पर जो अभी फिलहाल ध्यान में आ रही हैं उनमे से एक तो मेरे प्रिय शायर क़तिल शिफ़ाई साब की लिखी चित्रा सिंह की गायी मेरी पसंदीदा ग़ज़ल अँगड़ाई पे अँगड़ाई लेती है रात जुदाई की है और...और...और दूजी जगजीत सिंह की गायी वो दिलकश ग़ज़ल तो आप सब ने सुनी ही होगी देर लगी आने में तुमको, शुक्र है फिर भी आये तो।
इति ! अगली पेशकश के साथ जल्द हाजिर होता हूँ...
10 August 2009
सौ दर्द हैं, सौ राहतें...
...खैर साढ़े चार घंटे की ड्राइव के पश्चात मैं इस तपने-जलने की चिंता से मुक्त अपने बेस में था। चीड-देवदार और शीतल हवाओं वाले बेस में। एकदम से लगा कितना कुछ मिस कर रहा था मैं अपनी इन छुट्टियों में...कितना कुछ!!! चलिये कुछ झलकियां दिखाता हूँ, मैं जो मिस कर रहा था:-
मेरा महल
मेरा साम्राज्य
मेरे सहचर
...और अब कुछ झलकियाँ जो यहाँ आने के बाद मिस कर रहा हूँ:-
मेरी धड़कन
मेरी दुनिया
मेरा वज़ूद
...और खबर मिली है फोन पर कि ये तस्वीर वाली छोटी परी विगत तीन-चार दिनों से हर कमरे में जा-जा कर अपने पापा को ढूँढ़ रही है और नीचे गली में आते-जाते हर टी-शर्ट पहने हुये युवक को पापा पुकारती है और रोने लगती है।
इधर एक ये गाना अजीब ढ़ंग से जुबान पर आकर बैठ गया है, उतरने का नाम ही नहीं ले रहा...सोचा आप लोगों को भी सुना दूँ:-
सौ दर्द हैं
सौ राहतें
सब मिला दिलनशीं
एक तू ही नहींsssssssssssss
24 July 2009
हाँ, तेरे जिक्र से कुछ शेर सँवारे यूं तो...
एक मुद्दत से हुये हैं वो हमारे यूं तो
चाँद के साथ ही रहते हैं सितारे, यूं तो
तू नहीं तो न शिकायत कोई, सच कहता हूं
बिन तेरे वक्त ये गुजरे न गुजारे यूं तो
राह में संग चलूँ ये न गवारा उसको
दूर रहकर वो करे खूब इशारे यूं तो
नाम तेरा कभी आने न दिया होठों पर
हाँ, तेरे जिक्र से कुछ शेर सँवारे यूं तो
तुम हमें चाहो न चाहो, ये तुम्हारी मर्जी
हमने साँसों को किया नाम तुम्हारे यूं तो
ये अलग बात है तू हो नहीं पाया मेरा
हूँ युगों से तुझे आँखों में उतारे यूं तो
साथ लहरों के गया छोड़ के तू साहिल को
अब भी जपते हैं तेरा नाम किनारे यूं तो
...शायद कुछ हल्की-सी लगे आप सब प्रबुद्ध पाठकजनों को। लेकिन ये किशोरवय के इश्क में डूबी लेखनी की उपज थी। जिस बहर पे इस ग़ज़ल को बिठाया है, उस धुन पे कुछ बेहद ही खूबसूरत ग़ज़लें और गाने हैं। रफ़ी साब का वो कभी न भुलाये जाने वाला गीत "जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात" और रफ़ी साब का ही गाया "दूर रह कर न करो बात करीब आ जाओ" या फिर कतील शिफ़ाई साब का लिखा और जगजीत सिंह की मखमली आवाज में डूबी "अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको" और परवीन शाकिर का लिखा मेहदी हसन साब का गाया "कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की" ...फिलहाल तो ये ही याद आते हैं। आप सबों को कुछ और याद आता हो इस धुन पर तो बताइयेगा।
देहरादुन से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "सरस्वती सुमन" के जनवरी-मार्च १० अंक और भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "अर्बाबे-क़लम" के अक्टूबर-दिसम्बर १० अंक में प्रकाशित)
20 July 2009
लेम्बरेटा, नन्हीं परी और एक ठिठकी शाम..
एसएमएस आये कितना वक्त बीत चुका था उसे कुछ पता नहीं। एसएमएस को पढ़ते ही वो तो विचलित मन लिये घर से बाहर निकल गया था पापा का क्लासिक लेम्बरेटा स्कूटर उठाये। लाजिमी ही था...उन आँसुओं को छिपाने के वास्ते, विशेष कर दीपा से उन आँसुओं को छुपाने के वास्ते।...और अब शहर की तमाम सड़कें-गलियाँ लेम्बरेटा से नाप लेने के बाद वो बैठा हुआ था उस नन्ही परी के घर वाली गली में पान की दुकान पर सिगरेट के कश पर कश लगाता हुआ। उसे अपने-आप पर हैरानी हो रही थी कि कैसे उसने पिछले बीस-एक दिनों से सिगरेट पीना छोड़ा हुआ था। उसकी वो नन्हीं परी तो वहाँ से हजारों किलोमीटर दूर अपने ससुराल में थी। इधर इस शहर में संध्या का धुंधलका गहराता हुआ...वो लेम्बरेटा की लंबी सीट पर उँकड़ू-सा बैठा उस नन्ही परी की तस्वीर हाथ में लिये कई साल पीछे जा चुका था।
16 July 2009
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो...
है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो
जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो
लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूडि़यां
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो
होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो
जो सुन सको किस्सा थके इस शह्र के हर दर्द का
सड़कों पे फैली रात की खामोशियों से पूछ लो
लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो
गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊंचा हुआ
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो
लब सी लिये सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्हें
खामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो
होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो
...पाचवें शेर का मिस्रा "लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को" अभी दुरूस्त नहीं हुआ है। आप सब कुछ सुझाव दें। जल्द ही मिलता हूँ अगले पोस्ट में।
आप सब ने दो उस्ताद शायरों की एक गज़ल की अनूठी जुगलबंदी देखी या नहीं? दोनों गुरूजनों को मेरा नमन इस बेजोड़ प्रस्तुति पर।
07 July 2009
दिल्ली की एक शाम और नशिस्त की रपट
खैर तो हाजिर हुआ हूँ अपनी पिछली पोस्ट में जिक्र हुये नशिस्त की रपट लेकर।
20 जून की वो संध्या अजब-सी उमस लिये हुये थी। दिल्ली की संध्या। कश्मीर के बर्फीले चीड़-देवदार के बीहड़ों में रास्ता ढ़ूंढ़ना कहीं आसान जान पड़ा बनिस्पत दिल्ली की उस भूल-भूलैय्या ट्रैफिक में। ...और फिर मेट्रो रेल का विस्तार देख कर इंसान की असीम शक्ति का आभास हुआ। मोबाईल पर मनु जी द्वारा तमाम दिशा-निर्देशन के बाद मेट्रो रेल के राजीव चौक स्टेशन पर उनसे और अर्श भाई से मुलाकात हुई। अर्श का गर्मजोशी से गले मिलना एकदम से जोड़ गया हमें और फिर हम तीन तिलंगे चल पड़े मेट्रो पर सवार हो। अर्श कम बोलते हैं। मेट्रो रेल के यमुना बैंक स्टेशन के बाहर प्रतिक्षा शुरू हुई मुफ़लिस जी के लिये...कुछ ही क्षणों बाद वो हाजिर थे। उनके चरण-स्पर्श के लिये झुके मेरे हाथों को बीच में ही रोक कर उनका मुझे गले से लगा लेना अविस्मरणीय कर गया उस पल को। ...और फिर हम चल पड़े दरपण की जानिब एक आटो में बैठ कर। आटो में बैठकी भी बकायदा बहरो-वजन में थी। 2122 के वजन में। अर्श-मुफ़लिस-मैं-मनु। या मनु जी के लिये 3 रखें? मुफ़लिस जी तो यकिनन 1 पर फिट बैठते हैं।
दरपण जी-जान से लगे थे अपने निवासस्थान की सफाई में जब हम पहुँचे। देहलीज़ के बाहर जुते-चप्पलों का अंबार लगा देख मुफ़लिस जी के मुख से बेसाख्ता निकला ये जुमला- "वाह! मुशायरे की पूरी तैयारी है...!!"
उधर उस संध्या ने जब मुस्कुराते हुये विदा लिया तो रात अपने पूरे यौवन पर कभी न भूल पाने वाले एक सत्संग के लिये बिछी हुई तैयार हो रही थी। मुफ़लिस जी ने बागडोर थामते हुये नशिस्त का आगाज़ किया। ...तो शुरू करते हैं मुफ़लिस जी की कशिश भरी आवाज में उनकी एक बेमिसाल ग़ज़ल, जिसके नशे में अब तलक हम डूब-उतरा रहे हैं।
दिल की दुनिया में अगर तेरा गुजर हो जाये - >मुफ़लिस
उनकी इस ग़ज़ल का ये शेर "अब चलो बाँट लें आपस में वो बीती यादें / ग़म मेरे पास रहे चैन उधर हो जाये" उस दिन से मेरी जबान पे कुछ ऐसा चढ़ा है कि पूछिये मत। इसी बहर पर एक किसी शायर ने कहा है इतनी आसानी से मिलती नहीं फ़न की दौलत / ढ़ल गयी उम्र तो ग़ज़लों पे जवानी आयी। लेकिन मुफ़लिस जी के शेरों की जवानी तो देखते बनती ही है, उनके चेहरे पे छाया बचपना कहीं से आभास ही नहीं देता उनकी उम्र का। वैसे उनकी इस ग़ज़ल को पूरा पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें।
अगली पेशकश मनु जी की...
शेर क्या रूक़्न भी होता है मुक्कमल मेरा - >मनु
मनु जी के साथ सबसे खास बात ये होती है कि कई बार उन्हें खुद ही नहीं पता होता कि वो कितनी बेमिसाल ग़ज़ल कह गये हैं। उस रात को बार-बार बंद होते पंखे{स्पष्ट रिकार्डिंग के लिये} के साथ उतरती उनकी कैप का नजारा अद्भुत था। मनु जी की इस ग़ज़ल के इन दो शेरों पर अपनी सारी आह-वाह-उफ़्फ़्फ़्फ़ निछावर है:-
और गहराईयां अब बख्श न हसरत मुझको / कितने सागर तो समेटे है ये सागर मेरा
आह निकली है जो यूं दाद के बदले उसकी / कुछ तो समझा है मेरे शेर में मतलब मेरा
और अब आते हैं हरदिल अज़ीज प्रकाश अर्श अपनी दिलकश आवाज के साथ...
इश्क मुहब्बत आवारापन - >अर्श
अर्श ज्यादा बोलते नहीं, लेकिन जब गाते हैं तो साक्षात सरस्वती विराजती हैं उनके गले में। आह ! क्या आवाज पायी है मेरे गुरूभाई ने...! उस रात हमने उनकी लरज़ती आवाज में डूबी कई बंदिशें और मेहदी हसन व ग़ुलाम अली के गाये कुछ शानदार ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाया। फिलहाल यहाँ प्रस्तुत है उनकी ये खूबसूरत छोटी बहर वाली ग़ज़ल उनकी आवाज में- पहले तहत में और फिर तरन्नुम में:-
पूरी ग़ज़ल पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें और साथ में इसी ग़ज़ल पर >निर्मला कपालिया जी की विशेष टिप्पणी पर भी गौर फर्माइयेगा। अर्श, तुम भी गौर कर लो।
और अब दरपण की बारी...
संदूक - >दरपण
हिंदी ब्लौग-जगत में गीत-ग़ज़ल-नज़्म-कविता लिखने-पढ़ने वाले ब्लौगरों को मैं दो हिस्सों में बाँटता हूँ- एक, जिन्होंने दरपण की इस नज़्म संदूक को पढ़ा है और दूसरा, जिन्होंने इस नज़्म को नहीं पढ़ा है। मैं पहले हिस्से में हूँ और फिर उस रात मुझे सौभाग्य मिला उन्हीं की जुबान में इस दुर्लभ नज़्म को सुनने का। दरपण की उम्र का अभास उनकी रचनाओं से नहीं होता। जेनेरेशन वाय {y} का प्रतिनिधित्व करने वाला ये युवा इतना संज़ीदा हो सकता है जिंदगी के प्रति और इश्क को लेकर कि हैरानी होती है...और साथ ही सकून भी मिलता है। खैर आप ये नज़्म सुनिये दरपण की आवाज में{कहीं गुलज़ार का धोखा हो तो बताइयेगा} और पूरी नज़्म पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें।
पोस्ट कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। तो अपनी भद्दी आवाज़ न सुनाते हुये, आपलोगों को आखिर में मुफ़लिस जी की एक और ग़ज़ल सुना देता हूँ। दीक्षित दनकौरी द्वारा संपादित "ग़ज़ल...दुष्यंत के बाद, भाग ३" में छपी इस ग़ज़ल को पढ़कर इसका दीवाना तो पहले से ही हो चुका था, उस दिन उनकी मधुर अदा के साथ उनकी आवाज में सुनना दीवानगी को अपने चरम पर ले गया। पूरी ग़ज़ल >यहाँ पढ़ें और सुने उनकी जादुई आवाज में नीचे:-
शौक दिल के पुराने हुये - मुफ़लिस
...सुबह तीन बजे तक चलता रहा ये दौर। कुछ और दुर्लभ रिकार्डिंग शेष पड़े हैं अभी मेरे पास, जो निकट भविष्य में सुनाऊँगा। फिलहाल इतना ही। ये पोस्ट और इस पोस्ट पर लगी तमाम आडियों-क्लिपिंग्स के लिये अनुजा >कंचन को विशेष रूप से शुक्रिया और >कुश को भी जिसके सुझाव से मैं ये कर पाया।
25 June 2009
बिन बाप के होती हैं कैसे बेटियाँ इनकी बड़ी...
तीन महीने बाद वापसी सभ्यता में। छुट्टी पे हूँ। एक लंबित प्रतिक्षित छुट्टी पर। ...इस दौरान छुटकी तनया साढ़े तीन महीने और बड़ी हो गयी अपने पापा के बगैर, लेकिन जब अपने पापा से मिली इतने दिनों बाद तो सबको आश्चर्यचकित करते हुये एकदम से अपने पापा की गोद में आ गयी। तो एक शेर बना था कुछ यूं कि
बिन बाप के होती हैं कैसे बेटियाँ इनकी बड़ी
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो
पूरी ग़ज़ल फिर कभी सुनाऊँगा...
कश्मीर की ठंढ़ के बाद इस गर्मी में खौलते-उबलते छुट्टी के दिनों की बात ही कुछ और है। खैर नवगीत की पाठशाला से उठाया हुआ एक प्रयास मेरा नवगीत पर आपलोगों की नज्र कर रहा हूँ:-
जरा धूप फैली जो चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती
पिघलती सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है
शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं
सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती
ये सूरज जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें
पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना
जरा कुनमुनायी
खयालों में आकर
जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती
बगानों में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते
भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती
है मिट्टी सुगंधी
सुबह से थकी है
पड़ी शाम औंधी
सितारों भरी रात आयी झिझकती
....और छुट्टी की शुरूआत हुई थी दिल्ली में आयोजित एक नन्हे-से नशिस्त से, जिसमें मुफ़लिस जी, मनु जी, प्रकाश अर्श जी, दरपण जी और खाक़सार शामिल थे। अच्छी धूम मची इन ब्लौगर शायरों से दरपण जी के निवास-स्थान पर और भेद खुला दरपण के प्राची के पार का। रचनाओं की प्रस्तुति और विस्तृत रपट के साथ जल्द ही हाजिर होता हूँ।
12 June 2009
मेजर ऋषिकेश रमानी - शौर्य का नया नाम
शौर्य ने एक नया नाम लिया खुद के लिये- ऋषिकेश रमानी । अपना छोटु था वो। उम्र के 25वें पायदान पर खड़ा आपके-हमारे पड़ोस के नुक्कड़ पर रहने वाला बिल्कुल एक आम नौजवान, फर्क बस इतना कि जहाँ उसके साथी आई.आई.टी., मेडिकल्स, कैट के लिये प्रयत्नशील थे, उसने अपने मुल्क के लिये हरी वर्दी पहनने की ठानी। ...और उसका ये मुल्क जब सात समन्दर पार खेल रही अपनी क्रिकेट-टीम की जीत पर जश्न मना रहा था, वो जाबांज बगैर किसी चियरिंग या चियर-लिडर्स के एक अनाम-सी लड़ाई लड़ रहा था। आनेवाले स्वतंत्रता-दिवस पर यही उसका ये मुल्क उसको एक तमगा पकड़ा देगा। आप तब तक बहादुर नहीं हैं, जब तक आप शहीद नहीं हो जाते । कई दिनों से ये "शहीद" शब्द मुझे जाने क्यों मुँह चिढ़ाता-सा नजर आ रहा है...!!! छः महीनों में तीन दोस्तों को खो चुका हूँ...पहले उन्नी, फिर मोहित और आज ऋषि ।
सोचा कुछ तस्वीरें दिखा दूँ आप सब को इस unsung hero की, शौर्य के इस नये चेहरे की:-
भारतीय सेना अपने आफिसर्स-कैडर्स पर गर्व करती है, जिन्होंने हमेशा से नेतृत्व का उदाहरण दिया है। स्वतंत्रता के बाद की लड़ी गयी हर लड़ाई का आँकड़ा इस बात की कहानी कहता है... चाहे वो 47 की लड़ाई हो, या 62 का युद्ध या 65 का संग्राम या 71का विजयघोष या फिर 99 का कारगिल और या फिर कश्मीर और उत्तर-पूर्व में आतंकवाद के खिलाफ़ चल रहा संघर्ष।
हैरान करती है ये बात कि देश के किसी समाचार-पत्र ने ऋषि के इस अद्भुत शौर्य को मुख-पृष्ठ के काबिल भी नहीं समझा...!!! सैनिकों के दर्द की एक छोटी-सी झलक देखिये प्रियंका जी की इस खूबसूरत कविता में।
i salute you, Rushikesh !
01 June 2009
इस मोड़ से आते हैं...
"आप बड़े ही ज़हीन हो, कैप्टेन शब्बीर ! हमारी बहन से शादी कर लो...!" साज़िया के इन शब्दों को सुन कर कैसा चौंक उठा था मैं।
वो गुनगुनी धूप वाली सर्दियों की एक दोपहर थी। वर्ष 2000 का नवंबर महीना। तारीख ठीक से याद नहीं। जुम्मे का दिन था, इतना यकीनन कह सकता हूँ। श्रीनगर के इक़बाल पार्क में बना वो नया-नवेला कैफेटेरिया, साज़िया ने ही सुझाया था मिलने के लिये। हमारी पाँचवीं या छठी मुलाकात थी विगत डेढ़ साल से भी ऊपर के वक्फ़े में। वैसे भी ज्यादा मिलना-जुलना खतरे से खाली नहीं था- न मेरे लिये और न ही साज़िया के लिये। फोन पर ज्यादा बातें होती थी। ये उन दिनों की बात है, जब मोबाइल का पदार्पण धरती के इस कथित जन्नत में हुआ नहीं था।
उम्र में मुझसे तकरीबन आठ-नौ साल बड़ी और वजन में लगभग डेढ़ गुनी होने के बावजूद उसकी चेहरे की खूबसूरती का एक अपरिभाषित-सा रौब था। तीन बच्चों की माँ, साजिया अपने अब्बू और छोटी बहन सक़ीना के साथ श्रीनगर के डाउन-टाउन इलाके में रहती थी। माँ छोटी उम्र में गुजर चुकी थी। दो भाई थे...पिछले साल मारे गये थे हमारे ही एक आपरेशन में। जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही जेहाद का शौक चर्राया था। उस पार हो आये कुछ सरफिरों के साथ उठना-बैठना हो गया दोनों का और फिर नशा चढ़ गया हाथ में एके-47 को लिये घूमने का। नाम ठीक से याद नहीं आ रहा उनका- शायद शौकत और ज़लाल। वैसे भी आपरेशन में मारे जाने के बाद ये सरफिरे नाम वाले कहाँ रह जाते हैं। ये तो नम्बर में तब्दील हो जाते हैं गिनती रखने के लिये। साज़िया को सब मालूम था इस बाबत। लेकिन वो बिल्कुल सहज रहती थी इस बारे में। जिससे इश्क किया, वो भी शादी रचा कर और निशानी के रूप में दो बेटे और एक फूल-सी बेटी देकर उस पार चला गया। तीन साल पहले। कोई खबर नहीं। क्या पता, कोई गोली उसके नाम की भी चल चुकी हो। किंतु साज़िया इस बारे में भी कोई मुगालता नहीं रखती थी।
वो मेरे पे-रोल पर थी और समय-असमय महत्वपूर्ण सूचनायें देती थी। उस रोज भी हमारा मिलना किसी ऐसे ही खबर के सिलसिले में था। थोड़ी-सी घबरायी हुई थी वो, क्योंकि खबर उसके पड़ोसी के घर के बारे में थी। उसे सहज करने के लिये मैंने बातों का रूख जो मोड़ा, तो अचानक से अपनी बहन के लिये इस अनूठे प्रणय-निवेदन से हैरान कर दिया मुझे। तीन-चार बार जा चुका था उसके घर। साज़िया के अब्बू को मैं पसंद नहीं था, भले ही मेरी वजह से घर में रोटी आती हो। अपने जवान बेटों की मौत का जिम्मेदार जो मानते थे मुझे। सक़ीना को देखा था मैंने। उफ़्फ़्फ़! शायद "बला की खूबसूरत" जैसा कोई विशेषण उसे देख कर ही बनाया गया होगा। उसके अब्बू ने शर्तिया मुझे दो-तीन बार सक़ीना को घूरते हुए पकड़ा होगा। लगभग अस्सी को छूते अब्बू की आँखें चीरती-सी उतरती थी मेरे वजूद में। साज़िया के घर के उन गिनेचुने भ्रमणों में कई दफ़ा मुझे लगा कि अब्बू को मेरी असलियत पता है और इसी वजह से मैं बाहर बुलाने लगा था साज़िया को, जब भी कोई खास खबर होती। हाँ, अब्बू के हाथों की बेक की हुई केक को जरूर तरसता था खाने को। ये कश्मीरी कमबख्त केक बड़ी अच्छी बनाते हैं सब-के-सब।
"अपने अब्बू वाला एक केक तो ले आतीं आप साथ में" - मैंने उस अप्रत्याशित प्रणय-निवेदन को टालने की गरज से बातचीत का रूख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा।
"सक़ीना से निकाह रचा लो शब्बीर साब! अल्लाह आपको बरकतों से नवाज़ेगा और इंशाल्लाह एक दिन आप इस कैप्टेन से जेनरल बनोगे। फिर जी भर कर केक खाते रहना। अब्बू की वो पक्की शागिर्द है। ता-उम्र तुम्हें वैसा ही केक खिलाते रहेगी।" - वो मगर वहीं पे अड़ी थी।
मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिये सिगरेट सुलगा ली। विल्स क्लासिक का हर कश एक जमाने से मुझे ग़ालिब के शेरों सा मजा देता रहा है।
"कैसे मुसलमान हो? सिगरेट पीते हो? लेकिन फिर भी सक़ीना के लिये सब मंजूर है हमें।"- वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे सम्मोहित कर रही थी।
"थिंग्स आई डू फौर माय कंट्री"....जेम्स बांड बने हालिवुड-अभिनेता सौन कौनरी के उस प्रसिद्ध डायलाग को मन-ही-मन दोहरा कर मुस्कुराया मैं।
दोपहर ढ़लने को थी और मैं साज़िया की दी हुई महत्वपूर्ण खबर को लेकर अपने हेडक्वार्टर में लौटने को बेताब था। दो सरफिरों के उसके पड़ोस वाले घर में छूपे होने की खबर थी। देर शाम जब अपने हेडक्वार्टर लौटा, कमांडिंग आफिसर मेरी ही प्रतिक्षा में थे।
"बड़ी देर लगा दी, मोहित! साज़िया से इश्क-विश्क तो नहीं कर बैठे हो तुम?- बास छेड़ने के अंदाज में पूछते हैं।
"सुना है उसकी छोटी बहन बहुत सुंदर है?"
"बला की खूबसूरत, सर!"
"बाय दी वे, तुम्हारी पोस्टिंग आ गयी है। पुणे जा रहे हो तुम दो साल के लिये। खुश? योअर गर्ल-फ्रेंड इज देयर औनली, आई बिलिव!"- बास ने ये खबर सुनायी, तो खुशी से उछल ही पड़ा था मैं।
और उसी खुशी के जोश में साज़िया की खबर पर रात में एक सफल आपरेशन संपन्न हुआ।
"मेरी पोस्टिंग आ गयी है, साज़िया और अगले हफ़्ते मैं जा रहा हूँ यहाँ से।"- दूसरे दिन जब मैं साज़िया से मिलने और उस सफल आपरेशन के लिये कमांडिंग आफिसर की तरफ से विशेष उपहार लेकर गया तो उसे अपनी पोस्टिंग की खबर भी सुना दी। हमेशा सम्मोहित करती उन आँखों में एक विचित्र-सी उदासी थी।
"फिर कब आना होगा?"
"अरे, दो साल बाद तो यहीं लौटना है। ये वैली तो हमारी कर्मभूमि है।"
"अपना ख्याल रखना एंड बी इन टच"- आँखों की उदासी गहराती जा रही थी।
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वर्ष 2003 का अगस्त महीना। वैली में वापसी। लगभग ढ़ाई सालों बाद मिल रहा था मैं साज़िया से। थोड़ी-सी दुबली हो गयी थी।
"अभी तक कैप्टेन के ही रैंक पर हो शब्बीर साब? अभी भी कहती हूँ, सक़ीना से निकाह रचा लो...देखो प्रोमोशन कैसे मिलता है फटाफट!"
"आप जानती हो, साज़िया। मैं किसी और से इश्क करता हूँ।"
"..तो क्या हुआ? तुम मर्दों को तो चार बीवियां लागु हैं।"- इन बीते वर्षों में उन आँखों का सम्मोहन अभी भी कम नहीं हुआ था।
जन्नत में मोबाईल का आगमन हो चुका था। मोबाईल सेट अभी भी मँहगे थे। किंतु साज़िया को सरकारी फंड से मोबाईल दिलवाना निहायत ही जरूरी था। सूचनाओं की आवाजाही तीव्र हो गयी थी और साज़िया को दिया हुआ मोबाईल हमारे लिये वरदान साबित हो रहा था। कुछ बड़े ही सफल आपरेशन हो पाये थे उस मोबाईल की बदौलत। सब कुछ लगभग वैसा ही थी इन ढ़ाई सालों के उपरांत भी। नहीं सब कुछ नहीं...अब्बू और बूढ़े हो चले थे...निगाहें उनकी और-और गहराईयों तक चीरती उतरती थी, जैसे सब जानती हो वो निगाहें मेरी असलियत के बारे में...उनका बेक किया हुआ केक और स्वादिष्ट हो गया था...और सक़ीना- बला से ऊपर भी कुछ होता है? मालूम नहीं। कुछ अजीब नजरों से देखती थी वो मुझे। ये मेरा अपराध-भाव से ग्रसित मन था या वो नजरें कुछ और कहना चाहती थीं? उसकी खूबसूरती यूं विवश तो करती थी मुझे उसे देर तक जी भर कर देखने को, किंतु खुद पर जबरदस्त नियंत्रण रख कर मन को समझाना पड़ता। कोई औचित्य नहीं बनता था एक ऐसी किसी संभावना को बढ़ावा देने का और वैसे भी पुणे में नेहा के रहते हुये ऐसी कोई संभावना थी भी नहीं इधर सक़ीना के साथ। ...किंतु अपनी छोटी बहन की तरफ से साज़िया का प्रणय-निवेदन बदस्तुर जारी था और जो हर खबर, हर सूचना के साथ अपनी तीव्रता बढ़ाये जा रहा था।
श्नैः-श्नैः बीतता वक्त। 2005 का साल अपने समापन पर था। एक और पोस्टिंग। वैली से फिर से कूच करने का समय आ गया था दो साल की इस फिल्ड पोस्टिंग के बाद उत्तरांचल की मनोरम पहाड़ियों में बसे रानीखेत में एक आराम और सकून के दिन गुजारने के लिये। वो दिसम्बर की धुंधली-सी शाम थी। डल लेक के गिर्द अपनी सर्पिली मोड़ों के साथ बलखाती हुई वो बुलेवर्ड रोड। साज़िया अपनी फूल-सी बिटिया रौशनी के साथ आयी थी मिलने। डेढ़ साल की रौशनी ने चेहरा अपने लापता बाप से लिया था, लेकिन आँखें वही साज़िया वाली।
"तो कब रचा रहे हो निकाह हमारी सक़ीना के साथ, शब्बीर साब?"- साज़िया रौशनी को मेरे गोद में देते हुये कहती है।
"देखो तो कितना मेल खाता है शब्बीर नाम सक़ीना के साथ। अब मान भी जाओ कैप्टेन!"- अजीब ठुनक के साथ कहा था उसने।
"मैं जा रहा हूँ। पोस्टिंग आ गयी है और आने वाले मार्च में शादी तय हो गयी है मेरी, साज़िया।" - इससे आगे और कुछ न कह पाया, जबकि सोच कर आया था कि आज सब सच बता दूँगा। उन आँखों के सम्मोहन ने सारे अल्फ़ाज़ अंदर रोक दिये।
"आओगे तो वापस इधर ही फिर से दो-ढ़ाई साल बाद। कर्मभूमि जो ठहरी ये तुम्हारी...है कि नहीं? - उदास आँखों से कहती है वो।
मैं बस हामी में सिर हिला कर रह जाता हूँ।
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अप्रैल 2009| लगभग साढ़े तीन साल बाद वापसी हो रही थी इस बार अपनी कर्मभूमि पर। कितना कुछ बदल गया है वैली में। मैं खुश हूँ...हर घर में डिश टीवी, टाटा स्काई के गोल-चमकते डिस्क को लगे देख कर...सड़क पर दौड़ती सुंदर मँहगी कारों को देख कर...श्रीनगर में नये बनते माल्स, रेस्टोरेंट्स को देख कर। एक ऐसे ही आवारा-सी सोच का उन्वान बनता है कि इस जलती वैली में जो काम लड़खड़ाती राजनीति, हुक्मरानों की कमजोर इच्छा-शक्ति और राइफलों से उगलती गोलियां न कर पायीं, वो काम शायद आने वाले वर्षों में इन सैटेलाइट चैनलों पे आते स्प्लीट विला या एमटीवी रोडीज और इन जैसे अन्य रियालिटी शो कर दे....!!! शायद...!!! इस वर्तमान पीढ़ी को ही तो बदलने की दरकार है बस। पिछली पीढ़ी- साज़िया के साथ वाली पीढ़ी का लगभग सत्तर प्रतिशत तो आतंकवाद की सुलगती धूनि में होम हो गयी। इस पीढ़ी को बदलने की जरूरत है। इस पीढ़ी को नये जमाने की लत लगाने की जरूरत है। खूब खुश हो मुस्कुरा उठता हूँ मैं अपनी इस नायाब सोच पर। खुद को ही शाबासी देता हुआ अपने-आप से बोल पड़ता हूँ- "वाह, मेजर मोहित साब! तूने तो बैठे बिठाये इस बीस साल पुरानी समस्या का हल ढूंढ़ लिया..."।
लेकिन साज़िया का कहीं पता नहीं।
वो नंबर अब स्थायी रूप से सेवा में नहीं है।
उसका घर वीरान पड़ा हुआ है।
पास-पड़ोस को कुछ नहीं मालूम। या शायद मालूम है, मगर कोई बताना नहीं चाहता।
वैसे भी उस इलाके से बहुत दूर हूँ, तो बार-बार जाना भी संभव नहीं।
उससे मिलना चाहता हूँ।
दिखाना चाहता हूँ उसे प्रोमोशन के बाद मिला अपना मेजर का रैंक।
और बताना चाहता हूँ उसे अपना असली नाम............