19 November 2008

फिर रोयी है क्यूं शहनाई, लिख...

अपनी एक पुरानी गज़ल पेश कर रहा हूँ.मीटर पर कहीं-कहीं कसाव ढ़ीला हो गया है.फिलहाल जैसा भी है,आपके समक्ष है:-

आईनों पे जमी है काई, लिख
झूठे सपनों की सच्चाई, लिख

जलसे में तो सब खुश थे वैसे
फिर रोयी है क्यूं शहनाई, लिख

रेतों पर और कभी पानी पर
जो भी लिक्खे है पुरवाई, लिख

तेरी यादों में धुली-धुली-सी
अब के भीगी है तन्हाई, लिख

तारे शबनम के मोती फेंकें
हुई चांद की मुँह-दिखाई, लिख

क्या कहा रात ने जाते-जाते
क्यूं सुबह खड़ी है शर्माई, लिख

रूहों में उतरे बात करे जो
अब ऐसी भी इक रूबाई, लिख
{मासिक पत्रिका कादम्बिनी के अक्टूबर 08 अंक में प्रकाशित}

और अंत में ये एक और शेर...

पोथी पढ़-पढ़ कर पंडित बन ले
फिर तू प्रेम के अक्षर ढ़ाई, लिख


....ये आखिरी शेर की जमीन विख्यात शायर और बालकवि श्री शेरजंग गर्ग जी ने एक पोस्ट-कार्ड पर लिख भेज सुझाया है.
शेष आप सब पाठकों पर है.त्रुटियां----और हो सके तो दाद भी...

13 November 2008

एक और वर्षा वन...

उस दिन
>पारुल जी
की एक खुबसुरत रचना "वर्षा वन" जाने कई यादें ताजा कर गयीं.कुछ तस्वीरों को उकेरने की कोशिश.ये कहीं से भी कविता नहीं.सच पूछिये तो इन छंद-मुक्त रचनाओं को कविता कहने का हक बस इनके सुत्रधार महाकवि निराला या फिर उनके समकक्ष के धुमिल,मुक्तिबोध,शमशेर..इन जैसे नामों को ही जाता है.फिलहाल एक तस्वीर किसी सुदूर वर्षा-वन की...

वर्षा-वन की तस्वीर कुछ यूं दिखाई
तुम ने उस दिन,
मन मेरा गया भटकने
एक और वर्षा-वन...

मौन निःशब्द
वन की निरवता को बरकरार रखने की चेष्टा में
कुछ भारी जुतों की पदचापें
आशंकित हृदय और नसों में
एड्रेनलिन की थापें

स्याह रातों का अंधेरा
जल-मग्न झाड़ियों में बसेरा

महसूस किया है तुमने कभी
चुभना पानी का भी
कभी भीगे हो तुम
बारिश और पसीने में संग-संग
जलाया है कभी तुमने
अपने बदन पे लिपटे
काले घिनौने जोंक को
अपनी सुलगती सिगरेट से...

झिंगुड़ों की झांय-झांय में
मच्छरों का कबिलाई राग
तीन दिनों की सूखी पुरियां
आह! वो अलौकिक स्वाद

चौथे दिन का ढ़लता सूरज
और गंध फ़िजा में बारूद की
चंद जिस्मों की मोक्ष-प्राप्ति
फिर वो उल्लास विजय की

...कुछ ऐसे ही रंग उभरते हैं
मेरे वर्षा-वन की तस्वीरों में...

विदा.जल्द ही मिलते हैं फिर

07 November 2008

वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर...

मन की हालत कुछ अजीब-सी.अचानक से छुट्‍टी लेकर गांव आना पड़ा है.बराय मेहरबानी इस रिलायंस नेट-कनेक्ट के कि बिहार के इस सुदूर कोने में भी आप सब हिंदी प्रेमियों से जुड़ा हूँ.कोसी की विभिषिका अपना निशान चहुँ ओर छोड़े हुये है. माँ-पापा की छठ यहीं मनाने की जिद जब उन्हें यहाँ ले आयी तो पापा का अचानक बीमार पड़ना और इसलिये मेरी ये अचानक की छुट्‍टी.फ़ौज त्योहारों के लिये बेशक छुट्‍टी न दे,किन्तु परिजनों के हित की खातिर एक पल की भी देरी नहीं करती.मेरा ब्लौग चूंकि गज़लों-कविताओं को समर्पित है और ये सब बातें बस अपने विचलित मन की शांति के लिये आप सब के साथ बाँट रहा था.तो एक गज़ल पेश है.गुरू जी खुश नहीं थे मेरी इस गज़ल से:-

बहर है--> हजज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२

अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर
कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर

किताबों में हैं उलझे ऐसे अब कपड़े नये कोई
जरा ना माँगते बच्चे ये त्योहारों व तीजों पर

हैं देते खुश्बू अब भी तेरी हाथों वाली मिहदी की
वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर

न पूछो दास्तां महलों में चिनवायी मुहब्बत की
लुटे हैं कितने तख्तो-ताज यां शाही कनीजों पर

वो नजदीकी थी तेरी या थी मौसम में ही कुछ गर्मी
तु ने जो हाल पूछा तो चढ़ा तप और मरीजों पर

लेगा ये वक्त करवट फिर नया इक दौर आयेगा
हंसेगी ये सदी तब चंद लम्हों की तमीजों पर

भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो
टिकी है मेरी दुनिया मां की सब बाँधी तबीजों पर


(त्रैमासिक पत्रिका " नयी ग़ज़ल" के जुलाई-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित)