25 June 2015

तलब...हाँ, वही तलब !

चाय का ग्लास ख़त्म होते होते बारिश की जवानी अपने पूरे शबाब पर आ गई है | एक और चाय की तलब पूरा करने के लिए दूसरी ग्लास लेकर आया हुआ वो खिड़की के शीशे बंद करने की बात कहता है...मैं मुस्कुरा कर देखता हूँ उसे और वो झेंप जाता है | 

"वो फ़र्श गीला हो रहा है, साब !" झेंप के आगे का उद्गार यूँ आकर अपनी पैरवी रखता है |

इस जानिब की मुस्कुराहट बहुत कुछ कहना चाहती है सामने वाली झेंप से...जैसे कि, सुबह से शाम तक धूप को तरसती ये फ़र्श कम अज कम बारिश की बूँदों पर ही नाज़ कर ले थोड़ा... या फिर, एसी की बनावटी अदा से इतर कुछ तो प्रकृति के क़रीब हो जाये ऑफिस का ये बेचारा फ़र्श | लेकिन ऐसा कुछ ना कह कर, मुस्कुराहट बस "कोई बात नहीं" का जुमला उछालती है और झेंप एकदम से सावधान में आकर एड़ियाँ बजाते हुये सलाम ठोक बाहर निकल जाती है |

चाय की दूसरी ग्लास को होठों तक लाते हुये मुस्कान का विस्तार आकाश सा फैल जाता है | बाहर की बारिश और ऑफिस के अंदर आते थपेड़े स्मृतियों के उन बर्फ़ीले पहाड़ों पर ले जाते हैं, जहाँ मुस्कान को विस्तार तो इतनी नहीं मिलती थी...लेकिन इस ऑफिस नाम की नामुराद चीज से वास्ता भी नहीं रहता था...जहाँ आसमान को छूने के लिए एक-47 के बैरल को उठाना ही काफी होता था...जहाँ चाँद का दुश्मन के ख़ेमे पर जा टिकने के बावजूद उस पर प्यार उमड़ता था...जहाँ चाय की गरमाहट को बरक़रार रखना मानो दुश्मन की पूरी बटालियन से अकेले भिड़ जाना...जहाँ बारिश मुस्कान से ज्यादा आशंकाओं की वजह बनती थी और उसका स्वागत नहीं होता था...लेकिन मन है कि फिर भी इस ऑफिस से निकल कर वापस वहीं जाना चाहता है |

......और ये चाय की तलब पूरी होते ही, सिगरेट की तलब क्यों सर उठाए आ खड़ी होती है ?

अभी-अभी ख़बर मिली है उन्हीं पहाड़ों से... 

"कितने आदमी थे ?"

 ... सरदार खुश है | बहुत खुश है |