बूढ़े साल की आखिरी सांसें सर्दी की जवान रातों को तनिक और बेरहम बना रही हैं...और पहाड़ों का पूरा कुनबा बर्फ की सफ़ेद शॉल ओढ़कर उम्रभर के लिए जैसे समाधिस्थ हो गया है...तो ऐसे में एक ठिठुरी हुई ग़ज़ल :-
ठिठुरी रातें, टीन का छप्पर, दीवारों की सीलन...उफ़
और दिसम्बर ज़ालिम उस पर फुफकारे है सन-सन ...उफ़
दरवाजे पर दस्तक देकर बात नहीं जब बन पायी
छत पर ठाठ से पसरा पाला शब भर खिच-खिच शोर करे
सुब्ह को नीचे आए फिसल कर, गीला-गीला आँगन...उफ़
बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन...उफ़
ठंढ के मारे सिकुड़े-सिकुड़े लोग चलें ऐसे जैसे
सिमटी-सिमटी शरमायी-सी नई-नवेली दुल्हन...उफ़
हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन...उफ़
जैकेट-मफ़लर पहने महलों की किलकारी सुन-सुन कर
चिथड़े में लिपटा झुग्गी का थर-थर काँपे बचपन...उफ़
पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन...उफ़
{त्रैमासिक 'अनंतिम' के अक्टूबर-दिसम्बर 2013 अंक में प्रकाशित}