हुश्श्श्श्श...घूमता पहिया समय का और देखते-ही-देखते पाँच साल हो गये ब्लोगिंग करते हुये...यू हू हू sss !!! तो "पाल ले इक रोग नादां..." की इस पाँचवीं सालगिरह पर सुनिये एक ग़ज़ल :-
इक ज़िद्दी-सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में
अक्सर शोर मचाता है मन के सूने गलियारे में
आता-जाता हर कोई अब देखे मुझको मुड़-मुड़ कर
सूरत तेरी दिखने लगी क्या, तेरे इस बेचारे में ?
बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर
ऐसा लगा तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में
हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी ग़ुब्बारे में
यूँ तो लौट गई थी उस दिन तुम घर के चौखट से ही
ख़ुश्बू एक अभी तक बिखरी है आँगन-ओसारे में
ज़िक्र करे या फ़िक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में
सुर तो छेड़ा हर धुन पर, हर साज पे गाकर देख लिया
राग मगर अपना पाया बस तेरे ही इकतारे में
{वर्तमान साहित्य के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित }
इक ज़िद्दी-सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में
अक्सर शोर मचाता है मन के सूने गलियारे में
आता-जाता हर कोई अब देखे मुझको मुड़-मुड़ कर
सूरत तेरी दिखने लगी क्या, तेरे इस बेचारे में ?
बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर
ऐसा लगा तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में
हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी ग़ुब्बारे में
यूँ तो लौट गई थी उस दिन तुम घर के चौखट से ही
ख़ुश्बू एक अभी तक बिखरी है आँगन-ओसारे में
ज़िक्र करे या फ़िक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में
सुर तो छेड़ा हर धुन पर, हर साज पे गाकर देख लिया
राग मगर अपना पाया बस तेरे ही इकतारे में
{वर्तमान साहित्य के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित }