अप्रैल तो आधा से ज़्यादा
गुज़र चुका है, लेकिन ये वाला साल है कि पुराने साल की ठिठुरन को
अब तलक अपने बदन पर लपेटे हुये है | बंकर से बाहर निकलने के लिए बर्फ ने जो सीढ़ियाँ तैयार
कर रखी है, वो घटती मालूम ही नहीं पड़ रहीं | अभी तक उतुंग सी बेहया
की तरह सर उठाये खड़ी हुयी हैं | सब कुछ जैसे गीला गीला सा...पूरे का पूरा वजूद तक....वजूद
की अनंत तलहट्टियाँ तक | प्रचंड सूर्य की प्रखर धूप के लिए बेचैन विकल मन समूचे सूर्य को ही उतार लाना
चाहता है बंकर की छत पर | धूप की जलती सी रस्सी जो होती एक काश, जिस पर पूरे बदन को निचोड़ कर सूखने के लिए
टांग देता कोई |
रातें उम्र से भी लंबी हैं और दिन उस लंबी उम्र का फकत एक
लम्हा जैसे ...
और रात लिये रहती है याद-सी कोई याद तुम्हारी…ड्यूटी की तमाम बंदिशों में
भी और रात भर बजता रहता है ये बगल में रखा छोटा-सा मोटोरोला का रेडियो-सेट, निकट दूर खड़े तमाम संतरियों
से मेरे बंकर को जोड़ता हुआ...”अल्फा ऑस्कर किलो ओवर” (all ok over) करता हुआ
जानती हो
तुम्हारी याद दिलाता है ये कमबख़्त
छोटा सा रेडियो सेट
हर बार, बार-बार
घड़ी-घड़ी “ऑल ओके ओवर” की रिपोर्ट देता हुआ
हाँ ! सच में !!
तुम सा ही पतला-दुबला
तुम सा ही सलोना
और भरोसेमंद भी
और जब भी बोलना होता है इसमें कुछ
लाना पड़ता है इसे
होठों के बिलकुल पास
ठीक तुम-सा ही तो
हँसोगी ना तुम सुनकर ये ?
काश कि दूर इन बर्फीले पहाड़ों से
इसी के जरिये कर पाता मैं
तुम संग भी “ओके ओवर”
कभी-कभार “मिस यू ओवर”
और थोड़ा-सा
“लव यू ओवर“ भी...
...और जो यूँ होता तो क्या तब भी ये रातें उम्र सी ही लंबी
होतीं ?