तीन महीने बाद वापसी सभ्यता में। छुट्टी पे हूँ। एक लंबित प्रतिक्षित छुट्टी पर। ...इस दौरान छुटकी तनया साढ़े तीन महीने और बड़ी हो गयी अपने पापा के बगैर, लेकिन जब अपने पापा से मिली इतने दिनों बाद तो सबको आश्चर्यचकित करते हुये एकदम से अपने पापा की गोद में आ गयी। तो एक शेर बना था कुछ यूं कि
बिन बाप के होती हैं कैसे बेटियाँ इनकी बड़ी
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो
पूरी ग़ज़ल फिर कभी सुनाऊँगा...
कश्मीर की ठंढ़ के बाद इस गर्मी में खौलते-उबलते छुट्टी के दिनों की बात ही कुछ और है। खैर नवगीत की पाठशाला से उठाया हुआ एक प्रयास मेरा नवगीत पर आपलोगों की नज्र कर रहा हूँ:-
जरा धूप फैली जो चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती
पिघलती सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है
शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं
सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती
ये सूरज जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें
पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना
जरा कुनमुनायी
खयालों में आकर
जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती
बगानों में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते
भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती
है मिट्टी सुगंधी
सुबह से थकी है
पड़ी शाम औंधी
सितारों भरी रात आयी झिझकती
....और छुट्टी की शुरूआत हुई थी दिल्ली में आयोजित एक नन्हे-से नशिस्त से, जिसमें मुफ़लिस जी, मनु जी, प्रकाश अर्श जी, दरपण जी और खाक़सार शामिल थे। अच्छी धूम मची इन ब्लौगर शायरों से दरपण जी के निवास-स्थान पर और भेद खुला दरपण के प्राची के पार का। रचनाओं की प्रस्तुति और विस्तृत रपट के साथ जल्द ही हाजिर होता हूँ।