(कथादेश के मार्च 2017 अंक में प्रकाशित फ़ौजी की डायरी का पहला पन्ना)
देर रात गए दूर कहीं पटाखों के फूटने की
आवाज़ें आती हैं और किसी अनिष्ट की आशंका से नींद खुलती है चौंक कर | हड़बड़ायी-सी नींद को बड़ा समय लगता है फिर आश्वस्त करने में कि ये कश्मीर
नहीं है...गाँव है अपना, तू छुट्टी पे है, ड्यूटी पर
नहीं...यहाँ तू बेफ़िक्र हो सुकून के आगोश
में ख़्वाबों से गुफ़्तगू करती रह सकती है | उचटी
हुई नींद का अफ़साना, लेकिन, जाने
किस धुन पे बजता रहता है रात भर | सुकून का आगोश फिर कहाँ कर
पाता है ख़्वाबों से गुफ़्तगू | किसी असहनीय निष्क्रियता का
अहसास जैसे उस आगोश में काँटे पिरो जाता हो...उफ़्फ़ ! अधकहे से मिसरे...अधबुने से
जुमले रतजगों की तासीर लिखते रहते हैं करवटों के मुख्तलिफ़ रंग से बिस्तर की
सिलवटों पर | गाँव में की इन बेफ़िक्र रातों
के रतजगे कितने अलग से हैं ना कश्मीर घाटी की उन आशंकित रातों से ! लेकिन क्या
सचमुच ? कहाँ सहज हो पाती हैं रातें यहाँ छुट्टी
में आकर भी ! रसोई में बर्तन गिरने की झंकार तक पर
हृदय की धड़कनें उसी कदर कुलांचें भरने लगती हैं, जैसे वहाँ सरहद पर उन बंकरों में जब-तब भरा करती हैं | छत
पर उत्पात मचाती बंदरों की टोली हर बार, बार-बार उसी तरह से सशंकित कर जाती हैं जैसे उधर कश्मीर में छोटे-से-छोटा शोर
कर जाया करती है |
यहाँ भी तो सारे
के सारे ख़्वाब रात की सतहों पर जैसे डूबने लगते हैं | उथली रातों में डूबते-उतराते ख़्वाबों को कोई तिनका तक नहीं मिलता शब्दों का, पार लगने के लिए | मर्मांतक-सी पीड़ा कोई ! चीख़ने का सऊर आया कहाँ है अभी तक इन ख़्वाबों को ? ...और आ भी जाये तो सुनेगा कौन इन ख़्वाबों की चीख़ ? छटपटाने
की नियति ओढ़े हुये ये ख़्वाब, सारे ख़्वाब...कभी देवदारों
की ऊँची फुनगियों पर चुकमुक बैठ बर्फ़ की उजली चादर पर खिंची सरहद वाली लकीर को
देखना चाहते हैं किसी उदास शायर की आँखों से...तो कभी झेलम की नीरवता में छिपी
आहों को यमुना तक पहुँचाना चाहते हैं...और कभी सदियों से ठिठके उन बूढ़े पहाड़ों
को डल झील की तलहट्टियों में धकेल कर नहलाना
चाहते हैं | कितनी अटपटी-सी ख़्वाहिशें इन
डूबते-उतराते ख़्वाबों की...!!!
उथली रातों के छिछले किनारों पर अटपटी-सी
ख़्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिश्त जाने कब से धँसी पड़ी है इन ख़्वाबों के रेत में | कश्यप था ना कोई ऋषि वो...हाँ,
कश्यप ही तो था | सुनते हैं, देवताओं के संग आया था उड़नखटोले पर और सोने की
बड़ी मूठ वाली एक जादुई छड़ी
घूमा कर जल-मग्न धरती के इस हिस्से को किया था तब्दील पृथ्वी के स्वर्ग में और नाम
दिया था कश्मीर...”गर फ़िरदौस बर रूए
ज़मीं अस्त,
हमीं अस्त,
हमीं अस्त,
हमीं अस्त” | अटपटी ख़्वाहिशों की ये फ़ेहरिश्त तभी से बननी शुरू हुई थी शायद | लेकिन ये बात शायद इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को नहीं मालूम | उथली रातों ने वैसे तो कई बार बताना चाहा...लेकिन पार लगने की उत्कंठा या डूब
जाने की आशंका इन ख़्वाबों को बस अपनी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त बनाने में मशगूल रखती
है | हार कर ये उथली रातें बिनने लगती हैं इन ख़्वाबों की अटपटी
ख़्वाहिशों को |
ख़्वाहिशें...पहाड़ी नालों में बेतरतीब तैरती बत्तखों की
टोली में शामिल होकर उन्हें तरतीब देने की ख़्वाहिश | ख़्वाहिशें...चिनारों के पत्तों को सर्दी के मौसम में टहनियों पर वापस चिपका
देने की ख़्वाहिश | ख़्वाहिशें...सिकुड़ते
हुये वूलर झील को खींच कर विस्तार देने की ख़्वाहिश | ख़्वाहिशें...इस पार उस पार में बाँटती सरफ़िरी सरहदी लकीर को अनदेखा करने की
ख़्वाहिश | ख़्वाहिशें...सारे ‘हनुमंथप्पाओं’ को फिर
से हँसते-गुनगुनाते देखने की ख़्वाहिश...
...वो एक कोई हनुमंथप्पा ही तो था जो
अठारह साल पहले कश्मीर की पहली पोस्टिंग पर हौले से फुसफुसा गया था कानों में
“जस्ट बिवेयर सर ! कश्मीर ग्रोज इन टू योअर नर्वस !!” लेकिन बिवेयर होने का मौका
देती कहाँ है कश्मीर घाटी ? हाँ...छ
दिन तक उस बर्फ़ीले कब्र में दबे रह कर भी हनुमंथप्पा वापस तो आ जाते हैं, लेकिन डॉक्टर
बचा कहाँ पाते उसे ! वो जगह, जहाँ ये सब के सब ‘हनुंन्थप्पा’ मुस्तैद रहते हैं, वहाँ
नब्ज़ दूनी रफ्तार से दौड़ती है...डर से कि गति धीमी हुई तो जम ही न जाय | वहाँ हृदय की धड़कनें धक-धक कर चलती नहीं, बाकायदा
कार्ट-व्हील और समर-साल्ट करती हैं...खौफ़ से कि आहिस्ता हुई तो थम ही जायेंगी | वहाँ...हाँ,
वहीं पर ‘हनुमंथप्पाओं’ को फ्री राशन और फ्री एक्सट्रीम विंटर क्लोदिंग के साथ और भी ढ़ेर सारी चीजें
फ्री में उपलब्ध हैं...अंतहीन गहराइयों वाले क्रिवास, हर
पल निगलने को आतुर एवलांच, तयशुदा टेन्योर के बाद पके
हुये बाल,
कम होती श्रवण शक्ति, पस्त
पाचन-तंत्र,
हड्डी के जोड़ों में आकर बस जाने वाली जीवनपर्यंत टीस... | उस बादलों से भी ऊपर वाली बर्फ़ीली चोटी पर ड्यूटी देने जाने से पहले, तीन स्टेज वाला एक्लेम्टाइजेशन करते वक़्त इन ‘हनुमंथप्पाओं’ को वहाँ जाने पर फ्री में हासिल होने वाली इन तमाम सुविधाओं की विस्तृत
जानकारी दी जाती है | वे फिर भी जाते हैं और अपनी ड्यूटी अपनी
क्षमता के आख़िरी औंस तक निभाते हैं...न ! न !! किसी देश, मुल्क, राष्ट्र के नाम पर नहीं...बल्कि अपने सेक्शन, अपनी
प्लाटून,
अपनी कंपनी और अपने रेजीमेंट के उस बैज के लिए जो उनकी
टोपियों और उनके काँधों पर जगमगाता है |
एक्लेम्टाइजेशन के तीसरे स्टेज में इन ‘हनुमंथप्पाओं’ को सिखाया जाता है कि एवलांच आने पर किस
तरह उन्हें अपनी आँखें, नाकों और मुख को दोनों हाथों
और घुटने के बीच छुपा कर बर्फ़ के सैलाब में दबे रहना है...और भरोसा रखना है कि
उनके अन्य साथी आयेंगे उन्हें बचाने के लिए | बड़ी
पतली सी डोर होती है उस भरोसे को और इच्छा-शक्ति को टूटने से बचाने वाली...और ‘हनुमंथप्पा’
निकल आते हैं तीस फुट बर्फ़ के नीचे छ दिन तक दबे होकर भी | नहीं,
ये चमत्कार नहीं | ये बस वो भरोसा है
अपने रेजीमेंट के नाम-नमक-निशान पर...अपने साथियों पर...अपने कमान्डिंग ऑफिसर पर, वो कमान्डिंग ऑफिसर जो पूरी पलटन द्वारा नौ साथियों की मौत को स्वीकार कर लेने
के बावजूद एवलांच वाली जगह पर ख़ुद जाकर बैठ जाता है छोटे से तम्बू में...कि उसे
तीस फुट नीचे से भी इन ‘हनुमंथप्पाओं’ की कार्ट-व्हील करती धड़कनों की थपक सुनाई देती है उसे |
इन ‘हनुमंथप्पाओं’ का वहाँ होना शौर्य और वीरता और जिजीविषा को अक्षरश: उच्चरित करना है...और
इनकी कुर्बानियाँ बस एक विनम्र सा गुहार हैं कि हम सब इस मुल्क को एक मजबूत मुल्क
बनाए रखने के लिए अपनी-अपनी काबिलियत के हिसाब से एक जिम्मेदार नागरिक बनें |
इधर माँ है कि गाँव में कहती रहती है सबसे
अक्सर...गोली खाकर भी सही-सलामत आ गया बेटा कश्मीर से...दूसरा जनम हुआ है | सत्यनारायण का पाठ करवाती है, बगैर जाने-समझे कि पाठ में
बैठा हुआ बेटा तो भगवान जी को कोस रहा है, ताने दे रहा कि इतने बड़े बचाने वाले हो
तो क्यों नहीं बचाते उन सारे ‘हनुमंथप्पाओं’ को | माँ पंडित जी से फुसफुसा कर कहती है...”दूसरा जनम हुआ
है इसका...अबके नहीं जाने दूंगी इसको वापस कश्मीर” | मेरे कानों तक पहुँचती ये
फुसफुसाहट गोली के उस ज़ख्म में जाने कैसी तो सिहरन पैदा कर देती है | कौन था वो शायर जो कह गया :-
“अधूरे
सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा
मगर
मुद्दत से इक ‘गौतम’ मेरे साये में बैठा है”
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