21 December 2015

तीन ख़्वाब, दो फोन-कॉल और एक रुकी हुई घड़ी...

( कथादेश के दिसम्बर 2015 अंक में प्रकाशित मेरी कहानी )

सर्दी की ठिठुरती हुई ये रात बेचैन थी | गुमशुदा धूप के लिए व्याकुल धुंध में लिपटे दिन की अकुलाहट को सहेजते-सहेजते रात की ठिठुरन अपने चरम पर थी | ...और रात की इसी बेचैनी में एक बेलिबास-सा ख़्वाब सिहरता रहा था नींद में, नींद भर । जलसा-सा कुछ था उस ख़्वाब के पर्दे पर | बड़ा-सा घर एक पॉश-कॉलोनी के लंबे-लंबे टावरों में किसी एक टावर के सातवें माले पर, एक खूबसूरत-सी लिफ्ट और घर की एक खूबसूरत बालकोनी | कॉलोनी के मध्य प्रांगण की ओर झाँकती वो बालकोनी खास थी सबसे | ख़्वाब का सबसे खास हिस्सा उस बालकोनी से नीचे देखना था | ख़्वाबों का हिसाब रखना यूँ तो आदत में शुमार नहीं, फिर भी ये याद रखना कोई बड़ी बात नहीं थी कि जिंदगी का ये बस दूसरा ही ख़्वाब तो था | इतनी फैली-सी, लंबी-सी जिंदगी और ख़्वाब बस दो...? अपने इस ख़्वाब में उस सातवें माले वाले घर की उस खूबसूरत बालकोनी और कॉलोनी के मध्य- प्रांगण में हो रहे जलसे के अलावा सकुचाया-सा चाँद खुद भी था और थी एक चमकती-सी धूप | चाँद लिफ्ट से होकर तनिक सहमते हुये आया था सातवें माले पर...धूप के दरवाजे को तलाशते हुये | धूप खुद को रोकते-रोकते भी खिलखिला कर हँस उठी थी दरवाजा खोलते ही, देखा जब उसने सहमे हुये चाँद का सकुचाना | जलसा ठिठक गया था पल भर को धूप की खिलखिलाहट पर और चाँद...? चाँद तो खुद ही जलसा बन गया था उस खिलखिलाती धूप को देखकर | धूप ने आगे बढ़ कर चाँद के दोनों गालों को पकड़ हिला दिया | बहती हवा नज़्म बन कर फैल गयी जलसे में और नींद भर चला ख़्वाब हड़बड़ाकर जग उठा | बगल में पड़ा हुआ मोबाइल एक अनजाने से नंबर को फ्लैश करता हुआ बजे जा रहा था | मिचमिचायी-निंदियायी आँखों के सामने न कोई दरवाजा था, न ही वो चमकीली धूप | दोनों गालों पर जरूर एक जलन सी थी, जहाँ ख़्वाब में धूप ने पकड़ा था अपने हाथों से...और हाँ नज़्म बनी हुई हवा भी तैर रही थी कमरे में मोबाइल के रिंग-टोन के साथ | टेबल पर लुढ़की
हुई कलाई-घड़ी पर नजर पड़ी तो वो तीन बजा रही थी | कौन कर सकता है सुबह के तीन बजे यूँ फोन... और अचानक से याद आया कि घड़ी तो जाने कब से रुकी पड़ी हुई है यूँ ही तीन बजाते हुये | बीती सदी में कभी देखे गए उस पहले ख़्वाब में आई हुई गर्मी की एक दोपहर से बंद पड़ी थी घड़ी यूँ ही...अब तक |

      मोबाइल बदस्तूर बजे जा रहा था और नज़्म बनी हुई धूप की खिलखिलाहट कमरे के दीवारों पर पर अभी भी टंगी थी...अभी भी बिस्तर पर उसके संग ही रज़ाई में लिपटी पड़ी थी | वो अनजाना सा नंबर स्क्रीन पर अपनी पूरी ज़िद के साथ चमक रहा था | एक बड़ी ही दिलकश और अनजानी सी आवाज थी मोबाइल के उस तरफ...अनजानी सी, मगर पहचान की एक थोड़ी-सी कशिश लपेटे हुये |  नींद से भरी और ख़्वाब में नहायी अपनी आवाज को भरसक सामान्य बनाता हुआ उठाया उसने मोबाइल...

"हैलो...!"
"हैलो, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया ?"
"नहीं, आप कौन बोल रही रही हैं ?"
"यूँ ही हूँ कोई | नाम क्या कीजियेगा जानकर |"
"........."
"अभी अभी आपकी कहानी...वो...वो 'धूप, चाँद और दो ख़्वाब' वाली...पढ़ कर उठी हूँ | आपने ही लिखी है ना ?"
"जी, मैंने ही लिखी है...लेकिन वो तो बहुत पुरानी कहानी है | साल हो गए उसे छपे तो |"
"जी, डेढ़ साल | आपका मोबाइल नंबर लिखा हुआ था परिचय के साथ, तो सोचा कि कॉल करूँ | अन्याय किया है आपने अपने पाठकों के साथ |"
"???????"
"कहानी अधुरी छोड़कर..."
"लेकिन कहानी तो मुकम्मल है |"
"मुझे सच-सच बता दीजिये प्लीज ?"
"क्या बताऊँ...????"
"यही कि चाँद सचमुच गया था क्या धूप की बालकोनी में या बस वो एक ख़्वाब ही था ?"
"मै', वो कहानी पूरी तरह काल्पनिक है |"
"बताइये ना प्लीज, वो ख़्वाब था बस या कुछ और ?"
"हा! हा!! मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मानता हूँ कि आपको ये सच जैसा कुछ लगा |"
"सब बड़बोलापन है ये आप लेखकों का |"
"ओह, कम ऑन मै'म ! वो सब एक कहानी है बस |"
"ओके बाय...!"
"अरे, अपना नाम तो बता दीजिये !!!"

      ...कॉल कट चुका था | मोबाइल सुबह का आठ बजा दिखा रहा था | खिड़की के बाहर दिन को धुंध ने अभी भी लपेट रखा था अपने आगोश में | नींद की खुमारी अब भी आँखों में विराजमान थी | कमरे में तैरती और रज़ाई में लिपटी हुई धूप की खिलखिलाहट लिए नज़्म अब भी अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी और वो विकल हो रहा था ख़्वाब के उस सातवें माले पर वापस जाने के लिये अपने जलते गालों को सहलाता हुआ | टेबल पर लुढकी हुई कलाई-घड़ी की सुईयाँ दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाती हुईं पहले ख़्वाब की कहानी सुना रही थीं...जाने कब से | वो पहला ख़्वाब था | ज़िंदगी का...अब तक की ज़िंदगी का पहला ही तो ख़्वाब था वो | तब से रुकी पड़ी घड़ी, जहाँ एक ख़्वाब के ज़िंदा रहने की तासीर थी, वहीं ऊपर वाले परमपिता परमेश्वर का उसके साथ किए गए एक मज़ाक का सबूत भी | पहला ख़्वाब...गर्मी की चिलचिलाती दोपहर थी वो...सदियों पहले की गर्मी की दोपहर, जब चाँद पहली बार उतरा था धूप की बालकोनी में | पहली बार आ रहा था वो धूप से मिलने | सूरज कहीं बाहर गया था धूप को अकेली छोड़ कर अपनी ड्यूटी बजाने और चाँदनी भी मशरूफ़ थी कहीं दूर, बहुत दूर | धूप के डरे-डरे से आमंत्रण पे चाँद का झिझकता-सहमता आगमन था | उस डरे-डरे आमंत्रण पर वो झिझकता-सहमता आगमन बाइबल में वर्णित किसी वर्जित फल के विस्तार जैसा ही था कुछ | ...और उसी लिफ्ट से होते हुये सातवें माले पर उतरने से चंद लम्हे पहले होंठों में दबी सिगरेट का आखिरी कश लेकर परमपिता परमेश्वर से गुज़ारिश की थी चाँद ने दोनों हाथ जोड़कर वक्त को आज थोड़ी देर रोक लेने के लिये | दोपहर बीत जाने के बाद...धुंधलायी शाम के आने का बकायदा एलान हो चुकने के बाद, जब धूप और चाँद दोनों साथ खड़े उस खूबसूरत बालकोनी में आसमान के बनाए रस्मों पर बहस कर रहे थे, उसी बहस के बीच धूप ने इशारा किया था कि चाँद की घड़ी अब भी दोपहर के तीन ही बजा रही है | परमेश्वर के उस मजाक पर चाँद सदियों बाद तक मुस्कुराता रहा | उस ख़्वाब को याद करते हुये फिर से नज़र पड़ी टेबल पर लुढ़की कलाई-घड़ी की तरफ | एकदम दुरूस्त नब्बे डिग्री का कोण बनाते हुये कलाई-घड़ी बदस्तुर तीन बजाये जा रही थी | एक सदी ही तो गुज़र गई है जैसे | अब तो किसी घड़ीसाज से दिखलवा लेना चाहिए ही इस रुकी घड़ी को | ईश्वर का वो मज़ाक ही तो था कि उसके वक्त को रोक लेने की गुज़ारिश उसकी घड़ी को थाम कर पूरी की गई थी | ...और यदि उसने कुछ और माँग लिया होता उस दिन ईश्वर से ? यदि उसने धूप को ही माँग लिया होता ? क्या होता फिर ईश्वर के तमाम आसमानी रस्मों का ? सवाल अधूरे ही रह गये कि मोबाइल फिर से बज उठा था | वही नंबर फिर से फ्लैश कर रहा था...फिर से उसी अजीब-सी ज़िद के साथ...

"हैलोssss...!!!"
"वो बस एक ख़्वाब था क्या सच में ?"
"मै', वो बस एक कहानी है...यकीन मानें !"
"आप सिगरेट पीते हैं ?"
"हाँ, पीता हूँ |"
"जानती थी मैं | अच्छी तरह से जानती थी कि आप सिगरेट पीते होंगे |"
"कैसे जानती हैं आप ?"
"आपकी कहानी का हीरो...वो चाँद जो पीता रहता है घड़ी-घड़ी |"
"आप अपने बारे में तो कुछ बताइये |"
"पहले ये बताइये कि धूप और चाँद की फिर मुलाक़ात हुई कि नहीं ?"
"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा मै'म कि आप क्या पूछ रही हैं ?"
"हद है, कैसे लेखक हैं आप ? अपनी कहानी तक याद नहीं आपको ?"
"अच्छा, आपको कहानी कैसी लगी ?"
"एकदम सच्ची...हा ! हा !! हा !!!" मोबाइल के उस पार की वो हँसी...उफ़्फ़, कितनी पहचानी-सी | ख़्वाब-सी, मगर कितनी जानी-सी | कमरे के दीवार पर टंगी वो नज़्म फिर से जीवंत हो कर जैसे हिली थी पल भर को |
"अब क्या बोलूँ मैं इस बात पर ?"
"आप अपनी इस कहानी का सिक्वेल भी लिखेंगे ना ?"
"नहीं मै', कहानी तो मुकम्मल थी वो |"
"ऐसे कैसे मुकम्मल थी ? आजकल तो सिक्वेल का जमाना है...लिखिये ना प्लीज़ !"
"आप अपना नाम तो बता दीजिये कम-से-कम |"
"पहले आप, सिक्वेल लिखने का वादा कीजिये!"
"हद है ये तो...क्या लिखूंगा मैं सिक्वेल में ?"
"कमाल है, लेखक आप हैं कि मैं ? कहानी को आगे बढ़ाइये | चाँद और धूप ने आसमान के बनाए कायदे की ख़ातिर आपस में नहीं मिलने का जो निर्णय लेते हैं आपकी कहानी में...उसके बाद की बात पर कुछ लिखें आप |"
"वो कहानी वहीं खत्म हो जाती है, मै'...ठीक उस निर्णय के बा द| उसके बाद कुछ बचता ही नहीं है |"
"अरे बाबा, कैसे कुछ नहीं बचता | दोनों मिल नहीं सकते, लेकिन चिट्ठी-पत्री तो हो सकती है, कॉल किया जा सकता है...तीसरा ख़्वाब देखा जा सकता है |"
"तीसरा ख़्वाब ?आप कौन बोल रही हैं ??"
"जितने बड़े लेखक हैं आप, उतने ही बड़े डम्बो भी !"
"आप...आप कौन हो ? प्लीज बता दो !"
"सिगरेट कम पीया कीजिये आप !"
"आप...आप...!!!"
"एकदम डम्बो हो आप | वो कलाई घड़ी आपकी अभी तक तीन ही बजा रही है या फिर ठीक करा लिया ?"
"धूप ?...तुम धूप हो ना ?"
"हा ! हा !! 'बाय...!!!"
"हैलो...हैलो...हैलो..."

      ...कॉल फिर कट चुका था | नींद अब पूरी तरह उड़ चुकी थी | बाहर दिन के खुलने का आज भी कोई आसार नज़र नहीं आ रहा था और नज़्म बनी हुई हवा अब भी टंगी हुई थी कमरे में, अब भी लिपटी हुई थी रज़ाई में | कानों में गूँजती हुई मोबाइल के उस पार की वो खनकती-सी खिलखिलाहट कमरे में टंगी हुई नज़्म के साथ जैसे अपनी धुन मिला रही थी और गालों पर की जलन जैसे थोड़ी बढ़ गई थी | सिगरेट की एकदम से उभर आई जबरदस्त तलब को दबाते हुये चाँद ने अपने गालों को सहलाया और मोबाइल के रिसिव-कॉल की फ़ेहरिश्त में सबसे ऊपर वाले उस अनजाने से नंबर को कांपती ऊंगालियों से डायल किया | मोबाइल के उस पार से आती "दिस नंबर डज नॉट एग्जिस्ट... आपने जो नंबर डाल किया है वो उपलब्ध नहीं है, कृपया नंबर जाँच कर दुबारा डायल करें" की लगातार बजती हुई मशीनी उद्घोषणा किसी तीसरे ख़्वाब के तामीर होने का ऐलान कर रही थी |


01 November 2015

टिम टिम रास्तों के अक्स


हर तर्क अंतत: एब्सर्ड ही होता है”... जैसा कि संजय व्यास अपनी किताब में “टिम टिम रास्तों के अक्स” में कहीं किसी पन्ने पर इस बात का ऐलान करते हैं और ये ऐलान कुछ इतनी मासूमियत से किया जाता है लेखक द्वारा कि आपको यक़ीन करना ही पड़ता | सच तो...आख़िर में हर दिया हुआ या दिया जा रहा तर्क कहीं ना कहीं किसी ना किसी दृष्टिकोण से अपने एब्सर्ड होने की ख़ुद ही तासीर देता है |  यही इस किताब की खूबसूरती है कि अपने कथेतर गद्य होने के विशेषण पर भी अपने ऐसे अनगिनत जुमलों में यह किताब हजारों कहानियों का विस्तार समोए हुये है |

“टिम टिम रास्तों के अक्स” को पढ़ना जैसे शब्दों के उजास में नहाना है...जैसे सुबह की स्नान के बाद पालथी मार के बैठ कर स्वच्छ हवा में प्राणायाम करना है | पहली झलक में, किताब में शामिल तमाम तैतीस गद्य के टुकड़े कुछ क़िस्सागोई से करते प्रतीत होते हैं, लेकिन गद्य के इन टुकड़ों से गुज़रते हुये आप महसूस कर रहे होते हैं कि इनमें महज क़िस्सागोई ही नहीं है...एक कविता का वितान भी है, तो कहीं पर किसी गीत का अतीत भी...किसी छूटे हुये उपन्यास की आस है कहीं, तो कहीं किसी डायरी के पन्नों पर गिरी हुई स्याही से अंजाने में उभरी हुई तस्वीर...कहीं पर किसी चितेरे द्वारा छोड़ दिया कोरा कैनवास है तो कहीं उसके ब्रश से छिड़के हुये रंगों का कोलाज और कहीं कहीं पर एकदम स्पष्ट नाक-नक्शे के साथ उकेरा हुआ कोई चेहरा | संजय ख़ुद ही बड़ी साफ़गोई से स्वीकार करते हैं अपने लेखकीय संवाद में भूमिका के तौर पर कि “संग्रह की रचनाएँ एक नज़र में क़िस्से-कहानियाँ लगती हैं | सब नहीं तो इनमें से कुछ तो तयशुदा तौर पर | पर दूसरी नज़र से देखने और ख़ासतौर पर इन्हें पढे जाने पर ऐसा नहीं महसूस होता |” अपनी भूमिका में संजय तनिक बोल्ड होते हुये इन गद्यान्शों को क़िस्से कहने की डींग तक का विशेषण दे जाते हैं और लेखक की इस साफ़गोई पर हौले से मुस्कुराये बिना रह नहीं पाते आप | लेकिन सच तो ये है कि भूमिका में बेशक लेखक ने शुरू के दो पन्ने को औपचारिक रूप से “लेखक की ओर से” जैसा कुछ कह कर पाठक से परोक्ष संवाद स्थापित किया है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि पूरी की पूरी किताब एक तरह से आपसे संवाद करती है |

“टिम टिम रास्तों के अक्स” आपको अपने नाम के भूगोल से वाबस्ता करवाती है, कुछ ऐसी सुबहों से आपको मिलवाती है जो बस सुबहें होती हैं और कुछ नहीं, कुछ ऐसी ट्रिक्स से परिचय करवाती है आपका जिनकी वजह से आश्चर्यों को साधने का विश्वास पाया जा सकता है, मायालोक और यथार्थ के बीच की एक ऐसी यात्रा पर ले चलती है जहाँ अतीत आपके व्यक्तित्व का अंग होता है और वर्तमान आपकी नियती, एक ऐसे लालटेन की रौशनी दिखलाती है जिसके लौ की भभक अपनी ही पैदा की गई चमक को उचक-उचक कर निगलती है | किताब के किसी पन्ने पर अखाड़े में जीत के दर्प से चमकता हुआ योद्धा घर के मोर्चे पर लड़ाई हारता नज़र आता है तो किसी पन्ने पर भौतिकीय नियमों के परखच्चे उड़ाती हुई नर्तकी अपने नाच के वृत में गृहस्थी का आयत जोड़ती दिखती है, रेगिस्तान के विस्तार के साथ-साथ चलती हुई सरकारी बसों की लय सुनाई देती हैं किसी पन्ने पर तो किसी पन्ने पर ठेले पर रखी हुई कमीज़ों की आर्तनाद चीख़ें |  

एक सौ साठ पन्नों वाली हिन्द युग्म से प्रकाशित संजय व्यास की ये किताब पढे जाने की ज़िद करती है और आपकी किताबों की आलमारी में रखे जाने की मांग भी | किताब के कवर पर पुराने जमाने का अब लुप्तप्राय हो चुका बिजली का स्विच एक अपरिभाषित सा मूड तैयार करता है पढे जाने के लिए | हिन्द युग्म की किताबों की बाइन्डिंग और छपाई हमेशा दिलकश होती है और किताब पढ़ने का मज़ा दुगुना कर देती है | किताब ख़रीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक किया जा सकता है :- 


...और अंत में समस्त शुभकानाओं के साथ कि संजय व्यास इसी तरह हमें अपनी लेखनी से चमत्कृत करते रहें !!!

01 August 2015

ब्लौगिंग के सात साल और 'पाल ले इक रोग नादाँ'...

...टाइम फ़्लाइज़ ! 
पहली पहली बार किसने कहा होगा ये जुमला ? 
महज दो शब्दों में सृष्टि का सबसे बड़ा सच समेत कर रख दिया है कमबख़्त ने !

तो वक़्त की इसी उड़ान के साथ ब्लौगिंग के सात साल हो गए हैं | फेसबुक के आधिपत्य के बाद से निश्चित रूप से ब्लौगिंग की अठखेलियों पर थोड़ा अंकुश लगा है, लेकिन ब्लौगिंग हम में से कितनों का ही पहला इश्क़ है और रहेगा | 

लिखते-पढ़ते इन सात सालों में हम भी ख़ुद को लेखकनुमा वस्तु मनवाने के लिए एक किताब प्रकाशित करवा लिए हैं ....हमारी ग़ज़लों का पहला संकलन | 'पाल ले इक रोग नादाँ...' की इस सातवीं वर्षगाँठ पर थोड़ा सकुचाते हुये अपने ब्लौग पर हम इस 'पाल ले इक रोग नादाँ' के मूर्त रूप का अनावरण करते हैं :- 




नब्बे ग़ज़लों के साथ कुछ खूबसूरत रेखाचित्रों का समावेश है किताब में और साथ में मोहतरम शायर डॉ॰ राहत इंदौरी साब और श्री मुनव्वर राणा साब की स्नेह बरसाती भूमिकाएँ हैं | पहले एडिशन की बस चंद बची-खुची प्रतियाँ फ्लिप-कार्ट और अमेज़न पर उपलब्ध है, जिनका लिंक ये रहा :- 

1.फ्लिप कार्ट

2. अमेज़न


ब्लौगिंग का ये इश्क़ बरक़रार रहे यूँ ही !!!

10 July 2015

उलटबाँसी

एक विलोम सा कैसा चिपका हुआ संग मेरे...उलटबाँसी जैसा क्या तो कुछ | क्या कहता था वो बूढ़ा फ़कीर उस सूखे पेड़ के नीचे बैठा...हर्फ़-हर्फ़ अफ़साना देखा, जुमलों में कहानी / कविता में क़िस्सागोई और क़िस्से में कविताई... 




तुमने जब से ज़िंदगी लिखा
तलब सी लगी है ख़ुदकुशी की मुझे

अभी उस दिन जब सहरा कहा था ना तुमने
मेरे शहर में झूम कर बारिश हुई थी
भीगी तपिश देखी है तुमने ? 
या भीगा पसीना ही ? 
उस रोज़ बारिश पसीने में नहाई हुयी थी
...उसी रोज़, जब तुमने सहरा पर बांधा था जुमला 

रतजगे वाली नज़्म पढ़कर तो घराई नींद आई थी
शायद नज़्म पढ़ते-पढ़ते ही सो चुका था मैं
बाद अरसे के मालूम चला कि वो पन्ना देर तक सुबुकता रहा था 
और एक किसी ख़्वाब के ठहाके छूट रहे थे 

ये किस चौंध, 
ये किस चमक का ज़िक्र छेड़ा था तुमने 
कि पूरा का पूरा वजूद एक अपरिभाषित से अँधेरे में डूबा जाता है 
अब कोई गीत उठाओ अमावस का
मैं चाँद होना चाहता हूँ

सुनो, एक अफ़साना तो बुनो कभी
धुयें की तासीर पर 
मुँहलगी ये मुई सिगरेट छूटती ही नहीं 

हाँ प्रेम तो लिखना ही कभी मत तुम !

01 July 2015

एक अक्षराशिक़ का विरहकाव्य

सुनो, चाँदनी के द लिपटे दुख पर अब भी भारी है धूप के प में सिमटा हुआ प्रेम...स्मृतियों में चुंबन के ब से होती बारिश, तुम्हें भी तो भिगोती होगी ना ?




खुलता है यादों का दरीचा
चाँदनी के द से अब भी
बचा हुआ है धूप के प में  प्रेम अभी भी थोड़ा सा
यादों में चुंबन के ब से होती है बारिश रिमझिम
और रगों में ख़ून उबलता तेरे ख़्वाबों के ख़ से

बाद तुम्हारे ओ जानाँ...
हाँ, बाद तुम्हारे भी जब तब

तेरी तस्वीरों के त से र तक एक तराना है
तनहाई का ताल नया है
विरह का राग पुराना है
एक पुरानी चिट्ठी का च बैठा है थामे चाहत
स्मृतियों की संदूकी में
तन्हा-तन्हा अरसे से
एक गीत के गुनगुन ग से हूक ज़रा जब उठती है
कहती है ओ जानाँ तेरा ज बड़ा ही जुल्मी है
एक कशिश के क से निकलती कैसी तो कैसी ये कसक
बुनती है फिर मेरी-तुम्हारी एक कहानी रातों को

बिना तुम्हारे भी जानाँ...
हाँ, बिना तुम्हारे भी अक्सर

यूँ तो मोबाइल का ल अब लिखता नहीं कोई संदेशा
उसके इ में है लेकिन इंतज़ार सा कोई हर पल
मौसम के म पर छाई है हल्की सी कुछ मायूसी
और हवा का ह भी हैरत से अब तकता है हमको

इतना भी मुश्किल नहीं है बिना तुम्हारे जीना यूँ
हाँ, जीने का न बैठ गया है चुपके से बेचैनी में
और धुएँ के बदले उठती सिसकी सिगरेट के स से

ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !

25 June 2015

तलब...हाँ, वही तलब !

चाय का ग्लास ख़त्म होते होते बारिश की जवानी अपने पूरे शबाब पर आ गई है | एक और चाय की तलब पूरा करने के लिए दूसरी ग्लास लेकर आया हुआ वो खिड़की के शीशे बंद करने की बात कहता है...मैं मुस्कुरा कर देखता हूँ उसे और वो झेंप जाता है | 

"वो फ़र्श गीला हो रहा है, साब !" झेंप के आगे का उद्गार यूँ आकर अपनी पैरवी रखता है |

इस जानिब की मुस्कुराहट बहुत कुछ कहना चाहती है सामने वाली झेंप से...जैसे कि, सुबह से शाम तक धूप को तरसती ये फ़र्श कम अज कम बारिश की बूँदों पर ही नाज़ कर ले थोड़ा... या फिर, एसी की बनावटी अदा से इतर कुछ तो प्रकृति के क़रीब हो जाये ऑफिस का ये बेचारा फ़र्श | लेकिन ऐसा कुछ ना कह कर, मुस्कुराहट बस "कोई बात नहीं" का जुमला उछालती है और झेंप एकदम से सावधान में आकर एड़ियाँ बजाते हुये सलाम ठोक बाहर निकल जाती है |

चाय की दूसरी ग्लास को होठों तक लाते हुये मुस्कान का विस्तार आकाश सा फैल जाता है | बाहर की बारिश और ऑफिस के अंदर आते थपेड़े स्मृतियों के उन बर्फ़ीले पहाड़ों पर ले जाते हैं, जहाँ मुस्कान को विस्तार तो इतनी नहीं मिलती थी...लेकिन इस ऑफिस नाम की नामुराद चीज से वास्ता भी नहीं रहता था...जहाँ आसमान को छूने के लिए एक-47 के बैरल को उठाना ही काफी होता था...जहाँ चाँद का दुश्मन के ख़ेमे पर जा टिकने के बावजूद उस पर प्यार उमड़ता था...जहाँ चाय की गरमाहट को बरक़रार रखना मानो दुश्मन की पूरी बटालियन से अकेले भिड़ जाना...जहाँ बारिश मुस्कान से ज्यादा आशंकाओं की वजह बनती थी और उसका स्वागत नहीं होता था...लेकिन मन है कि फिर भी इस ऑफिस से निकल कर वापस वहीं जाना चाहता है |

......और ये चाय की तलब पूरी होते ही, सिगरेट की तलब क्यों सर उठाए आ खड़ी होती है ?

अभी-अभी ख़बर मिली है उन्हीं पहाड़ों से... 

"कितने आदमी थे ?"

 ... सरदार खुश है | बहुत खुश है | 

 


05 May 2015

सुनो राजस्थान !

...कि थोड़ी देर और जो चलती रही ये जीप तो इसके रबर के टायर शर्तिया पिघल जाएँगे इन रेतों में ! कितने निष्ठुर हो तुम, लेकिन फिर भी कितने अपने से | ...कि इन खिसकते हुये सैंड-ड्यून्स की सिंफनी दूर उस झेलम की तलहट्टियों में बजते संतूर से कहीं ज़्यादा मधुर धुन सुनाती हैं... 

सुनो राजस्थान !
जब भी चाहा मैंने तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ

तुम्हारे रेत के तपते टीलों पर पिघल कर
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुयीं
मेरे नक्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें

हरदम ही तो गुम हुआ है
मेरे कम्पास का उत्तर रुख

सुस्ताने को दिया नहीं कभी
तुम्हारे नागफनी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे

मेरों जूतों के तसमों को वैसे भी
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से

सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व

यक़ीन मानो, हारोगे !
रहने दो इस 
द्वंद्व के एलान को

मानता हूँ कि
बर्फ़ के बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुलमिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी

सुनो, तुम तो मेरे ही हो
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
की थी अपनी पहली शिनाख़्त

बनाना है उसे भी अपना
तुम्हारी तरह ही

उसे गुमान है अपने हुस्न पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुब्ह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर

है थोड़ा सा खफ़ा बेशक़

जीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम
ऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
जीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार 

आऊँगा इक रोज़ वापस
ख़ुद को भुलाने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिये बस
तुम्हारा सकून भरा
गर्म आगोश

लगाओगे ना गले
आऊँगा जब भी वापस ?


19 April 2015

एक बेनाम कविता

अभिनव की आँखों में एक अपरिभाषित सी मासूमियत डोलती है...अभिनव... अभिनव गोयल | मिला था इस बार के दिल्ली पुस्तक-मेले में और बेतरतीब सी फैली वयस्कता की ड्योढ़ी पर जाने से हिचकिचाती हुई अपनी दाढ़ी के ऊपर मासूम सी आँखों से घूरते हुये जब इस लड़के ने अपनी कवितायें सुनाई, तो मेरे आस-पास प्रगति-मैदान का प्रांगण सिहर उठा था एक बारगी | ये लड़का ध्यान माँगता है...कि उसके "वर्स" का वर्जिन शिल्प आने वाले कल के लिए ढेर सारे प्रोमिसेज की कतार खड़ी कर रहा है | सोचता रहा हूँ कि हिन्दी-साहित्य के कुछ स्थापित नाम किंचित इस ब्लौग के जरिये इस लड़के तक पहुंचेंगे और इसको और तराशेंगे या ये भी रोजी-रोटी की तलाश में फेसबुकिया कवि के तौर पर नज़रअंदाज़ कर दिया जायेगा ? 




अभिनव की एक बेनाम कविता :-
मुझे डर लगता है 
तुम्हारी इन बोलती आँखों से
मैं भर देना चाहता हूँ
इनमें तेजाब

दफना देना चाहता हूँ
हर वो कलम
जिस से मैंने कभी तेरा नाम लिखा
हटा देना चाहता हूँ
अपनी डायरी का वो पन्ना
जहाँ गाड़ा था
हमने अपना पहला चुंबन बड़े शौक से
मैॆँ जला देना चाहता हूँ
वो काली कमीज
जिसे पहन कर मैं तुझसे मिलने आता था
मैं छिन लेना चाहता हूँ
उन चमकते सितारो से उनका नूर
कर देना चाहता हूँ
उन्हे बेजान
जिन्हें देखकर तेरी याद आती थी
बांध देना चाहता हूँ
अतीत मे जाकर
उन टिक-टिक करती सूँइयों को
जहाँ कभी तेरा इंतेजार हुआ करता था
मैं तोड़ देना चाहता हूँ
उन छतों के मुंडेर
जहाँ तपते थे हम
तुम्हें देखने क लिए
जेठ की दोपहर में
भर देना चाहता हूँ
तेरी साइकिल के पहियों में पेट्रोल
और रख देना चाहता हूँ
जलती मशाल तेरी दहलीज़ पर
गिरा देना चाहता हूँ
गली के तमाम खम्बे
जहाँ से तू मुड़कर देखती थी
लूट लेना चाहता हूँ
तेरे आँगन में खिलते पेड़ की अस्मत को
फूँक कर एक एक पत्ता उसका
टांग देना चाहता हूँ
तेरे कमरे मे
अधजले कागज
जिसे तूने कभी प्रेम-पत्र का नाम दिया था
फेंक देना चाहता हूँ
अफवाहों से भरे बर्तन,
काट देना चाहता हूँ
तेरी तिलिस्मी जुबान
भर देना चाहता हूँ
तेरे सपनों मे जलती बस्तियाँ,
लाशें ,लहू
मातमी चींखे,
बिलखते बच्चे
काली फटी सलवार ,
खून से लथपथ चादर
करना चाहता हूँ कैद तुझे
चावल की गुड़िया में
रंगना चाहता हूँ
सिंदुर से
और दफना देना चाहता हूँ
काली अमावस के दिन
किसी कुएँ के नजदीक
कि मुझे डर लगता है
तुम्हारी इन बोलती आँखों से