दिन उदास है तनिक कि आज नहाना है | नहीं, हफ्ते का
कोई एक दिन तय नहीं होता है...जिस रोज़ धूप मेहरबान होती है उसी रोज़ बस | उसी रोज़ ठंढ
से ऐंठे पड़े इस जिस्म की सफाई के लिए बर्फ़ को उबाल कर भरी गई पानी की एक बाल्टी हाँफती
हुयी पहुँचती हैं बंकर के कोने में बने एक सूराख भर जैसे स्नान-गृह में और फिर देर
तक अपनी चढ़ आई साँसों का गुस्सा साबुन के झागों पर निकालती है | उस सूराख
भर के स्नान-गृह में समस्त कपड़े उतारने और बदन पर पहला मग पानी उड़ेलने तक का वक्फ़ा
इच्छा-शक्ति की तमाम हदबंदियों को परख लेता है | हाँफती हुयी
बाल्टी का आक्रोश पहले तो साबुन को झाग निकालने से वंचित रखता है और एक बार जो गलती
से झाग निकल आते हैं तो कमबख़्त कुछ इस कदर ज़िद्दी हो जाते हैं कि बदन से उतरने का नाम
ही नहीं लेते...जैसे हाँफती हुई बाल्टी के उमड़ते आक्रोश पर अपना भी मुलम्मा चढ़ाने की
कोशिश में हो साबुन के ये झाग |
जैसे-तैसे मना-रिझा कर बदन
से उन झागों के चिपचिपेपन को उतार लेने के बाद ताजा-ताजा महसूस करते हुये ठिठुरते दिन
के पास अब एक बाल्टी पानी का कोटा शेष रहता है बस | उपलब्ध सामग्रियों
के सुनियोजित प्रबंधन की शिक्षा इस तेरह हजार फुट ऊँचे बर्फीले पहाड़ों से बेहतर और
कोई नहीं दे सकता पूरे विश्व भर में...
उधर धुले हुये भारी-भरकम
यूनिफॉर्म में लिपटा तारो-ताजा हुआ बदन बाहर खिली हुई धूप का लुत्फ़ नहीं लेने देने
पर आमादा बर्फ़ उड़ाती हुई तेज हवा को सहस्त्रों शापों से नवाजता है पहले तो और फिर झक
मार कर बंकर में अब तक सुलग कर लाल हो आये किरासन तेल वाली बुखारी से चिपक बैठ जाता
है और सोचता है कि जनाब मोहसिन नक़वी साब के विख्यात शेर "तेज़ हवा ने मुझसे पूछा
/ रेत पे क्या लिखते रहते हो" में
'रेत' की जगह 'बर्फ़' भी आसानी
से निभ सकता है कि ग़ज़ल की बहर के हिसाब से 'रेत' और 'बर्फ़' दोनों का
वज़्न एक ही है | गुनगुना कर देखता भी गुलाम अली वाली धुन पर...हाँ, एकदम दुरुस्त..."बर्फ़
पे क्या लिखते रहते हो" |
फोन की घंटी बजती है तभी...न
! न !! ये इंटरकॉम वाला फोन होता है...ऑफिस वाला, जिसका बजना
खुशी नहीं कोफ़्त को आमंत्रित करता है हर बार | नियंत्रण-रेखा
का निरीक्षण करने के लिए तड़के सुबह गया हुआ गश्ती-दल वापस आ गया है और सब सही-सलामत
की रपट देता हुआ फोन और रपट
मिलते ही चाय की तलब एकदम से सर उठाती है...जैसे नामुराद तलब को भी इसी रपट की प्रतीक्षा हो | दिन की ग्यारहवीं चाय | तेरह हजार फुट की इस ऊँचाई पर बोरोसिल के चमचमाते ग्लास में पी जा रही चाय बरिश्ता या कैफे कॉफी डे के स्वादिष्ट गर्म पेय पदार्थों से किसी भी वक़्त दो-दो हाथ कर सकती है...
मिलते ही चाय की तलब एकदम से सर उठाती है...जैसे नामुराद तलब को भी इसी रपट की प्रतीक्षा हो | दिन की ग्यारहवीं चाय | तेरह हजार फुट की इस ऊँचाई पर बोरोसिल के चमचमाते ग्लास में पी जा रही चाय बरिश्ता या कैफे कॉफी डे के स्वादिष्ट गर्म पेय पदार्थों से किसी भी वक़्त दो-दो हाथ कर सकती है...
चाय की तीसरी या चौथी
घूंट ही होगी कि बर्फ़ीली हवाओं ने अपना रुख बदला दक्षिण दिशा में और उपेक्षित सा पड़ा
मोबाइल यक-ब-यक सबसे महत्वपूर्ण वस्तु बन जाता है...हवा का दक्षिण दिशा को मुड़ना और
मोबाइल में सिग्नल आना | मोबाइल में सिग्नल आना कि व्हाट्स एप का क्रियान्वित हो उठना
| व्हाट्स एप का क्रियान्वित होना कि दोस्तों और परिजनों का
इस तेरह हजार फिट की बर्फ़ीली ऊँचाई पर भी इर्द-गिर्द आ जाना...
...उदास सा दिन मुस्करा उठता है |