28 December 2013

कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन...उफ़

बूढ़े साल की आखिरी सांसें सर्दी की जवान रातों को तनिक और बेरहम बना रही हैं...और पहाड़ों का पूरा कुनबा बर्फ की सफ़ेद शॉल ओढ़कर उम्रभर के लिए जैसे समाधिस्थ हो गया है...तो ऐसे में एक ठिठुरी हुई ग़ज़ल :-    

ठिठुरी रातें, टीन का छप्पर, दीवारों की सीलन...उफ़
और दिसम्बर ज़ालिम उस पर फुफकारे है सन-सन ...उफ़

दरवाजे पर दस्तक देकर बात नहीं जब बन पायी
खिड़की की छोटी झिर्री से झाँके है अब सिहरन...उफ़

छत पर ठाठ से पसरा पाला शब भर खिच-खिच शोर करे
सुब्ह को नीचे आए फिसल कर, गीला-गीला आँगन...उफ़

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन...उफ़

ठंढ के मारे सिकुड़े-सिकुड़े लोग चलें ऐसे जैसे
सिमटी-सिमटी शरमायी-सी नई-नवेली दुल्हन...उफ़

हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन...उफ़

जैकेट-मफ़लर पहने महलों की किलकारी सुन-सुन कर
चिथड़े में लिपटा झुग्गी का थर-थर काँपे बचपन...उफ़

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन...उफ़
{त्रैमासिक 'अनंतिम' के अक्टूबर-दिसम्बर 2013 अंक में प्रकाशित} 


06 December 2013

ऊँगली छुई थी चाय का कप थामते हुये...

मेरी ऐं वें सी एक ग़ज़ल को अर्चना चावजी ने अपना मखमली स्वर देकर कुछ खास ही बना दिया था अभी कुछ दिनों पहले ही तो...तो पहले वो ग़ज़ल, फिर अर्चना जी की आवाज़ :-

करवट बदल-बदल के ही, आँखों में ही सही
कमबख़्त रात ये भी गुज़र जायेगी सही
उट्ठी हैं हिचकियाँ जो बिना बात यक-ब-यक
तो सोचता है मुझको कोई.. वाक़ई… सही
ऊँगली छुई थी चाय का कप थामते हुये
दिल तो गया ही, जान भी निकली रही-सही
तौहीन बादलों की ज़रा हो गई तो क्या
निकला तो आफ़ताब दिनों बाद ही सही
छूटी गली जो उसकी तो अफ़सोस क्या करें
रास आ रही है क़दमों को आवारगी सही
दिन-रात कितनी सीटी बजाऊँ, तुम्हीं कहो
आओ भी बालकोनी में ख़ुद …सरसरी, सही
भूल आपको गये, न किया फ़ोन हमने गर ?
‘अच्छा ये आप समझे हैं ! अच्छा यही सही’
तारें उदास बैठे हैं अम्बर की गोद में
अब आ भी जा ऐ चाँद ! कि हो तीरगी सही
आयी अभी तलक न वो, ऐ यार क्या करूँ
सिगरेट ही पिला दे ज़रा अधफुंकी सही
सब कुछ सही, इस उम्र का अंदाज़ ऐसा है
वहशत सही, जुनूँ सही, दीवानगी सही