17 February 2021

किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

 

थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैं

किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

 

दीवारों सी फ़ितरत मिली है मुझे भी

कि रह कर भी घर में न रहता हुआ मैं

 

धुआँ है या शोला, जो दिखता ग़ज़ल में

सुलगती कहानी है...कहता हुआ मैं

 

उधर हैं वो आँखें...इधर कोई दरिया

यहाँ से वहाँ तक...हूँ बहता हुआ मैं

 

नये ज़ख़्म दो अब कि ऊबा हुआ हूँ

पुराने को कब से ही सहता हुआ मैं




08 February 2021

मल्लिका - मनीषा कुलश्रेष्ठ

 पौ फटते ही कुहासे को चीर कर आती हुई ठाकुरद्वारे की घंटी की मद्धम सी आवाज़ जैसे गलियों से गुज़रती हुई घर की ड्योढ़ी तक पहुँचती है और अपनी पवित्र गूंज से सुबह होने का ऐलान करती है हर रोज़, ‘मल्लिका’ कुछ यूँ ही खुलती है पन्ना-दर-पन्ना मेरे पाठक-मन की तलहटी में…और एक बार खुलती है तो कुछ इस क़दर अपने बाहुपाश में जकड़ लेती है कि विवश सा मेरा पाठक ‘ज्यू’(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) को पदस्थापित कर ख़ुद को वहाँ देखने की ललक से भर उठता है| जाने ये लेखिका की भाषा का जादू है या अपनी समग्रता में बनारस और बंगाल के स्वाद को एक साथ समेटते हुए इस उपन्यास द्वारा घोला गया अद्भुत कॉकटेल या…या फिर स्वयं मल्लिका के किरदार का सम्मोहन ही, सालों बाद ऐसा हुआ है कि किसी किताब को पढ़ने के पश्चात इतने अरसे तक इसके जादू-स्वाद-सम्मोहन में कुनमुनाता हुआ मेरा पाठक इसके पन्नों में ही सिमटा रहना चाहता है|

कौन थी मल्लिका? हिन्दी साहित्य के सिरमौर, एक विराट व्यक्तित्व की प्रेयसी भर? या उस से हटकर कुछ और भी? उपन्यास के प्राक्कथन में ही लेखिका की दुविधा स्पष्ट होती है कि जिस किरदार के जन्म, मृत्य, आरम्भ और अंत का ही कुछ अता-पता नहीं था और जिसके बारे में उठती तमाम जिज्ञासा यत्र-तत्र-सर्वत्र उस विराट व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमते जवाबों तक ही सिमट कर रह जाती है…ऐसे में एक बस गल्प का ही सहारा शेष बचता था लेखिका के पास इस गुमनाम से किरदार को पन्नों पर साकार करने के लिए| कितनी मुश्किल हुई होगी लेखिका को भारतेन्दु के बरगदी फैलाव की छाँव से बचाकर भी मल्लिका की नन्हीं पौध को इतनी ख़ूबसूरती से सींचते हुए और उसे रोप कर पुष्पित करते हुए…!  उपन्यास के लगभग एक सौ साठ पन्नों में वैसे कई बार आप पायेंगे लेखिका को ख़ुद भी भारतेन्दु के मोहपाश में बंधते हुए, लेकिन ये कहीं-न-कहीं से मल्लिका के किरदार को जैसे आत्मसात करना ही है…और लेखिका का अपने किरदार से ये आत्मिक मिलाप हमें रूबरू करवाता है प्राचीन बंगाल की समृद्ध साहित्यिक परम्परा से, तत्कालीन बनारस की सुगंध और दुर्गन्ध से, बाल-विवाह की टीस मारती चुभन से, वैधव्य का असह्य बोझ उठाये फिरती स्त्रियों की व्यथा से, साहित्य रचना की पेचीदा बुनाइयों से, कविता से, छंद से और प्रेम के अविश्वसनीय विस्तार से| उपन्यास का फ़लक इतना विस्तृत है कि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे ‘लिजेंड’ भी ‘गेस्ट-अपियरेंस’ में विचरते दृष्टिगोचर होते हैं|

शब्द-शब्द और एक-एक पन्ने से उभरते हुए अपने कसे हुए शिल्प और अप्रतिम भाषाई सुन्दरता पर इतराती हुई यह किताब, चार उपन्यास(शिगाफ़, पंचकन्या, शालभंजिका, स्वप्नपाश) और सात कहानी-संग्रहों(बौनी होती परछाई, कुछ भी तो रूमानी नहीं, कठपुतलियाँ, केयर ऑफ़ स्वातघाटी, गंधर्व गाथा, अनामा, किरदार) के बाद एकदम से मनीषा कुलश्रेष्ठ के पहले से स्थापित बुलंद लेखकीय हस्ताक्षर को ना सिर्फ रेखांकित(अंडरलाइन) करती है…बल्कि उसे और-और बोल्ड व ‘इनवर्टेड कॉमा’ से सुसज्जित करती है|

किताब राजपाल एंड सन्स से आयी है और दो सौ पैतीस रुपये की क़ीमत पर ख़रीद कर पढ़े जाने की ज़िद करती है| ऑनलाइन ख़रीदने के लिए अमेजन के इस लिंक का इस्तेमाल किया जा सकता है

…इन सबसे परे, मनीषा कुलश्रेष्ठ की मुहब्बत में हम जैसे बौराए पाठक उनके हर लिक्खे को चौन्धियाए से अपनी आँखों में समेटे उनके और-और लिक्खे की प्रतीक्षा में हैं कि कोई और शाहकार उनकी तिलस्मी लेखनी से उत्पन्न हो और कमबख्त़ ‘मल्लिका’ के सम्मोहन से हम उबर पायें|