...इस बार की आनेवाली गरमी व्यस्त रखने वाली है इधर हमें...पड़ोस की खलबली...पलायन...माहौल...वादी की हवा-सब इसी की अग्रीम सूचना दे रहे हैं। इस जमी बर्फ से और इसके पिघलने से कुछ दर्दनाक और कई विजयी-उल्लास वाली यादें जुड़ी हुईं हैं...कभी अपनी पुरानी डायरी के ये तमाम वरक पलटूँगा आप सब के समक्ष। तब तक एक गज़ल सुन लीजिये। एकदम ताजा। अभी-अभी गुरू जी के हाथों संवर कर आयी हुई। बहरे रमल पर। पेश है:-
देख पंछी जा रहें अपने बसेरों में
चल, हुई अब शाम, लौटें हम भी डेरों में
सुब्ह की इस दौड़ में ये थक के भूले हम
लुत्फ़ क्या होता है अलसाये सबेरों में
अब न चौबारों पे वो गप्पें-ठहाकें हैं
गुम पड़ोसी हो गयें ऊँची मुँडेरों में
बंदिशें हैं अब से बाजों की उड़ानों पर
सल्तनत आकाश ने बाँटी बटेरों में
देख ली तस्वीर जो तेरी यहाँ इक दिन
खलबली-सी मच गयी सारे चितेरों में
जिसको लूटा था उजालों ने यहाँ पर कल
ढ़ूँढ़ता है आज जाने क्या अँधेरों में
कब पिटारी से निकल दिल्ली गये विषधर
ये सियासत की बहस, अब है सँपेरों में
गज़नियों का खौफ़ कोई हो भला क्यूं कर
जब बँटा हो मुल्क ही सारा लुटेरों में
ग़म नहीं, शिकवा नहीं कोई जमाने से
जिंदगी सिमटी है जब से चंद शेरों में
....अगली पेशकश के साथ जल्द लौटता हूँ।
26 March 2009
हरी मुस्कानों वाला कोलाज़...
{मासिक पत्रिका "पाखी" के मई 2010 अंक में प्रकाशित कहानी}
पीर-पंजाल की बर्फीली चोटियों को पार करते हुये सेना के लिये चार्टड वो एयर-इंडिया का छोटा-सा हवाई-जहाज एक सघन एयर-पाकेट में फँस कर बुरी तरह लड़खड़ाया था.....एक रुके से क्षण में जहाज में बैठे उन तमाम वर्दीधारी सैनिकों के मुँह से हल्की एक सिसकारी निकलते-निकलते थम गयी....मौत के उस अहसास में भी हरी वर्दी की गरीमा का ख्याल। दिल्ली के इंदिरा गाँधी हवाई-अड्डे से उड़े डेढ़ घंटे से ज्यादा का वक्त हो चला था और जब उस पतली-दुबली परिचारिका ने अपने यंत्र-चालित किंतु मोहक आवाज में श्रीनगर हवाई-अड्डे पर विमान के उतरने की उद्घोषणा की तो उन तमाम वर्दी वालों की आँखें विमान के अंदर की हल्की रौशनी में एक मिला-जुला अजीब-सा कोलाज़ बनाने में जुटी हुई थीं। पीछे छोड़ आये अपने प्रियजनों की स्मृतियों का कोलाज। अन्य आफिसरों के साथ विमान की आगे वाली कतार में बैठा वो, अपनी आँखों में बसी छुटकी खुशी के गोल चेहरे को उसी कोलाज़ में कहीं चिपकाने की कोशिश कर रहा था। सवा साल की होने को आयी है खुशी और शायद ये पहली दफा होगा इस सात साल के सैन्य सेवा-काल में कि इधर वैली में पोस्टिंग आते समय वह कुछ आशंकित-सा था। तीन सालों बाद वापस आ रहा है वैली में। दूसरी पोस्टिंग इस जलती-सुलगती कश्मीर वैली में। तड़के सुबह घर से निकलने का दृश्य मम्मी के आँसुओं से अभी तक भीगा हुआ-सा था। पापा हमेशा की तरह मुस्कुरा रहे थे, किंतु चेहरे की वो मुस्कान आँखों में खिंची चिंता की लकीरों को छिपाने में एकदम असमर्थ थी। ...और छुटकी खुशी को तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि उसे इतनी सुबह-सुबह उठा क्यों दिया गया है। नेहा की गोद में सिमटी-सी वो कैसे अजीब नजरों से देखे जा रही थी।
कल ही तो प्रोमोशन हुआ है उसका। कैप्टेन से मेजर। नेहा की प्रतिक्रिया अजीब-सी थी। अजीब-सी, किंतु बेहद प्यारी।
"तुम तो कैप्टेन ही ठीक थे। ये मेजर तुम्हारे नाम के साथ अच्छा नहीं लगता।" -वो कहती है।
"क्या मतलब?"
"देखो ना।कैप्टेन मोहित सक्सेना...आहहाहा! कितना अच्छा लगता है सुनने में।...और मेजर मोहित सक्सेना? छिः ! बकवास! तुम वापस कैप्टेन नहीं बन सकते?"
नेहा की बातें सोचकर मुस्कुराता हुआ उठता है अपने यूनिफार्म को ठीक करता हुआ। हवाई-जहाज लैंड कर चुका था।
श्रीनगर का एयर-पोर्ट। कितना कुछ बदल गया है। अब तो ये अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डा बन गया है। बरसों पहले- बासठ बरस पहले इसी एयर-पोर्ट की रक्षा के लिये तो सोमनाथ शर्मा ने अपनी छाती अड़ा दी थी कबाइलियों की गोलियों की बौछार को रोकने के लिये। एयर-पोर्ट के मुख्य द्वार से निकलते ही सामने ही भव्य प्रतिमा दिखती है शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा की और विमान से उतरने वाले सब-के-सब वो हरी वर्दीधारी उस प्रथम परमवीर चक्र विजेता की प्रतिमा को सैल्युट कर आगे बढ़ते जाते हैं।
"कितनी अजीब-सी लेगैसी छोड़ गये हैं मेजर सोमनाथ भी" - चौहान कानों में फुसफुसाता-सा कहता है।
आशीष- आशीष चौहान, है तो दो साल जुनियर, लेकिन अक्सर दार्शिनिक-सी बातें कर खुद को परिपक्व दिखाने में लगा रहता है। देहरादून से साथ ही आ रहा है वो यहाँ पोस्टिंग पर।
" ओय चौउ, कितना टाइम लग जायेगा यहाँ से अपने बेस पर पहुँचने में?"
"तीन घंटे तो कम-से-कम, सर। आय होप, हमें लेने कोई गाड़ी-वाड़ी आ रही है।"
"तू पूछ रहा है कि बता रहा है? वो उधर देख, शायद अपनी ही गाड़ी हैं वो!"
तीन सालों बाद आ रहा था वो वापस वैली में। बहुत कुछ बदल गया है। आशीष ड्राइव कर रहा था और वो बगल वाली सीट पर बैठा श्रीनगर शहर को निहारता सोच रहा था। कितनी यादें..कितनी घटनायें...जिंदगी के कितने ही अहम हिस्से इस जगह से जुड़े हुये हैं, जो वो किसी को बता नहीं सकता, जो कोई समझ भी नहीं पायेगा। एक टीस-सी सीने की गहराइयों में।
अभी परसों ही तो राहुल छोड़ गया है हम सब को। यहीं इन पहाड़ियों पर कुछ हरामजादों से लड़ते हुये। शहीद कहलाने को।
"शहीद.....हुः !!!" एक विद्रुप-सी हँसी फैल जाती है मेरे होंठों पर। आप तब तक बहादुर नहीं हैं, जब तक कि आप शहीद नहीं हो जाते...!!!
विगत दो दिनों से देख रहा है वो....जिस मुल्क के लिये राहुल ने जान दी, जिस मुल्क के लिये वो यूँ कथित रूप से शहीद हुआ है, वो उसका मुल्क या तो किसी सरफिरे नेता के भाषण की विडियो-क्लिपिंग की सच्चाई जानने में व्यस्त है या फिर एक किसी क्रिकेट-टूर्नामेंट का आयोजन यहाँ न हो पाने पर शोकाकुल है। राहुल के इस मुल्क को उसके लिये रुक कर शोक मनाने की फुरसत कहाँ है? वैसे भी इस महान मुल्क की कथित बहादुर मीडिया अपने बहादुरी के कारनामे पेप्सी-कोक पीते हुये किसी ताज या किसी ओबेराय या किसी संसद-भवन के इर्द-गिर्द चल रहे आपरेशन को ही कवर करने में दिखा सकती है....उनके कैमरों में अब इतने अत्याधुनिक लैंस कहाँ से आयेंगे कि वो देख सकें पहाड़ों पर इन चीड़-देवदार के जंगलों में इन बेवकूफ़ राहुलों को खून बहाते हुये। आप बहादुर हैं या नहीं, ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपने जो अपनी बहादुरी दिखाते हुये लड़ाइयाँ लड़ी हैं, वो जगह कहाँ है। कई बार लगता है कि शायद जगह ज्यादा महत्व रखता है। राहुल का यही युद्ध अभी अगर मुम्बई या दिल्ली के किसी इलाके में हुआ होता तो अभी तक हीरो बना होता वो। किंतु उसका ये हीरोइज्म अब तो न्यूज-चैनलों के स्क्रीन के नीचे दौड़ती पट्टी पर रहने भर के काबिल है। "...कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों में मुठभेड़...सेना ने दो आतंकवादी मार गिराये...सेना का एक मेजर भी शहीद"। न्यूज-चैनल के दौड़ते टिकर्स...इतनी-सी हैसियत है बस हमारी।
"क्या सोच रहे हो, सर?"- आशीष की आवाज चौंका देती है उसे।
"कुछ नहीं यार, बस अपने राहुल की याद आ गयी थी"
"पता चला सर। आपदोनों बैच-मेट थे ना?"
"मोर दैन दैट।...अब तो बड़ा हो गया वह।शहीद हो गया ना!"
"कूल इट सर।...लो आ गया अपना कैंप।"- आशीष समझ रहा था उसकी खीझ।
तम्बुओं की कतार। कँटीले तारों से घिरा। यही तीन बटा डेढ़ किलोमीटर की परीधि में फैला छोटा सा ये कैम्प उसकी कर्मभूमि है अब अगले ढ़ाई- तीन सालों तक के लिये। संध्या का सूरज सामने की बर्फीली पहाड़ों के पीछे छुप कर एकदम से अँधेरा कर गया और श्नैः ही कँटीले तारों पर लगे तमाम सेक्यूरिटी लाइट्स स्वमेव जल उठे। एक विचित्र-सी अनुभूति जैसे कि वो कब से यहीं हो। मेस में औपचारिक रूप से आमंत्रित थे वो दोनों आज की रात वेलकम डिनर के लिये। ...और उसी डिनर के दौरान कमांडिन्ग आफिसर ने उसे उसकी नयी ड्यूटी का ब्योरा समझा दिया था। कल सुबह सामने वाले पहाड़ पर स्थापित एक छोटे-से पोस्ट की कमान सँभालनी थी उसे। सुदूर एकांत चौकी। सरहद पार से होने वाले इंफिलट्रेशन पर नजर और नीचे से गुजरने वाली सड़क की सुरक्षा के लिये।
"वाह! मजा आयेगा!!" -मुस्कुराया सोच कर। हमेशा से हेड-क्वार्टर से अलग-थलग दूर-दराज की चौकी पर रहना उसे पसंद है।
"इंडिपेंडेन्ट कमांड, दैट्स व्हाट ही लाइक्स...मजा आ गया!" लगभग हँस पड़ा था वो खुशी से।
"..और मोहित, कहाँ के रहने वाले हो? हू आल आर देयर इन योर फैमिली?" -कमांडिन्ग आफिसर उससे पूछ रहे थे डिनर-टेबल पर।
"यूपी का रहने वाला हूँ, सर। बनारस का।" -अपने खुशफहम खयालों से बाहर आता हुआ वो बास के सवाल का जवाब देता है।
"घर में माँ-पापा हैं, सर। और नेहा, माय वाइफ। एक बेटी है-सवा साल की। खुशी।"
"एंड यू आर कमिंग हेयर इन वैली फौर दी सेकेंड टाइम इन योर सेवन यियर आफ सर्विस?" -कमांडिन्ग आफिसर उसे एट-इज करने की कोशिश में थे।
"यस सर।" - मन-ही-मन मुस्कुराता है वो।
"दैट्स ग्रेट! तो कल सुबह की तैयारी कर लो तुम ऊपर पोस्ट पे चढ़ने की। बी एलर्ट देयर और अपना और अपने जवानों का ख्याल रखना...!" कमाडिंग आफिसर ने तनिक स्नेहिल आवाज में चलते-चलते कहा उसे।
वह सोने की तैयारी कर रहा था, जब चौहान धड़धड़ाता हुआ "गज़ब सर ! गज़ब !!" की रट लगाता हुआ दखिल हुआ उसके कमरे में।
"अबे क्या हुआ? सोना है मुझे। कल जल्दी उठना है...ऊपर वाली पोस्ट पे जाना है।" कुछ खिझी आवाज में पूछा मैंने।
"सर, आपके बड़े चर्चे हो रहे हैं यहाँ तो..." - चौहान मुस्कुराता हुआ कहता है।
"हुआ क्या?"
"मैं अभी ऐसे ही हेड-क्वार्टर का चक्कर लगा रहा था। एक जगह चार-पाँच जवानों का एक ग्रुप बैठ कर गप्पें लगा रहा था। उन्होंने मुझे देखा नहीं था अँधेरे में। बातचीत के दौरान मुझे आपका नाम सुनाई दिया, तो मैं ठिठक कर सुनने लगा। आप तो बड़े फेमस हो, सर...!!"
"अबे, पूरी बात बतायेगा !" - सोने के लिये उतावला जरूर था, लेकिन अपने बारे में जवानों की बातें सुनने की उत्कंठा छुपा नहीं पा रहा था।
"आपके बारे में एक कह रहा था कि ये जो नये मेजर मोहित सक्सेना साब आये हैं बड़े खुर्राट हैं। बहुत ही सख्त और गुस्से वाले हैं। जरा ध्यान से रहना। ड्यूटी पे ढ़िलाई तो उन्हें जरा भी पसंद नहीं। जिसको भी ढ़ीला पकड़ लेते हैं, बहुत पनिसमेंट देते हैं...."
"अच्छा? और क्या कह रहे थे?" – वो अपनी हँसी रोक नहीं पा रहा था।
"ये सुनने पर एक ने कहा कि अच्छा है वो यहाँ नहीं रह कर उधर ऊपर वाले पोस्ट पर जा रहे हैं। तो तीसरे ने कहा कि उस पोस्ट पे अपने यार-दोस्तों को आगाह कर देना कि कसाई मोहित आ रहा है, संभल के रहे..." - आँखें नचाते हुये चौहान ने "कसाई" को कुछ इस तरह उच्चरित किया कि दोनों ही ठहाका लगा कर हँस पड़े।
"हमसे पहले हमारी रूसवाई के चर्चे गये..... हा ! हा !!" – उसने हँसते हुए एक शेर मारने की कोशिश की।
"चलो सर। सो जाओ आप। ऊधर ख्याल रखना अपना। गुड नाइट !" - सैल्युट मार कर चौहान चला गया।
विगत चार दिनों से लगातार बारिश हो रही है। बारिश पसंद है । बहुत पसंद है। एक हफ्ते से ऊपर होने को आये हैं अपनी इस पोस्ट पर और लगने लगा है कि जाने कब से यहीं रह रहा है वो। बारिश जाने कितनी स्मृतियाँ एकदम से ले आयी हैं संग अपने।
बारिश पसंद है, लेकिन छुट्टियों में। नेहा के संग वाली बारिश। वो जानबूझ कर मोटरसायकल पर दोनों का भीगते हुये देहरादून की तमाम सड़कों पर चक्कर लगाना। या फिर दो बड़े मगों में काफी भर कर दो पैकेट मैगी पका कर एक ही प्लेट में वो ड्राइंग-रूम के फर्श पर बिस्तर लगाना और कोई फिल्म देखना टीवी पर। कितनी सारी स्मृतियाँ... इस छोटे से बहक* में रंग-बिरंगा एक कोलाज बनाते हुये। तापमान बिल्कुल गिर कर शून्य को छूने की होड़ में है। लगातार चौथा दिन...बारिश है कि थमने का नाम नहीं ले रही। दूर उस चोटी से सरकती हुई बर्फ़ की चादर मेरे बहक* की छत पे पहले से ही बिछी पतली बर्फिली चादर पर इक और परत बिछाने को उतावली है। बारिश का यूँ बदस्तुर बरसते जाना मुझे ख्यालों, स्मृतियों की दुनिया से बाहर नहीं निकलने दे रहा।
पूरणssssssssssssssssssssssss....!!!
इतनी दूर से ये आवाज उस तक कैसे पहुँचेगी भला?
दूरबीन का लैंस ज़ूम होकर पूरण के चेहरे को और करीब ले आता है...कैसी अजीब-सी मुस्कान है। नशे में डूबी-सी मानो। सपनीली।...परसों ही तो छुट्टी से आया है ये नामुराद। इसे तो अभी पूर्ण रिचारज्ड बैटरी की तरह अन्य जवानों की अपेक्षा और-और चाक-चौबंद मुस्तैद होना चाहिये।..मगर देख लो नालायक को !!! अभी सीधा करता हूँ इस इडियट को। गुस्से की अधिकता सर्दी की ठिठुरन को जैसे और बढ़ा दे रही थी।
"राधे--ओय राधे, जीप निकाल !"
"जी साब..."
ठंढ़ में सिकुड़ी-सी जीप भी खांस-खांस कर स्टार्ट होती है। हिचकोले लेकर आगे बढ़ती हुई जीप। चौकी के पतले से रास्ते पर होते हुये मुख्य सड़क की ओर अग्रसर होती है।
"ये बारिश कब तक चलेगी, साब?" -राधेश्याम, मेरा ड्राइवर। बातूनी। दो मिनट को भी चुप नहीं बैठ सकता।
"ज्यादा-से-ज्यादा परसों तक रहेगी ये बारिश। तू कहाँ का रहने वाला है राधे?"
"बागेशर का हूँ साब" – उसकी आवाज में व्याप्त क्रोध को भाँपता हुआ राधेश्याम थोड़ा सहम कर कहता है।
"ये पूरण चंद भी तो तेरे आस-पास वाला ही है"
"हाँ साब। बिल्कुल मेरे पास वाले गाँव का ही तो है। अभी-अभी तो शादी करके आया है, साब।"
"शादी करके आया है...???"...और भक्क से ज़ूम हुए दूरबीन के लैंस में पूरण के चेहरे की उस अजीब मुस्कान का रहस्य खुलता है।...कमबख्त ये पूरण का बच्चा ख्वाब में डूबा हुआ है अपनी नयी-नवेली दुल्हन के। जाने क्यों एकदम से नेहा का चेहरा याद आया। कितनी क्रूरता होगी ये ना...पूरण को उसके ख्वाब से जगाना।
किंतु ये क्रूरता तो करनी पड़ेगी। महज ड्यूटी या कर्तव्यपरायणता के ख्याल से ही नहीं...उस नयी-नवेली दुल्हन के सुरक्षित भविष्य के लिये भी तो। उस नयी दुल्हन की माँग हमेशा हरी रहे, इसलिये भी पूरण को ख्वाब से जगाना जरूरी है
जीप झटके से रूकती है।
"कैसे हो पूरण ?"
"जय हिंद, साब! ठीक हूँ साब!!"
एक कड़क सैल्यूट। घबड़ाया-सा। हड़बड़ाया-सा। राइफल पर उसकी पकड़ मजबूत हो जाती है।
"तू ने अपनी शादी की मिठाई तो खिलाई ही नहीं...."
ड्यूटी का एक और बारिश से भीगा हुआ, सर्दी से काँपता हुआ दिन सही सलामत निकल जाता है। मेरे कोलाज में पूरण की हरी हँसी जुड़ आती है। जीप वापस चौकी की तरफ चल पड़ती है। राधे आश्चर्य से अपने मेजर साब को गुनगुनाते हुये देखता है...
"हरी है ये जमीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं....."
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{*बहक-ऊँचे पहाड़ों पर गड़ेरियों के द्वारा बनायी हुई छोटी झोपड़ी}
हलफ़नामा-
कहानी,
मासिक पाखी
18 March 2009
दीवारें हम बनेंगे माँ, तलवारें हम बनेंगे माँ.....
देहरादून को विदा कहने का वक्त आ गया। ये आखिरी पोस्ट है उत्तराखंड की इस मनोरम वादी से। तो आज आपका परिचय करवाता हूँ एक अनूठे गीत से। इस गीत के बोल और धुन पर भारतीय सैन्य अकादमी से पास-आउट होने वाले भारतीय सेना के समस्त जांबाज आफिसर कदम-से-कदम मिलाते हैं और वतन पर मर-मिटने की सौगंध लेते हैं। गीत को जावेद अख्तर साहब ने अपने शब्द दिये हैं और धुन पे सजाया है राजु सिंह व अनु मलिक जी ने। अकादमी में प्रशिक्षणरत लगभग सोलह सौ जेंटलमैन कैडेट्स जब इस गीत को अपनी बुलंद आवाज़ में गाते हुये ड्रम की थाप पर कदम मिलाते हुये परेड करते हैं, तो मजाल है कि किसी के जिस्म का रोआं-रोआं न खड़ा हो जाये और वो नजारा तो शब्दों की वर्णन-क्षमता से परे होता है। चाहता तो था कि आप सब को इस गीत की रिकार्डिंग भी सुनवाऊँ, किंतु वो फिर कभी। फिलहाल इस गीत के बोल पढ़वाता हूँ:-







...इति। अगला पोस्ट मुल्क के सुदूर उत्तरी कोने से लिखना होगा। तब तक के लिये विदा।
...इति। अगला पोस्ट मुल्क के सुदूर उत्तरी कोने से लिखना होगा। तब तक के लिये विदा।
हलफ़नामा-
गीत,
जावेद अख्तर,
भारतीय सैन्य अकादमी
06 March 2009
है मेरी प्यास का रूतबा, जो दरिया में लहर दे है...
बस गिनती के दिन शेष रह गये हैं यहाँ इस खूबसूरत उत्तराखंड की वादियों में मेरे। शहर जैसे इस देहरादून में तनिक आराम देने के लिये भेजे गये इस पोस्टिंग की अवधि समाप्त होती हुई और मन है कि बस उड़ कर दूर उस ’कर्मभूमि’ में पहुँच जाना चाहता है। खैर तो आज पेश है मेरी एक छोटी बहर वाली कोशिश।
वो जब अपनी खबर दे है
जहाँ भर का असर दे है
चुराकर कौन सूरज से
ये चंदा को नजर दे है
है मेरी प्यास का रूतबा
जो दरिया में लहर दे है
कहाँ है जख्म औ मालिक
यहाँ मरहम किधर दे है
रगों में गश्त कुछ दिन से
कोई आठों पहर दे है
जरा-सा मुस्कुरा कर वो
नयी मुझको उमर दे है
रदीफ़ों-काफ़िया निखरे
गजल जब से बहर दे है
{द्विमासिक आधारशिला के जनवरी-फरवरी 09 अंक में प्रकाशित}
...इति। आखिरी शेर के काफ़िये में थोड़ा-सा कष्ट है, किंतु शब्द-विशेष के प्रचलित उच्चारण को ध्यान में रखते हुये ये धृष्टता की है। आशा है गुरूजन और उस्ताद क्षमा करेंगे। हमेशा की तरह त्रुटियों से अवगत करा कर अनुग्रहित अवश्य करें।
वो जब अपनी खबर दे है
जहाँ भर का असर दे है
चुराकर कौन सूरज से
ये चंदा को नजर दे है
है मेरी प्यास का रूतबा
जो दरिया में लहर दे है
कहाँ है जख्म औ मालिक
यहाँ मरहम किधर दे है
रगों में गश्त कुछ दिन से
कोई आठों पहर दे है
जरा-सा मुस्कुरा कर वो
नयी मुझको उमर दे है
रदीफ़ों-काफ़िया निखरे
गजल जब से बहर दे है
{द्विमासिक आधारशिला के जनवरी-फरवरी 09 अंक में प्रकाशित}
...इति। आखिरी शेर के काफ़िये में थोड़ा-सा कष्ट है, किंतु शब्द-विशेष के प्रचलित उच्चारण को ध्यान में रखते हुये ये धृष्टता की है। आशा है गुरूजन और उस्ताद क्षमा करेंगे। हमेशा की तरह त्रुटियों से अवगत करा कर अनुग्रहित अवश्य करें।
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
द्विमासिक आधारशिला,
बहरे हज़ज
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