05 May 2015

सुनो राजस्थान !

...कि थोड़ी देर और जो चलती रही ये जीप तो इसके रबर के टायर शर्तिया पिघल जाएँगे इन रेतों में ! कितने निष्ठुर हो तुम, लेकिन फिर भी कितने अपने से | ...कि इन खिसकते हुये सैंड-ड्यून्स की सिंफनी दूर उस झेलम की तलहट्टियों में बजते संतूर से कहीं ज़्यादा मधुर धुन सुनाती हैं... 

सुनो राजस्थान !
जब भी चाहा मैंने तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ

तुम्हारे रेत के तपते टीलों पर पिघल कर
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुयीं
मेरे नक्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें

हरदम ही तो गुम हुआ है
मेरे कम्पास का उत्तर रुख

सुस्ताने को दिया नहीं कभी
तुम्हारे नागफनी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे

मेरों जूतों के तसमों को वैसे भी
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से

सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व

यक़ीन मानो, हारोगे !
रहने दो इस 
द्वंद्व के एलान को

मानता हूँ कि
बर्फ़ के बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुलमिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी

सुनो, तुम तो मेरे ही हो
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
की थी अपनी पहली शिनाख़्त

बनाना है उसे भी अपना
तुम्हारी तरह ही

उसे गुमान है अपने हुस्न पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुब्ह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर

है थोड़ा सा खफ़ा बेशक़

जीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम
ऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
जीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार 

आऊँगा इक रोज़ वापस
ख़ुद को भुलाने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिये बस
तुम्हारा सकून भरा
गर्म आगोश

लगाओगे ना गले
आऊँगा जब भी वापस ?