28 December 2009

टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके...

कुछ टिप्पणियाँ वाकई संवाद के नये रास्ते खोलती हैं। अभी पिछली पोस्ट पर जो अपनी ग़ज़ल सुनायी थी आपलोगों को मैंने, उस पर वाणी जी की एक टिप्पणी ने मन को छू लिया। उन्होंने लिखा था - "एक काम्प्लेक्स सा आ जाता है ...कहाँ हम वही काल्पनिक प्रेम वीथियों में अटके रहते हैं और आप लोग जमीनी हकीकत से जुड़े रहते हैं .....!!" तो हमने सोचा कि भई ऐसी क्या बात है, आज आपलोगों को अपनी एक खालिस रोमांटिक ग़ज़ल सुना देते हैं। वैसे भी पूरा साल लड़ते-झगड़ते गुजर गया, अब इन आखिरी क्षणो में तो कुछ इश्क-प्रेम की बातें हो जाय। कुछ पाठकों ने यूँ तो इस ग़ज़ल को गुरुजी के दीवाली-मुशायरे में यहाँ पढ़ ही लिया होगा, शेष बंधुओं के लिये पेश कर रहा हूँ एक इश्किया ग़ज़ल:-

रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे

इक विरह की अगन में सुलगते बदन
करवटों में ही मल्हार गाते रहे

टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी
नाम कर मेरे, वो मुस्कुराते रहे

शेर जुड़ते गये, इक गज़ल बन गयी
काफ़िया, काफ़िया वो लुभाते रहे

टौफियाँ, कुल्फियाँ, कौफी के जायके
बारहा तुम हमें याद आते रहे

कोहरे से लिपट कर धुँआ जब उठा
शौल में सिमटे दिन थरथराते रहे

मैं पिघलता रहा मोम-सा उम्र भर
इक सिरे से मुझे वो जलाते रहे

जब से यादें तेरी रौशनाई बनीं
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे

...बहुत ही प्यारी बहर है ये। अनगिनत गाने याद आ रहे हैं जिनकी धुनों पर मेरी ये ग़ज़ल गायी जा सकती है। रफ़ी साब का वो ओजपूर्ण देशभक्ति गीत "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम" या फिर महेन्द्र कपूर का गाया "तुम अगर साथ देने का वादा करो" या फिर लता दी का गाया "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिये"। एक-से-एक धुनें हैं इस बहर के लिये। अरे हाँ, वो किशोर दा जब जम्पिंग जैकाल जितेन्द्र के लिये अपने अनूठे अंदाज में "हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम" गाते हैं तो इसी बहरो-वजन पर गाते हैं। लेकिन इन धुनों की चर्चा अधुरी रह जायेगी अगर हमने जानिसार अख्तर साब के लिखे फिल्म शंकर हुसैन के गीत "आप यूं फासलों से गुजरते रहे" की चर्चा नहीं की तो, जिसे अदा जी सुनवा रही हैं अपने ब्लौग पर यहाँ


आपसब को आने वाले नये साल की समस्त शुभकामनायें...

21 December 2009

हाकिम का किस्सा...

उधर कई दिनों से >संजीव गौतम जी की ब्लौग पर अनुपस्थिति और फोन पर बात किये हुये एक लंबा अर्सा बीत जाना एकदम से चिंतित कर गया था कि जनाब ठीक तो हैं। फोन लगाया तो उनके कहकहों ने आश्वस्त किया और पता चला कि छुट्टी मनायी जा रही है। बातों ही बातों में वो लगे मेरी एक अदनी-सी ग़ज़ल की तारीफ़ करने जो अभी हाल ही में मुंबई से निकलने वाली त्रैमासिक युगीन काव्या के जुलाई-सितंबर वाले अंक में छपी थी। अब तारीफ़ सुन कर मेरा फुल कर कुप्पा हो जाना तो लाजिमी था...तारीफ़ अपने ग़ज़ल की और वो भी ग़ज़ल-गाँव के एक श्रेष्ठ शायर से। आहहाsssss!!!

...तो सोचा आपलोगों को वही ग़ज़ल सुनाऊँ आज। तकरीबन दो साल पहले लिखी थी। तब शेर कहना सीख ही रहा था। नोयेडा में एक अकेले वृद्ध की हत्या उन्हीं के नौकर द्वारा किये जाने की खबर थी अखबारों में तो यूं ही दो पंक्तियाँ बन गयी{वो "खादिम का किस्सा" वाला} और फिर जिसे बढ़ा कर पूरी ग़ज़ल की शक्ल देने की कोशिश की। ग़ज़ल को सँवारने की जोहमत विख्यात शायर >हस्ती मल हस्ती साब ने की है जो युगीन काव्या के संपादक भी हैं। पेश है:-

जब छेड़ा मुजरिम का किस्सा
चर्चित था हाकिम का किस्सा

जलती शब भर आँधी में जो
लिख उस लौ मद्‍धिम का किस्सा

सुन लो सुन लो पूरब वालों
सूरज से पश्‍चिम का किस्सा

छोड़ो तो पिंजरे का पंछी
गायेगा जालिम का किस्सा

जलती बस्ती की गलियों से
सुन हिंदू-मुस्लिम का किस्सा

बूढ़े मालिक का शव बोले
दुनिया से खादिम का किस्सा

कहती हैं बारिश की बूंदें
सुन लो तुम रिमझिम का किस्सा

...इस बहरो-वजन पर >नासिर काज़मी साब ने कुछ बेहरतीन ग़ज़लें कही हैं। अभी वर्तमान में >विज्ञान व्रत और >डा० श्याम सखा ने भी धूम मचा रखी हैं इस बहर की अपनी ग़ज़लों से।

चलते-चलते संजीव गौतम जी की दो बेमिसाल ग़ज़लें पढ़िये >यहाँ

14 December 2009

फ़िकर करें फुकरे..


विख्यात{और कुख्यात भी} वर्ल्ड हैविवेट बाक्सिंग चैम्पियन माइक टायसन अक्सर अपना बाउट शुरु होने से पहले कहा करता था और क्या खूब कहा करता था कि:-

"everybody has a plan till he gets a punch on the face"

बस यूं ही याद आ गयी ये बात। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में अपने प्रशिक्षण के दौरान पहले और दूसरे सेमेस्टर में हम सभी कैडेटों के लिये बाक्सिंग की प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना आदेशानुसार नितांत आवश्यक होता था। उन दिनों हर स्पर्धा से पहले दिमाग में कितने दाँव-पेंच पल-पल बनते-बिगड़ते रहते थे, लेकिन रिंग में उतरने के बाद विपक्षी का अपने चेहरे पर पड़ा एक नपा-तुला पंच तामीर किये गये सारे दाँव-पेंचों की धज्जियाँ उड़ा देता था। फिर कौन-सा लेफ्ट हुक? फिर काहे का अपर कट?? ये संदर्भ यूं ही याद आ गया अभी अपने ब्लौग-जगत में मची वर्तमान छोटी-मोटी हलचलों को देखकर। किसी का अलविदा कहना, किसी का संन्यास लेना, किसी का विरोध, किसी की उदासीनता, किसी की तटस्थता, किसी की मौन समाधि, किसी की शब्द-क्रांति...ये सब, ये सबकुछ विस्तृत सागर में उछाले गये छोटे तुच्छ कंकड़ से अधिक तरंग नहीं पैदा करते हैं। काश कि मेरे ये सभी संवेदनशील ब्लौगर-मित्र इस ब्लौग-सार को फौरन से पेश्तर समझ जाते...! काश...!! और यहाँ मैं रविरतलामी जी की एक टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा। जब वो लिखते हैं "यारों, जमाने भर के कचरे की बातें करते हो तो अपने स्वर्ण-लकीरों को बड़ा कर के तो दिखाओ जरा!!" तो क्या इन तमाम कथित विरोधों, अलविदाओं को अपने अंदाज में एक सटीक जवाब नहीं दे देते हैं हम सब की तरफ से?

दुष्यंत कुमार का ये शेर "कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता / एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो" भले ही सटीक और अनंत काल तक के लिये सामयिक हो बाहरी दुनिया के वास्ते, लेकिन यहाँ इस अभासी दुनिया में अपने विरोध स्वरुप ये अलविदा रुपी पत्थर कितनी भी तबीयत से कोई उछालते रहे...कोई सूराख नहीं होनी है इस ब्लौगाकाश में। अगर इस ब्लौगाकाश में कोई सूराख बनाने की ख्वाहिश सचमुच ही हिलोर मार रही हो तो उसके लिये यहाँ डटे रहना जरुरी है।

सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है। विपक्षी का एक तगड़ा पंच भले ही कुछ क्षणों के लिये अपने दाँव-पेंच की तामीर बिगाड़ देता हो, किंतु रिंग से बाहर जाकर तो कोई अपने लेफ्ट हुक या अपर कट चलाने से रहा। उसके लिये तो रिंग में बने रहना जरुरी है ना? क्यों??

...बस यूँ ही कुछ आवारा सोचों का उन्वान बन रहा था तो आपलोगों के संग साझा कर लिया। इधर दो-तीन दिनों से कुछ आहत दोस्तों और उमड़ती संवेदनाओं को देखकर विचलित मन जाने क्यों एक गाने पर अटका हुआ बार-बार इसे गुनगुनाता रहता है:-

दुनिया फिरंगी स्यापा है
फिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
हडिप्पाssssss....

07 December 2009

वादी में रंगों की लीला...

ड्‍युटी पर वापस लौटे ये ग्यारहवां दिन। ड्‍युटी पर...?? हाँ, कुछ हद-बंदियाँ{रेस्ट्रिकश्‍न} हैं चोट की वजह से, फिर भी ड्युटी तो है ही।

इधर वादी अपना रंग-रूप बदल रही है...बदल चुकी है। हरी-भरी वादी एकदम से लाल, भूरा और सफेद होने की तैयारी में। रंगों की ये अजीब लीला अचानक समीरलाल जी की एक हृदयस्पर्शी लघुकथा की याद दिला गयी। यूँ समीर जी की ये कथा किसी और संदर्भ को इंगित थी{खुशदीप सहगल जी की टिप्पणी इसी कथा पर काबिले-गौर हो}। आज पोस्ट के नाम पर सोचा कि आपलोगों को वादी में मची रंगों की इस अद्‍भुत लीला की कुछ झलकियाँ दिखाऊँ।

...तो पेश है कुछ तस्वीरें मेरे आस-पास की। ये सारी तस्वीरें मेरे सीओ {कमांडिन्ग आफिसर}कर्नल विवेक भट्ट ने अपने कैमरे{निकन डी-60} से खींची हैं इन तस्वीरों पर उनका सर्वाधिकार सुरक्षित है। मेरे सीओ साब बड़े ही जबरदस्त शूटर हैं- कैमरे से भी और राइफल से भी। देखिये ये तस्वीरें और जलिये-भुनिये :-)...








कैसी लगी ये तस्वीरें? ईश्‍वर ने क्या सचमुच अन्याय नहीं किया है जन्नत के इस टुकड़े संग? आखिरकार सब कुछ तो उसी परमपिता परमेश्‍वर के हाथों में होता है। इस जमीन की ये बेइंतहा खूबसूरती उसी सर्वशक्तिमान का तो जलवा है और वो यदि चाहे तो यहाँ का सुलगता माहौल भी एक चुटकी में सामान्य हो जाये...!!!

धरती के इस स्वर्ग में एक बार फिर से प्रेम-सौहार्द-भाईचारे और कश्मीरियत का मौसम लौटे, आइये सब मिलकर दुआ करें!