{द्विमासिक पत्रिका "परिकथा" के जनवरी-फरवरी 2011 अंक में प्रकाशित मेरी कहानी}
"आप बड़े ही ज़हीन हो, कैप्टेन शब्बीर ! हमारी बहन से शादी कर लो...!" साज़िया के इन शब्दों को सुन कर कैसा चौंक उठा था मैं।
वो गुनगुनी धूप वाली सर्दियों की एक दोपहर थी। वर्ष 2000 का नवंबर महीना। तारीख ठीक से याद नहीं। जुम्मे का दिन था, इतना यकीनन कह सकता हूँ। श्रीनगर के इक़बाल पार्क में बना वो नया-नवेला कैफेटेरिया, साज़िया ने ही सुझाया था मिलने के लिये। हमारी पाँचवीं या छठी मुलाकात थी विगत डेढ़ साल से भी ऊपर के वक्फ़े में। वैसे भी ज्यादा मिलना-जुलना खतरे से खाली नहीं था- न मेरे लिये और न ही साज़िया के लिये। फोन पर ज्यादा बातें होती थी। ये उन दिनों की बात है, जब मोबाइल का पदार्पण धरती के इस कथित जन्नत में हुआ नहीं था।
उम्र में मुझसे तकरीबन आठ-नौ साल बड़ी और वजन में लगभग डेढ़ गुनी होने के बावजूद उसकी चेहरे की खूबसूरती का एक अपरिभाषित-सा रौब था। तीन बच्चों की माँ, साजिया अपने अब्बू और छोटी बहन सक़ीना के साथ श्रीनगर के डाउन-टाउन इलाके में रहती थी। माँ छोटी उम्र में गुजर चुकी थी। दो भाई थे...पिछले साल मारे गये थे हमारे ही एक आपरेशन में। जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही जेहाद का शौक चर्राया था। उस पार हो आये कुछ सरफिरों के साथ उठना-बैठना हो गया दोनों का और फिर नशा चढ़ गया हाथ में एके-47 को लिये घूमने का। नाम ठीक से याद नहीं आ रहा उनका- शायद शौकत और ज़लाल। वैसे भी आपरेशन में मारे जाने के बाद ये सरफिरे नाम वाले कहाँ रह जाते हैं। ये तो नम्बर में तब्दील हो जाते हैं गिनती रखने के लिये। साज़िया को सब मालूम था इस बाबत। लेकिन वो बिल्कुल सहज रहती थी इस बारे में। जिससे इश्क किया, वो भी शादी रचा कर और निशानी के रूप में दो बेटे और एक फूल-सी बेटी देकर उस पार चला गया। तीन साल पहले। कोई खबर नहीं। क्या पता, कोई गोली उसके नाम की भी चल चुकी हो। किंतु साज़िया इस बारे में भी कोई मुगालता नहीं रखती थी।
वो मेरे पे-रोल पर थी और समय-असमय महत्वपूर्ण सूचनायें देती थी। उस रोज भी हमारा मिलना किसी ऐसे ही खबर के सिलसिले में था। थोड़ी-सी घबरायी हुई थी वो, क्योंकि खबर उसके पड़ोसी के घर के बारे में थी। उसे सहज करने के लिये मैंने बातों का रूख जो मोड़ा, तो अचानक से अपनी बहन के लिये इस अनूठे प्रणय-निवेदन से हैरान कर दिया मुझे। तीन-चार बार जा चुका था उसके घर। साज़िया के अब्बू को मैं पसंद नहीं था, भले ही मेरी वजह से घर में रोटी आती हो। अपने जवान बेटों की मौत का जिम्मेदार जो मानते थे मुझे। सक़ीना को देखा था मैंने। उफ़्फ़्फ़! शायद "बला की खूबसूरत" जैसा कोई विशेषण उसे देख कर ही बनाया गया होगा। उसके अब्बू ने शर्तिया मुझे दो-तीन बार सक़ीना को घूरते हुए पकड़ा होगा। लगभग अस्सी को छूते अब्बू की आँखें चीरती-सी उतरती थी मेरे वजूद में। साज़िया के घर के उन गिनेचुने भ्रमणों में कई दफ़ा मुझे लगा कि अब्बू को मेरी असलियत पता है और इसी वजह से मैं बाहर बुलाने लगा था साज़िया को, जब भी कोई खास खबर होती। हाँ, अब्बू के हाथों की बेक की हुई केक को जरूर तरसता था खाने को। ये कश्मीरी कमबख्त केक बड़ी अच्छी बनाते हैं सब-के-सब।
"अपने अब्बू वाला एक केक तो ले आतीं आप साथ में" - मैंने उस अप्रत्याशित प्रणय-निवेदन को टालने की गरज से बातचीत का रूख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा।
"सक़ीना से निकाह रचा लो शब्बीर साब! अल्लाह आपको बरकतों से नवाज़ेगा और इंशाल्लाह एक दिन आप इस कैप्टेन से जेनरल बनोगे। फिर जी भर कर केक खाते रहना। अब्बू की वो पक्की शागिर्द है। ता-उम्र तुम्हें वैसा ही केक खिलाते रहेगी।" - वो मगर वहीं पे अड़ी थी।
मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिये सिगरेट सुलगा ली। विल्स क्लासिक का हर कश एक जमाने से मुझे ग़ालिब के शेरों सा मजा देता रहा है।
"कैसे मुसलमान हो? सिगरेट पीते हो? लेकिन फिर भी सक़ीना के लिये सब मंजूर है हमें।"- वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे सम्मोहित कर रही थी।
"थिंग्स आई डू फौर माय कंट्री"....जेम्स बांड बने हालिवुड-अभिनेता सौन कौनरी के उस प्रसिद्ध डायलाग को मन-ही-मन दोहरा कर मुस्कुराया मैं।
दोपहर ढ़लने को थी और मैं साज़िया की दी हुई महत्वपूर्ण खबर को लेकर अपने हेडक्वार्टर में लौटने को बेताब था। दो सरफिरों के उसके पड़ोस वाले घर में छूपे होने की खबर थी। देर शाम जब अपने हेडक्वार्टर लौटा, कमांडिंग आफिसर मेरी ही प्रतिक्षा में थे।
"बड़ी देर लगा दी, मोहित! साज़िया से इश्क-विश्क तो नहीं कर बैठे हो तुम?- बास छेड़ने के अंदाज में पूछते हैं।
"सुना है उसकी छोटी बहन बहुत सुंदर है?"
"बला की खूबसूरत, सर!"
"बाय दी वे, तुम्हारी पोस्टिंग आ गयी है। पुणे जा रहे हो तुम दो साल के लिये। खुश? योअर गर्ल-फ्रेंड इज देयर औनली, आई बिलिव!"- बास ने ये खबर सुनायी, तो खुशी से उछल ही पड़ा था मैं।
और उसी खुशी के जोश में साज़िया की खबर पर रात में एक सफल आपरेशन संपन्न हुआ।
"मेरी पोस्टिंग आ गयी है, साज़िया और अगले हफ़्ते मैं जा रहा हूँ यहाँ से।"- दूसरे दिन जब मैं साज़िया से मिलने और उस सफल आपरेशन के लिये कमांडिंग आफिसर की तरफ से विशेष उपहार लेकर गया तो उसे अपनी पोस्टिंग की खबर भी सुना दी। हमेशा सम्मोहित करती उन आँखों में एक विचित्र-सी उदासी थी।
"फिर कब आना होगा?"
"अरे, दो साल बाद तो यहीं लौटना है। ये वैली तो हमारी कर्मभूमि है।"
"अपना ख्याल रखना एंड बी इन टच"- आँखों की उदासी गहराती जा रही थी।
.................................................................................................................................................................
वर्ष 2003 का अगस्त महीना। वैली में वापसी। लगभग ढ़ाई सालों बाद मिल रहा था मैं साज़िया से। थोड़ी-सी दुबली हो गयी थी।
"अभी तक कैप्टेन के ही रैंक पर हो शब्बीर साब? अभी भी कहती हूँ, सक़ीना से निकाह रचा लो...देखो प्रोमोशन कैसे मिलता है फटाफट!"
"आप जानती हो, साज़िया। मैं किसी और से इश्क करता हूँ।"
"..तो क्या हुआ? तुम मर्दों को तो चार बीवियां लागु हैं।"- इन बीते वर्षों में उन आँखों का सम्मोहन अभी भी कम नहीं हुआ था।
जन्नत में मोबाईल का आगमन हो चुका था। मोबाईल सेट अभी भी मँहगे थे। किंतु साज़िया को सरकारी फंड से मोबाईल दिलवाना निहायत ही जरूरी था। सूचनाओं की आवाजाही तीव्र हो गयी थी और साज़िया को दिया हुआ मोबाईल हमारे लिये वरदान साबित हो रहा था। कुछ बड़े ही सफल आपरेशन हो पाये थे उस मोबाईल की बदौलत। सब कुछ लगभग वैसा ही थी इन ढ़ाई सालों के उपरांत भी। नहीं सब कुछ नहीं...अब्बू और बूढ़े हो चले थे...निगाहें उनकी और-और गहराईयों तक चीरती उतरती थी, जैसे सब जानती हो वो निगाहें मेरी असलियत के बारे में...उनका बेक किया हुआ केक और स्वादिष्ट हो गया था...और सक़ीना- बला से ऊपर भी कुछ होता है? मालूम नहीं। कुछ अजीब नजरों से देखती थी वो मुझे। ये मेरा अपराध-भाव से ग्रसित मन था या वो नजरें कुछ और कहना चाहती थीं? उसकी खूबसूरती यूं विवश तो करती थी मुझे उसे देर तक जी भर कर देखने को, किंतु खुद पर जबरदस्त नियंत्रण रख कर मन को समझाना पड़ता। कोई औचित्य नहीं बनता था एक ऐसी किसी संभावना को बढ़ावा देने का और वैसे भी पुणे में नेहा के रहते हुये ऐसी कोई संभावना थी भी नहीं इधर सक़ीना के साथ। ...किंतु अपनी छोटी बहन की तरफ से साज़िया का प्रणय-निवेदन बदस्तुर जारी था और जो हर खबर, हर सूचना के साथ अपनी तीव्रता बढ़ाये जा रहा था।
श्नैः-श्नैः बीतता वक्त। 2005 का साल अपने समापन पर था। एक और पोस्टिंग। वैली से फिर से कूच करने का समय आ गया था दो साल की इस फिल्ड पोस्टिंग के बाद उत्तरांचल की मनोरम पहाड़ियों में बसे रानीखेत में एक आराम और सकून के दिन गुजारने के लिये। वो दिसम्बर की धुंधली-सी शाम थी। डल लेक के गिर्द अपनी सर्पिली मोड़ों के साथ बलखाती हुई वो बुलेवर्ड रोड। साज़िया अपनी फूल-सी बिटिया रौशनी के साथ आयी थी मिलने। डेढ़ साल की रौशनी ने चेहरा अपने लापता बाप से लिया था, लेकिन आँखें वही साज़िया वाली।
"तो कब रचा रहे हो निकाह हमारी सक़ीना के साथ, शब्बीर साब?"- साज़िया रौशनी को मेरे गोद में देते हुये कहती है।
"देखो तो कितना मेल खाता है शब्बीर नाम सक़ीना के साथ। अब मान भी जाओ कैप्टेन!"- अजीब ठुनक के साथ कहा था उसने।
"मैं जा रहा हूँ। पोस्टिंग आ गयी है और आने वाले मार्च में शादी तय हो गयी है मेरी, साज़िया।" - इससे आगे और कुछ न कह पाया, जबकि सोच कर आया था कि आज सब सच बता दूँगा। उन आँखों के सम्मोहन ने सारे अल्फ़ाज़ अंदर रोक दिये।
"आओगे तो वापस इधर ही फिर से दो-ढ़ाई साल बाद। कर्मभूमि जो ठहरी ये तुम्हारी...है कि नहीं? - उदास आँखों से कहती है वो।
मैं बस हामी में सिर हिला कर रह जाता हूँ।
...............................................................................................................................................................
अप्रैल 2009| लगभग साढ़े तीन साल बाद वापसी हो रही थी इस बार अपनी कर्मभूमि पर। कितना कुछ बदल गया है वैली में। मैं खुश हूँ...हर घर में डिश टीवी, टाटा स्काई के गोल-चमकते डिस्क को लगे देख कर...सड़क पर दौड़ती सुंदर मँहगी कारों को देख कर...श्रीनगर में नये बनते माल्स, रेस्टोरेंट्स को देख कर। एक ऐसे ही आवारा-सी सोच का उन्वान बनता है कि इस जलती वैली में जो काम लड़खड़ाती राजनीति, हुक्मरानों की कमजोर इच्छा-शक्ति और राइफलों से उगलती गोलियां न कर पायीं, वो काम शायद आने वाले वर्षों में इन सैटेलाइट चैनलों पे आते स्प्लीट विला या एमटीवी रोडीज और इन जैसे अन्य रियालिटी शो कर दे....!!! शायद...!!! इस वर्तमान पीढ़ी को ही तो बदलने की दरकार है बस। पिछली पीढ़ी- साज़िया के साथ वाली पीढ़ी का लगभग सत्तर प्रतिशत तो आतंकवाद की सुलगती धूनि में होम हो गयी। इस पीढ़ी को बदलने की जरूरत है। इस पीढ़ी को नये जमाने की लत लगाने की जरूरत है। खूब खुश हो मुस्कुरा उठता हूँ मैं अपनी इस नायाब सोच पर। खुद को ही शाबासी देता हुआ अपने-आप से बोल पड़ता हूँ- "वाह, मेजर मोहित साब! तूने तो बैठे बिठाये इस बीस साल पुरानी समस्या का हल ढूंढ़ लिया..."।
लेकिन साज़िया का कहीं पता नहीं।
वो नंबर अब स्थायी रूप से सेवा में नहीं है।
उसका घर वीरान पड़ा हुआ है।
पास-पड़ोस को कुछ नहीं मालूम। या शायद मालूम है, मगर कोई बताना नहीं चाहता।
वैसे भी उस इलाके से बहुत दूर हूँ, तो बार-बार जाना भी संभव नहीं।
उससे मिलना चाहता हूँ।
दिखाना चाहता हूँ उसे प्रोमोशन के बाद मिला अपना मेजर का रैंक।
और बताना चाहता हूँ उसे अपना असली नाम............
"आप बड़े ही ज़हीन हो, कैप्टेन शब्बीर ! हमारी बहन से शादी कर लो...!" साज़िया के इन शब्दों को सुन कर कैसा चौंक उठा था मैं।
वो गुनगुनी धूप वाली सर्दियों की एक दोपहर थी। वर्ष 2000 का नवंबर महीना। तारीख ठीक से याद नहीं। जुम्मे का दिन था, इतना यकीनन कह सकता हूँ। श्रीनगर के इक़बाल पार्क में बना वो नया-नवेला कैफेटेरिया, साज़िया ने ही सुझाया था मिलने के लिये। हमारी पाँचवीं या छठी मुलाकात थी विगत डेढ़ साल से भी ऊपर के वक्फ़े में। वैसे भी ज्यादा मिलना-जुलना खतरे से खाली नहीं था- न मेरे लिये और न ही साज़िया के लिये। फोन पर ज्यादा बातें होती थी। ये उन दिनों की बात है, जब मोबाइल का पदार्पण धरती के इस कथित जन्नत में हुआ नहीं था।
उम्र में मुझसे तकरीबन आठ-नौ साल बड़ी और वजन में लगभग डेढ़ गुनी होने के बावजूद उसकी चेहरे की खूबसूरती का एक अपरिभाषित-सा रौब था। तीन बच्चों की माँ, साजिया अपने अब्बू और छोटी बहन सक़ीना के साथ श्रीनगर के डाउन-टाउन इलाके में रहती थी। माँ छोटी उम्र में गुजर चुकी थी। दो भाई थे...पिछले साल मारे गये थे हमारे ही एक आपरेशन में। जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही जेहाद का शौक चर्राया था। उस पार हो आये कुछ सरफिरों के साथ उठना-बैठना हो गया दोनों का और फिर नशा चढ़ गया हाथ में एके-47 को लिये घूमने का। नाम ठीक से याद नहीं आ रहा उनका- शायद शौकत और ज़लाल। वैसे भी आपरेशन में मारे जाने के बाद ये सरफिरे नाम वाले कहाँ रह जाते हैं। ये तो नम्बर में तब्दील हो जाते हैं गिनती रखने के लिये। साज़िया को सब मालूम था इस बाबत। लेकिन वो बिल्कुल सहज रहती थी इस बारे में। जिससे इश्क किया, वो भी शादी रचा कर और निशानी के रूप में दो बेटे और एक फूल-सी बेटी देकर उस पार चला गया। तीन साल पहले। कोई खबर नहीं। क्या पता, कोई गोली उसके नाम की भी चल चुकी हो। किंतु साज़िया इस बारे में भी कोई मुगालता नहीं रखती थी।
वो मेरे पे-रोल पर थी और समय-असमय महत्वपूर्ण सूचनायें देती थी। उस रोज भी हमारा मिलना किसी ऐसे ही खबर के सिलसिले में था। थोड़ी-सी घबरायी हुई थी वो, क्योंकि खबर उसके पड़ोसी के घर के बारे में थी। उसे सहज करने के लिये मैंने बातों का रूख जो मोड़ा, तो अचानक से अपनी बहन के लिये इस अनूठे प्रणय-निवेदन से हैरान कर दिया मुझे। तीन-चार बार जा चुका था उसके घर। साज़िया के अब्बू को मैं पसंद नहीं था, भले ही मेरी वजह से घर में रोटी आती हो। अपने जवान बेटों की मौत का जिम्मेदार जो मानते थे मुझे। सक़ीना को देखा था मैंने। उफ़्फ़्फ़! शायद "बला की खूबसूरत" जैसा कोई विशेषण उसे देख कर ही बनाया गया होगा। उसके अब्बू ने शर्तिया मुझे दो-तीन बार सक़ीना को घूरते हुए पकड़ा होगा। लगभग अस्सी को छूते अब्बू की आँखें चीरती-सी उतरती थी मेरे वजूद में। साज़िया के घर के उन गिनेचुने भ्रमणों में कई दफ़ा मुझे लगा कि अब्बू को मेरी असलियत पता है और इसी वजह से मैं बाहर बुलाने लगा था साज़िया को, जब भी कोई खास खबर होती। हाँ, अब्बू के हाथों की बेक की हुई केक को जरूर तरसता था खाने को। ये कश्मीरी कमबख्त केक बड़ी अच्छी बनाते हैं सब-के-सब।
"अपने अब्बू वाला एक केक तो ले आतीं आप साथ में" - मैंने उस अप्रत्याशित प्रणय-निवेदन को टालने की गरज से बातचीत का रूख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा।
"सक़ीना से निकाह रचा लो शब्बीर साब! अल्लाह आपको बरकतों से नवाज़ेगा और इंशाल्लाह एक दिन आप इस कैप्टेन से जेनरल बनोगे। फिर जी भर कर केक खाते रहना। अब्बू की वो पक्की शागिर्द है। ता-उम्र तुम्हें वैसा ही केक खिलाते रहेगी।" - वो मगर वहीं पे अड़ी थी।
मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिये सिगरेट सुलगा ली। विल्स क्लासिक का हर कश एक जमाने से मुझे ग़ालिब के शेरों सा मजा देता रहा है।
"कैसे मुसलमान हो? सिगरेट पीते हो? लेकिन फिर भी सक़ीना के लिये सब मंजूर है हमें।"- वो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे सम्मोहित कर रही थी।
"थिंग्स आई डू फौर माय कंट्री"....जेम्स बांड बने हालिवुड-अभिनेता सौन कौनरी के उस प्रसिद्ध डायलाग को मन-ही-मन दोहरा कर मुस्कुराया मैं।
दोपहर ढ़लने को थी और मैं साज़िया की दी हुई महत्वपूर्ण खबर को लेकर अपने हेडक्वार्टर में लौटने को बेताब था। दो सरफिरों के उसके पड़ोस वाले घर में छूपे होने की खबर थी। देर शाम जब अपने हेडक्वार्टर लौटा, कमांडिंग आफिसर मेरी ही प्रतिक्षा में थे।
"बड़ी देर लगा दी, मोहित! साज़िया से इश्क-विश्क तो नहीं कर बैठे हो तुम?- बास छेड़ने के अंदाज में पूछते हैं।
"सुना है उसकी छोटी बहन बहुत सुंदर है?"
"बला की खूबसूरत, सर!"
"बाय दी वे, तुम्हारी पोस्टिंग आ गयी है। पुणे जा रहे हो तुम दो साल के लिये। खुश? योअर गर्ल-फ्रेंड इज देयर औनली, आई बिलिव!"- बास ने ये खबर सुनायी, तो खुशी से उछल ही पड़ा था मैं।
और उसी खुशी के जोश में साज़िया की खबर पर रात में एक सफल आपरेशन संपन्न हुआ।
"मेरी पोस्टिंग आ गयी है, साज़िया और अगले हफ़्ते मैं जा रहा हूँ यहाँ से।"- दूसरे दिन जब मैं साज़िया से मिलने और उस सफल आपरेशन के लिये कमांडिंग आफिसर की तरफ से विशेष उपहार लेकर गया तो उसे अपनी पोस्टिंग की खबर भी सुना दी। हमेशा सम्मोहित करती उन आँखों में एक विचित्र-सी उदासी थी।
"फिर कब आना होगा?"
"अरे, दो साल बाद तो यहीं लौटना है। ये वैली तो हमारी कर्मभूमि है।"
"अपना ख्याल रखना एंड बी इन टच"- आँखों की उदासी गहराती जा रही थी।
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वर्ष 2003 का अगस्त महीना। वैली में वापसी। लगभग ढ़ाई सालों बाद मिल रहा था मैं साज़िया से। थोड़ी-सी दुबली हो गयी थी।
"अभी तक कैप्टेन के ही रैंक पर हो शब्बीर साब? अभी भी कहती हूँ, सक़ीना से निकाह रचा लो...देखो प्रोमोशन कैसे मिलता है फटाफट!"
"आप जानती हो, साज़िया। मैं किसी और से इश्क करता हूँ।"
"..तो क्या हुआ? तुम मर्दों को तो चार बीवियां लागु हैं।"- इन बीते वर्षों में उन आँखों का सम्मोहन अभी भी कम नहीं हुआ था।
जन्नत में मोबाईल का आगमन हो चुका था। मोबाईल सेट अभी भी मँहगे थे। किंतु साज़िया को सरकारी फंड से मोबाईल दिलवाना निहायत ही जरूरी था। सूचनाओं की आवाजाही तीव्र हो गयी थी और साज़िया को दिया हुआ मोबाईल हमारे लिये वरदान साबित हो रहा था। कुछ बड़े ही सफल आपरेशन हो पाये थे उस मोबाईल की बदौलत। सब कुछ लगभग वैसा ही थी इन ढ़ाई सालों के उपरांत भी। नहीं सब कुछ नहीं...अब्बू और बूढ़े हो चले थे...निगाहें उनकी और-और गहराईयों तक चीरती उतरती थी, जैसे सब जानती हो वो निगाहें मेरी असलियत के बारे में...उनका बेक किया हुआ केक और स्वादिष्ट हो गया था...और सक़ीना- बला से ऊपर भी कुछ होता है? मालूम नहीं। कुछ अजीब नजरों से देखती थी वो मुझे। ये मेरा अपराध-भाव से ग्रसित मन था या वो नजरें कुछ और कहना चाहती थीं? उसकी खूबसूरती यूं विवश तो करती थी मुझे उसे देर तक जी भर कर देखने को, किंतु खुद पर जबरदस्त नियंत्रण रख कर मन को समझाना पड़ता। कोई औचित्य नहीं बनता था एक ऐसी किसी संभावना को बढ़ावा देने का और वैसे भी पुणे में नेहा के रहते हुये ऐसी कोई संभावना थी भी नहीं इधर सक़ीना के साथ। ...किंतु अपनी छोटी बहन की तरफ से साज़िया का प्रणय-निवेदन बदस्तुर जारी था और जो हर खबर, हर सूचना के साथ अपनी तीव्रता बढ़ाये जा रहा था।
श्नैः-श्नैः बीतता वक्त। 2005 का साल अपने समापन पर था। एक और पोस्टिंग। वैली से फिर से कूच करने का समय आ गया था दो साल की इस फिल्ड पोस्टिंग के बाद उत्तरांचल की मनोरम पहाड़ियों में बसे रानीखेत में एक आराम और सकून के दिन गुजारने के लिये। वो दिसम्बर की धुंधली-सी शाम थी। डल लेक के गिर्द अपनी सर्पिली मोड़ों के साथ बलखाती हुई वो बुलेवर्ड रोड। साज़िया अपनी फूल-सी बिटिया रौशनी के साथ आयी थी मिलने। डेढ़ साल की रौशनी ने चेहरा अपने लापता बाप से लिया था, लेकिन आँखें वही साज़िया वाली।
"तो कब रचा रहे हो निकाह हमारी सक़ीना के साथ, शब्बीर साब?"- साज़िया रौशनी को मेरे गोद में देते हुये कहती है।
"देखो तो कितना मेल खाता है शब्बीर नाम सक़ीना के साथ। अब मान भी जाओ कैप्टेन!"- अजीब ठुनक के साथ कहा था उसने।
"मैं जा रहा हूँ। पोस्टिंग आ गयी है और आने वाले मार्च में शादी तय हो गयी है मेरी, साज़िया।" - इससे आगे और कुछ न कह पाया, जबकि सोच कर आया था कि आज सब सच बता दूँगा। उन आँखों के सम्मोहन ने सारे अल्फ़ाज़ अंदर रोक दिये।
"आओगे तो वापस इधर ही फिर से दो-ढ़ाई साल बाद। कर्मभूमि जो ठहरी ये तुम्हारी...है कि नहीं? - उदास आँखों से कहती है वो।
मैं बस हामी में सिर हिला कर रह जाता हूँ।
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अप्रैल 2009| लगभग साढ़े तीन साल बाद वापसी हो रही थी इस बार अपनी कर्मभूमि पर। कितना कुछ बदल गया है वैली में। मैं खुश हूँ...हर घर में डिश टीवी, टाटा स्काई के गोल-चमकते डिस्क को लगे देख कर...सड़क पर दौड़ती सुंदर मँहगी कारों को देख कर...श्रीनगर में नये बनते माल्स, रेस्टोरेंट्स को देख कर। एक ऐसे ही आवारा-सी सोच का उन्वान बनता है कि इस जलती वैली में जो काम लड़खड़ाती राजनीति, हुक्मरानों की कमजोर इच्छा-शक्ति और राइफलों से उगलती गोलियां न कर पायीं, वो काम शायद आने वाले वर्षों में इन सैटेलाइट चैनलों पे आते स्प्लीट विला या एमटीवी रोडीज और इन जैसे अन्य रियालिटी शो कर दे....!!! शायद...!!! इस वर्तमान पीढ़ी को ही तो बदलने की दरकार है बस। पिछली पीढ़ी- साज़िया के साथ वाली पीढ़ी का लगभग सत्तर प्रतिशत तो आतंकवाद की सुलगती धूनि में होम हो गयी। इस पीढ़ी को बदलने की जरूरत है। इस पीढ़ी को नये जमाने की लत लगाने की जरूरत है। खूब खुश हो मुस्कुरा उठता हूँ मैं अपनी इस नायाब सोच पर। खुद को ही शाबासी देता हुआ अपने-आप से बोल पड़ता हूँ- "वाह, मेजर मोहित साब! तूने तो बैठे बिठाये इस बीस साल पुरानी समस्या का हल ढूंढ़ लिया..."।
लेकिन साज़िया का कहीं पता नहीं।
वो नंबर अब स्थायी रूप से सेवा में नहीं है।
उसका घर वीरान पड़ा हुआ है।
पास-पड़ोस को कुछ नहीं मालूम। या शायद मालूम है, मगर कोई बताना नहीं चाहता।
वैसे भी उस इलाके से बहुत दूर हूँ, तो बार-बार जाना भी संभव नहीं।
उससे मिलना चाहता हूँ।
दिखाना चाहता हूँ उसे प्रोमोशन के बाद मिला अपना मेजर का रैंक।
और बताना चाहता हूँ उसे अपना असली नाम............
aapkee ardhanginee ne is post ko dekh liya.....
ReplyDeletebahut umda lekh, padhta hi chala gaya, all d best.
ReplyDeleteओह्ह!! मैं तो डूब ही गया..शैफाली और उस सी प्यारी शुभचिन्तक महिला मित्रों की चिन्ता को इस गहन भावना के समुन्दर में कोई भी मर्द प्रवाहित कर दे...मैं तो बहुत छोटा मोहरा हूँ इस दर्शन में जीवन के.. :)
ReplyDeleteक्या बह कर लिखते हो मित्र...जीवनकाल में मिलने की अभिलाषा दृढतर होती जा रही है..मदद करना मेरी अभिलाषापूर्ति में मेरी.
आपकी ये कहानी बता रही है कि इसमें जो पात्र हैं वो सब असल पात्र हैं कृपया बहूरानी का ईमेल पता बतायें ताकि आपकी कारगुजारियां मेल की जा सकें कि आप वहां किसी सकीना के चक्कर में गये हैं ।
ReplyDeleteऐसा लगा जैसे कर्नल रंजीत का कोई उपन्यास पढ रहा हूं मगर ह्क़ीक़त से भरा. इस पोस्ट को दो रूपों में देखा मैंने- पहला, सेना की कार्यप्रणाली कितनी हैरतंगेज़,ख़तरनाक और चुनौतियों से भरी हुई. दूसरा आपके गद्य लेखन का मार्वलस नमूना.
ReplyDeleteदोनों ही ईर्ष्या करने के लिये पर्याप्त हैं. ईश्वर/अल्लाह से से दुआ मांगता हूं कि शब्बीर साब और गौतम भाई दोनों अपने-अपने काम को यूं ही श्रेष्ठ्ता के साथ अंज़ाम देते रहें.
bahut achha...ek kahaani se badhke kuchh hai ye...aur haan,jaisa label aapne lagayaa hai,maine bi 1- baar lagya tha jab apne kisi anubhav ko ek kahanai ke roop me pesh kiyaa tha...isliye kya pataa... :)
ReplyDeleteवाह क्या अंदाज है .....पहली बार टिपिया रहा हूँ पर फीड पर पढ़ रहा हूँ कुछ समय से !!
ReplyDeleteहिन्दी चिट्ठाकारों का आर्थिक सर्वेक्षण : परिणामो पर एक नजर
तारीफ़ के लिये शब्द नही है मेरे पास्।
ReplyDeleteकहानी एक संस्मरण की तरह लिखी गयी है.अंत तक बांधे रखती है..अंत में मालूम होता है कि यह [शायद]आप की अपनी व्यथा कथा है..[वैसे आप ने लेबल में लिख तो दिया है कि वास्तविकता से मेल खाना महज संयोग है]
ReplyDeleteफिर भी अपने भावों में बहाती हुई यह कहानी पाठक को उत्सुक करती है यह जानने के लिए कि क्या पड़ोसियों को मालूम है कि शाजिया कहाँ है?अगर हाँ..तो क्या यह राज़ वे major साहब को बतायेंगे?इस कहानी का अगला भाग भी लिखिये...
अद्भुत...! जीवन ऐसा ही है..! कभी कभी कुछ हक़ीकतें ऐसी भी होती हैं जिन पर खुद सोचना पड़ता है कि ऊपर वाला हमें पात्र बना कर ये कौन सी कहानी लिख रहा है। या फिर हर कहानी के पीछे कोई हक़ीकत ही होती है। डूबती चली गई..!
ReplyDeleteअब एक महिला होने के कारण ऐसा लग रहा है कि ये कहानी रंजीता भाभी को बताने की ज़रूरत हमें नही है, जो शख्स हम जैसे अंजान रिश्तों मे ये बात बाँट रहा है, उसने अपनी जीवन साथी से तो ये बात कब की शेयर कर ली होगी और हम महिलाएं इतनी भी ईर्ष्यालु नही होतीं कि पेशे की आवश्यकता और सहज रिश्तों को समझ ना सकें। शायद उन्हे उस लड़की के लिये कष्ट होता होगा और पति की स्थिति पर दुःख, जिसे ना चाहते हुए भी राष्ट्र के कारण कुछ ऐसा करना पड़ रहा है, जो उसकी फितरत में नही है।
कुछ लोग कुछ भी लिखें बहुत देर तक मन उसमें डूबता उतराता रहता है, शायद इसलिये क्योंकि वो जो कुछ लिखते हैँ मन की गहराइयों से लिखते हैं....!I'm always proud of you Veer Ji...!
वाह किस अंदाज़ से किस खूबसूरती से इस वाकया को आपने पेश किया है कि सच ही लग रहा है यह कहानी तो नहीं :) एक सांस में पढ़ा इसको ..आपकी हमसफ़र भी जरुर इस से वाकिफ होंगी ..यह बात सही कही न :) पर लगता है की साजिया की आँखों का सम्मोहन याद रहेगा आपको ..कुछ चीजे ज़िन्दगी से भुलाई नहीं जा सकती चाहते हुए भी .
ReplyDeleteआपकी कलम का जादू सर चढ़ कर बोला है इस बार भी...बेहद खूबसूरत लिखा है आपने...बेमिसाल रवानी रक्खी है आपने..
ReplyDeleteनीरज
अभी थोडी देर पहले कंचन जी से बात हो रही थी तो उन्होने बताया कि आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है तो रहा नही गया, और दोडा चला आया। यहाँ पढते हुए एक रो में बहता चला गया। जब किनारे पर आया तो ऐसा लगा कि मैं किनारे पर क्यों आ गया। फिर सोचने लगा जिदंगी भी क्या क्या रंग देखाती है। और एक फोजी को क्या क्या करना पडता ये भी जाना। सच आपकी लेखनी अपने बहा ले जाती है।
ReplyDeletebahut achha laga......zindagi jaane kin-kin raahon se gujarti hai aur yaadon ka ek lamha de jaati hai
ReplyDeleteवाह......मेजर साहब..............इतनी लाजवाब......खो गया पढ़ते हुवे........आपका चेहरा सामने घूम गया......कुछ पल को लगा कितना सजीव है सब कुछ .........फिर अंत में जब नोट पढा..........: कहानी- पात्रों का वास्तविक जिंदगी से मेल खाना महज एक संयोग हो सकता है............ तब जागा..........आपने तो कमाल कर दिया...........इस रंग से वाकिफ नहीं थे हम.........पर बहुत बहुत बहुत ही खूबसूरत लिखा है, चुस्त, कासी हुयी कहानी.............सलाम है आपको
ReplyDeleteकहानी ने अंत तक बांधे रखा पर मुझे तो कहीं काली दाल या क्या कहते हैं दाल मे कुछ काला पीला दिखाई देरहा है. लेबल से भी तसल्ली नही हो रही. अगले भाग मे सफ़ाई दी जाये, तो अच्छा रहेगा.:)
ReplyDeleteबेहद चुस्त लेखन.
रामराम.
शब्बीर जी ,
ReplyDeleteउफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़ ...!!
लाजवाब लेखन......!!!!
पर मेरा तो दिल बैठा जा रहा है उस सुंदरी के लिए ....काश वो हमारे मेजर साहब को एक मिल जाती ....वो अपना नाम बता पाते...पर आपका ये आशिकाना रूप बहुत पसंद आया ....ढूंढते रहिएगा ...शायद मिल जाये ......!!
वैसे आजकल मौसम कुछ आशिकाना ही चल रहा है ...उधर मुफलिस जी की ' मिट्ठू जान ' , मनु जी की भी नज़र बवाल कर रही है आजकल .....बहुत खूब....!!
हाँ किस नुमाइंदे को भेजना चाहते है नाम पता ,फोन दे दें मैं फोन कर बुला लुंगी .....!!
गौतम जी बहुत सुंदर कहानी है। बहुत दिनों बाद ऐसी कहानी पढ़ने को मिली है।
ReplyDeleteज्यादा नहीं, डूब कर पढ़ा । निश्चय ही संगमरमरी गद्य । आभार ।
ReplyDeleteबहुत गहरे छू गयी आपकी यह कहानी.....
ReplyDeleteअपने में पूरी तरह डुबो गयी.......
लाजवाब लिखा है आपने....बहुत ही सुन्दर....
aap chahe likhe ki kahani ka vastvikta se koi lena dena nahi.. lekin kahani ka prawah dekh kar. bhawnaye dekh kar.. to yahi lagta hai ki ye sachchi ghatna hai .. aur aapne ise bahut dil se likha hai..
ReplyDeletesabse jayada prabhavit kahani tabhi karti hai ..jab wah aapko sochne ko majboor kar de.. aapke jehan me wo bas jaaye. aur kahani ki antim line.. vakai is baat per khari utarti hai..
संयोग का तो पता नहीं लेकिन सहज ही बांधे रखती है ये कहानी. हम तो सत्य कथा ही मानेंगे इसे भले ही आप कितना भी नकार लो.
ReplyDeleteखुदा कसम.....मेरी जान मेजर.....
ReplyDeleteआज पहला ब्लॉग कंचन का खोला वहां से यहाँ पहुंचा.....ओर कसम से डूब गया ...सकीना को जैसे हाथ के फासले से महसूस किया.....तुम ऊपर इसके शीर्षक पे कहानी नहीं लिखते तो ...अच्छा लगता ....अच्छे किस्सा गोई है आप....जानते है हमने दोनों बहनों की एक तस्वीर भी बना ली है......सोचते है आप को भेंजे शायद सूरत मिलती हो......
वाह... सुंदर कहानी के लिये केवल बधाई देकर काम चलाने को दिल नहीं कर रहा. आपकी संवेदी प्रतिभा को नमन.
ReplyDeleteउफ्फ्फ्फ्फ्फ गौतम भाई, क्या खूब कही है आपने सस्मरण में ..और ऊपर से ये शब्बीर मियाँ... कमाल की बात एक शे'र याद आया इस पुरे लेख पे ....
ReplyDeleteना जी भर के देखा ना कुछ बात की ...
बड़ी आरजू थी मुलाक़ात की ...
वो सकीना तो जैसे मेरे सामने हो और उसकी बड़ी बड़ी आँखे मुझे भी सम्मोहित कर रही हो... बस डूबता चला गया.... ढेरो बधाई साहिब... और आज आपसे फिर बात करके दिल को हार्दिक ख़ुशी हुई....
आपका
अर्श
kuch ese fasaano me khoya he chaand
ReplyDeleteapni roshni se bekhabar hoke..../
waah, smartiya agar khoobsoorat ho to unhe jehan me utarne ka bhi apna ek mazaa hota he/
vo fir mile aour...ateet jinda hoke asliyat par khatm ho///
mashaallah aapki lekhni aour sansmarno ki fehrist vakai dilchasp hoti he/
संस्मरण के माध्यम से कहानी कहना जो बिलकुल सच लगने लगे ,कहानीकार के " सिद्ध " होने का प्रमाण है और गौतम जी आप इसमें अत्यंत सफल रहे हैं ,बधाई स्वीकारें ,वैसे भी सत्य संस्मरण भी तो एक अरसे के बाद कहानी ही है !
ReplyDeleteकुछ कहते नहीं बन रहा। सब अपनी अपनी जगह सही हैं किन्तु परिणाम सही नहीं हो पाते। हर पात्र विवश है। अपने किरदार को निभाने को विवश है। यदि यह सच है तो बहुत कड़ुवा सच है,यदि कल्पना है तो गजब की कल्पना है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बेहद खूबसूरत.. एक पल को लगा घाटी में ही पहुंच गई हूं। इस प्लॉट पर तो एक बेहतरीन फिल्म बनाई जा सकती है। खुशनसीब हैं आपकी ज़िदंगी में ऐसी कहानियां है सुनाने या पढ़वाने के लिया वर्ना कहां ज़िदंगी में आजकल ज़िंदादिली देखने को मिलती है।
ReplyDeleteमेजर को जोरदार सलाम,,,,,,,,,,!!!!!!!!!
ReplyDeleteजितना समझा था अब तक ,,उस से बहुत बहुत ऊंची शख्सियत हैं आप,,,,!!!!!
अभी "चाय वाली" से लम्बी बात हुयी ,,,,,,,
हमें आप पर जो नाज़ है वो कुछ गलत नहीं है,,,
"प्रेम पर्बत " फिल्म का लतादी का गाया गीत याद आ गया,
ReplyDelete"ये दिल और उनकी, निगाहोँ के साये,
मुझे घेर लेते, हैँ बाँहोँ के साये "
बहुत अच्छी लगी आपकी कहानी
:-)
- लावण्या
गौतम जी,
ReplyDeleteहिन्द-युग्म पर आपकी की हुई टिप्पणियों और अमिताभ के ब्लॉग पर से यहाँ आना हुआ।
पहली ही नज़र में अफ्सोस यह था कि मुझे पहले ही आना चाहिये था।
कहानी किसी घटना क्रम के विवरण सी लगती है काल्पनिक हो ही नही सकती। यदि यह सच है तो मेजर साहब से दरख्वास्त है कि साजिया के सच बता किसी भी तरीके से नही बताना चाहिये। मोहब्बत में कुछ बातें अगर नही साफ की जाये तो पाकिजगी बनी रहती है।
बहुत अच्छी कहानी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
shazia kabhi mile bhi to apna naam mat bataiyega....kuchh cheezen waise hi rehne deni chahiye....pardanasheen...
ReplyDeletebahut achchha likhte hain aap....!!!
raajrishi ji sab se pahle to aapka bahut bahut dhanyvad aap ne arsh ke liye comment dia vo mera beta hai us se jo bhi piar karta hai mujhe baht achha lagta hai mai jara blogging me anjan hoon is liye apke blod par nahin pahunch paaye kabhi pata nahi kyon vese army valon ke liye to mai sada natmastak rehati hoon fir arsh se apke bare me jana to bahut achha laga aur khushi hui apki kahani ke liye comment karoon itani meri kalam sashakt nahin hai apko aur apki kalam ko mera slam shubhkamnaye
ReplyDeleteइस छोटी सी कहानी में बहुत दम है - लिखते रहो.
ReplyDelete[वैसे टिप्पणियाँ भी कोई कम रोचक नहीं हैं ;)]
नमस्कार गौतम जी,
ReplyDeleteक्या रवानी है आपके लेखन में, एक गुजारिश है आप नोवेल या कहानी संग्रह लिखे वैसे मैं बहुत छोटा हूँ आपको ये कहने के लिए मगर माफ़ करियेगा. मैं एक पाठक के तौर पे आपके इस हुनर को गहराई से जानना चाहता हूँ.
bhut khubsurat khani aur utna hi khubsurat andaj .apki lekhni me jadu hai jo barbas pathak ko akrshit karta hai
ReplyDeletebdhai
बेहद सुंदर लम्हों से मुलाकात कराइ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है....
ऐसे जैसे किसी के जिंदगी के कुछ टूटे हुए हिस्से...
मीत
दिल में उतर गयी आपकी कहानी। बधाई।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
is kahani main kai baaton ke aalawa jo sabse acchi baat lagi wo that wahan(kashmir) ka experience.
ReplyDeleteBhagwan kare ki sazia theek hoon. aur apki unse mulaquat ho jaie. aur unki behan ka bhi nikah ho gaya hoga ab to...
"विल्स क्लासिक का हर कश एक जमाने से मुझे ग़ालिब के शेरों सा मजा देता रहा है । "
lagta hai bahut kuch milta hai apke aur hamare beech.
ab beshq gale ki kharabi ke karan milds aur ultra milds main utar gaya hoon....
...apse milne ki dilli iccha hai gautam ji !!
:)
Sir ji ultimate...superb...kya andaze bayan hai ...aur woh wills classic ....
ReplyDeleteहूँ ! अहसास से गुजर रही है कहानी ! मगर ये शराब और सिगरेट का घटक मेल !! यदि माहौल के अनुरूप और प्रतीक तौर पर है तभी स्वीकार्य है !
ReplyDeleteमेजर साब! कहानी...कहानी या हकीकत! जो भी हो, है तो बेहद प्रभावी। रोचकता अंत तक बरकरार। इसकी दूसरी किश्त भी लिखिये।
ReplyDeleteजितने दिल हैं उतनी ही दुआएं होंगी आपकी इस कहानी के लिए जो नहीं पहुंची उन को भी शामिल मानें.
ReplyDeleteआगाज़ पढ़ते ही, रुक गया और पहला फैसला किया कि इसको अभी नहीं पढ़ना है जब मैं दुनियादारी के फंदों से जकड़ा हूँ फिर कुछ दिन और लग गए ... फिर कुछ समय और ....
आज इसे पढ़ा है
उस नाम से क्या वास्ता है, जिस रूह को जाना था, जिसकी पेशानी के नूर में कई पल चमकते थे वे ही हासिल थे,ये मन भी खूब है जिसे चाहता है उसको सब सच बताये बिना सुकून नहीं पाता, उस शब्बीर का होना ही सब कुछ था क्यों अपने उस किरदार से दूर होना चाहते हैं जिसने नम होठों को कई बार मुस्कराहट दी होगी. वे सच में मुहब्बत के पल थे अपनी ज़मी से और उसके लिए अपने होने से.
मुझे इससे कोई गरज नहीं कि कहानी में कल्पना की हिस्सेदारी कितनी हैं? मुझे उसके उन्वान से भी ज्यादा निस्बत नहीं है, बस आपने जो और जिस तरह पेश किया है मेरी उम्मीदों के आस पास ही नहीं उनसे भी आगे है.
बेहद खूबसूरत लिखा है आपने...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआजकल ज़रा ज़्यादा व्यस्त हो गई हूँ शायद। समय पर टिप्पणी नहीं दे पा रही। पर देर से आ कर भी देखा, कि तुम्हारे कलम ने जादू कर रखा है यहाँ। वाह! गौतम, क्या लिखते हो। कहानी लिखने का प्रयास करो और, बहुत कामयाब होगे। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत लेख जो दिल को छू गई!
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