10 May 2016

तीन रोज़ इश्क़

“चार दिन की ज़िंदगी, तीन रोज़ इश्क़”...गुलज़ार जब ऐसा कहते हैं तो जफ़र से कहीं बहुत आगे निकल आते हैं जिन्होंने कहा कि “उम्रे-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में” | बहुत-बहुत सारी ख़ुशी और बहुत-बहुत सारी उदासी के बीच कहीं डूबती-उतराती कहानियों के साथ पूजा उपाध्याय जब
अपनी किताब “तीन रोज़ इश्क़” लेकर आती हैं तो जफ़र से लेकर गुलज़ार के पड़ाव के बीच और फिर उस से आगे की...कहीं बहुत आगे की किसी गुमशुदा-सी यात्रा पर लिए चलती हैं हम पाठकों को | “तीन रोज़ इश्क़” को पढ़ना...यूँ कि जैसे अल्फ़ाज़ की खुदी हुई नींव पर कहानियों का नया प्लॉट खड़ा करना है...या कि जैसे क़िस्सागोई की किसी बुलंद इमारत पर चंद और  फ्लोर्स को उठाना...या...या कि जैसे आस-पास के लगते किरदारों के बीच कुछ एलिएन्स को आमंत्रित कर उन्हें अपने पड़ोस में बसा लेना |

तक़रीबन एक सौ सत्तर पृष्ठों में एक नहीं, दस नहीं...पूरी छियालीस कहानियों के ज़रिये लेखिका हमें इस डिजिटलाइज्ड हो चुकी दुनिया में रखते हुये भी क़िस्सागोई के पारम्परिक संसार में आव-भगत करती हैं और वो भी पूरे ढ़ोल-पिपही के साथ | कहने का मंतव्य ये कि समकालीन समय में लिखी जा रही अधिकांश कहानियाँ जब आस-पड़ोस की किसी न किसी घटना या फिर लेखक के अपने जीवन में घटित होने वाली बातों से प्रेरित रहती हैं, तीन रोज़ इश्क़” को पढ़ते हुये आप साफ़ महसूस करेंगे कि ये सारे क़िस्से लेखिका की कल्पनाशीलता...सिर्फ और सिर्फ कल्पनाशीलता की उपज हैं | पढ़ते हुये या पढ़ लेने के बाद इस अहसास के सिर उठाते ही आप लेखिका के प्रति एक अपरिभाषित से “आव”...एक...एक तारीफ़ भरे सम्मान या कुछ ऐसी ही मिली-जुली अनुभूतियों से भर उठते हैं |

किताब सुनाती है कहानी...एक नीली नदी के किनारे बसे ख़्वाब रंगते रंगरेजों और दुआएं बुनते जुलाहों की...मंटो से दोज़ख में हॉट-लाइन पर बात करती एक सरफ़िरी लड़की की...किसी गुमशुदा हॉस्पिटल के आदमख़ोर कमरों में क़ैद रूहों की बेआवाज़ क्रांतियों की...वायलिन की स्ट्रींग्स पर अपनी ऊँगलियों को लहूलुहान करती और भाई को याद करते हुये छुटकी पर लाड़ बरसाती इश्क़ियायी बहन की...रात के टीसते ज़ख़्मों पर सस्ती शराब छिड़क कर आग लगाते प्रेमियों की...सिगरेट की डिब्बी पर किसी लड़की के नाम के उर्वर अक्षरों को तलाशते एक लड़के की...अपनी मुहब्बत को अपने ही दोस्त पर क़ुरबान करते सुसाइडल आशिक़ के एकालाप की...रूठे सूरज की उदास नज़मों को सुनाने वाले एक पोस्टकार्ड की...कच्ची उम्र की पीठ पर शाबासी के लिए फेरे गए हाथों में छुपे घृणित वासनाओं की...लवर्स से बेस्ट फ्रेंड्स के दरम्यान के एक कनफ्यूज से टू एंड फ्रो जर्नी की...धड़कनों की डिसिप्लिन को तोड़ती किसी निगाहों में डूबी जाती चालीस साला स्त्री की...कुरियर के पार्सल में आये हुये किसी लम्स के फिंगरप्रिंट को समोए एक साबुन की...कलाई की नस काट कर खून की पिचकारी से बनाए गए किसी पेंटिंग की...कवि को लिखती हुई एक कविता की...और जिस्मों के काले जादू की |

कैसी तो कैसी कहानियाँ...टीस छेड़तीं...हुकहुकी उठातीं...अजब-गज़ब सी लड़कियों की कहानियाँ | कहानी...उस लड़की की जो कटी ऊँगली से रिसते ख़ून को व्हिस्की में डालकर कॉकटेल बनाती है | कहानी...उस लड़की की जिससे ख़ुद आसमान ही इश्क़ कर बैठा इक रोज़ | कहानी...उस लड़की की जो जब मुसकुराती है तो उसकी आँखों का काजल उसके प्रेमी की रातों में बह आता है | कहानी...उस लड़की की जो चाँद के संग अपने बाइक पर रेसिंग करती है | कहानी...नागफनी से आहिस्ता-आहिस्ता  टकीला बनती लड़की की | कहानी...वो एक नीली बोगनविलिया की टूटी पंखुरियाँ ढूँढने वाली लड़की की | कहानी...सुनहली रेत वाले देश के शहजादे को ऊसर मिट्टी की दास्तान सुनाने वाली लड़की की | कहानी...घोड़े पर शहर दर शहर दर घूम कर अनगिन पुरुषों से प्रेम करने वाली लड़की की | कैसी तो कैसी लड़कियाँ और उनकी कैसी तो कैसी कहानियाँ...कि इन कहानियों को पढ़ो तो उन लड़कियों को ढूंढ कर उनके इश्क़ में डूब जाने का जी करे |

ये कहानियाँ अपने मूल रूप में इश्क़ की कहानियाँ हैं | समस्त कहानियाँ आपस में जुदा होकर भी घुली-मिली सी...और कई बार एक-दूजे का एक्सटेंशन सी प्रतीत होती हैं | दरअसल पूजा उपाध्याय की ये कहानियाँ अपने-आप में क़िस्सागोई से परे कुछ अद्भुत किरदारों को बुनने की व्याकुलता है और इसी व्याकुलता के चरम पर कई बार कहानियाँ अपना कथ्य खोकर किरदार का एकालाप बन कर रह जाती हैं | लेकिन इस बारे में लेखिका कोई मुगालता भी नहीं रखतीं कि इस किताब का टैगलाइन ही है “गुम होती कहानियाँ” और किताब का बैक-कवर पहले ही ऐलान करता है कि “इन छोटी कहानियों में एक चोर दरवाज़ा है जिससे आप कहानी में दाख़िल होकर उसे जी सकते हैं” ...अब ये जिस चोर दरवाज़े का लेखिका ऐलान करती हैं, वो पाठक-दर-पाठक मुखतलिफ़ खुलता है | किसी पर कहानी की पहली पंक्ति के साथ ही तो किसी के साथ कहीं बीच में...एकदम भक्क से कि अरे ! ये क्या !! ...और इन सब पर तुर्रा ये कि भाषा-सौंदर्य की चौंध आपकी मिचमिचायी आँखों के सामने कब कोई नया दरवाज़ा खोल देगी, आपको पता ही नहीं चलेगा | ये कहानियाँ एक क़िस्म की ढीटाई सी करती हैं...पाठको को टीज़ करती हुई कि जैसे ही आप उस चोर दरवाज़े से अंदर दाख़िल हुए कि वो गुम हो गईं और ये ढिठाई जहाँ एक अजीब सा सस्पेंस देती है, वहीं क़िस्सागोई के शिल्प को एक नया आयाम भी |

ये छोटी-छोटी कहानियाँ बाज़ दफ़ा किरदारों की डायरियों के या उनके लिखे ख़तों का भान दिलाती हैं और कई-कई बार किसी क़िस्से के गुमशुदा पड़े विस्तृत प्लॉट की उपलब्धि का आभास भी कराती हैं | भगजोगनी याद होगा आप सब को...भगजोगनी...शिवपूजन सहाय की भगजोगनी...उनकी चर्चित कहानी “कहानी का प्लॉट” की भगजोगनी | तो ऐसी कई भगजोगनियाँ’, पूजा उपाध्याय अपनी इस किताब में हमारे लिए छोड़ गई हैं...कोई आए उठा ले इनको और बुन ले एक नई कहानी | इसे लेखिका का शायद ख़ुद का लिमिटेशन कहा जा सकता है, जो कि एक्सप्लोर किया जाना माँगता है...खुद उनके द्वारा ही | पूजा उपाध्याय की कहानी बुनने की कला जैसे कि मानो एक छुपा हुआ ब्लास्ट है, जिसकी तीव्रता अभी पाठकों तक पहुंचनी है | हम जैसे कुछ जो इस ब्लास्ट की रेडियस में आ चुके हैं, उनकी इस क़िस्सागोई के महत्तम तक जाना चाहते हैं अब | क्योंकि लेखिका के अंदर का छुपा हुआ कथाकार किताब की आख़िरी कहानी, जो इस किताब की शीर्षक कहानी है और जो इकलौती लंबी कहानी भी है, में हम पाठकों से मानो पूछता सा प्रतीत होता  है कि सुनो हम लम्बी कहानी भी सुना सकते हैं...वक़्त है तुम्हारे पास ना ?

किताब का आवरण टैगलाइन को सार्थक करता है, साथ ही पेंगुइन की छपाई और बाइंडिंग फील-गुड का अहसास देती है पढ़ते वक़्त | साल भर में अपने पहले संस्करण को सोल्ड आउट कर चुकी ये किताब इतनी घोषणा तो करती ही है कि इसे पाठकों द्वारा पसंद किया जा रहा है किताब ऑन-लाइन खरीदने के लिए इस लिंक पर जाया जा सकता है :-




अव्वलो आख़िरश दरम्याँ दरम्याँ...पूजा उपाध्याय को ढ़ेर दुआयें कुछ अद्भुत किरदारों से हमें मिलवाने के लिए और समस्त शुभकामनायें कि ये किताब और और पाठकों तक पहुँचें !