19 April 2015

एक बेनाम कविता

अभिनव की आँखों में एक अपरिभाषित सी मासूमियत डोलती है...अभिनव... अभिनव गोयल | मिला था इस बार के दिल्ली पुस्तक-मेले में और बेतरतीब सी फैली वयस्कता की ड्योढ़ी पर जाने से हिचकिचाती हुई अपनी दाढ़ी के ऊपर मासूम सी आँखों से घूरते हुये जब इस लड़के ने अपनी कवितायें सुनाई, तो मेरे आस-पास प्रगति-मैदान का प्रांगण सिहर उठा था एक बारगी | ये लड़का ध्यान माँगता है...कि उसके "वर्स" का वर्जिन शिल्प आने वाले कल के लिए ढेर सारे प्रोमिसेज की कतार खड़ी कर रहा है | सोचता रहा हूँ कि हिन्दी-साहित्य के कुछ स्थापित नाम किंचित इस ब्लौग के जरिये इस लड़के तक पहुंचेंगे और इसको और तराशेंगे या ये भी रोजी-रोटी की तलाश में फेसबुकिया कवि के तौर पर नज़रअंदाज़ कर दिया जायेगा ? 




अभिनव की एक बेनाम कविता :-
मुझे डर लगता है 
तुम्हारी इन बोलती आँखों से
मैं भर देना चाहता हूँ
इनमें तेजाब

दफना देना चाहता हूँ
हर वो कलम
जिस से मैंने कभी तेरा नाम लिखा
हटा देना चाहता हूँ
अपनी डायरी का वो पन्ना
जहाँ गाड़ा था
हमने अपना पहला चुंबन बड़े शौक से
मैॆँ जला देना चाहता हूँ
वो काली कमीज
जिसे पहन कर मैं तुझसे मिलने आता था
मैं छिन लेना चाहता हूँ
उन चमकते सितारो से उनका नूर
कर देना चाहता हूँ
उन्हे बेजान
जिन्हें देखकर तेरी याद आती थी
बांध देना चाहता हूँ
अतीत मे जाकर
उन टिक-टिक करती सूँइयों को
जहाँ कभी तेरा इंतेजार हुआ करता था
मैं तोड़ देना चाहता हूँ
उन छतों के मुंडेर
जहाँ तपते थे हम
तुम्हें देखने क लिए
जेठ की दोपहर में
भर देना चाहता हूँ
तेरी साइकिल के पहियों में पेट्रोल
और रख देना चाहता हूँ
जलती मशाल तेरी दहलीज़ पर
गिरा देना चाहता हूँ
गली के तमाम खम्बे
जहाँ से तू मुड़कर देखती थी
लूट लेना चाहता हूँ
तेरे आँगन में खिलते पेड़ की अस्मत को
फूँक कर एक एक पत्ता उसका
टांग देना चाहता हूँ
तेरे कमरे मे
अधजले कागज
जिसे तूने कभी प्रेम-पत्र का नाम दिया था
फेंक देना चाहता हूँ
अफवाहों से भरे बर्तन,
काट देना चाहता हूँ
तेरी तिलिस्मी जुबान
भर देना चाहता हूँ
तेरे सपनों मे जलती बस्तियाँ,
लाशें ,लहू
मातमी चींखे,
बिलखते बच्चे
काली फटी सलवार ,
खून से लथपथ चादर
करना चाहता हूँ कैद तुझे
चावल की गुड़िया में
रंगना चाहता हूँ
सिंदुर से
और दफना देना चाहता हूँ
काली अमावस के दिन
किसी कुएँ के नजदीक
कि मुझे डर लगता है
तुम्हारी इन बोलती आँखों से