सोचा, बहुत दिन हो गये आपलोगों को अपनी ग़ज़ल से बोर किये हुये। तो आज एक ग़ज़ल- एकदम नयी ताजी। जमीन अता़ की है फ़िराक़ गोरखपुरी साब ने...."बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं/तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं"...सुना ही होगा आपसब ने?...तो इसी जमीन पर एक तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था आज की ग़ज़ल के पन्नों पर। उसी मुशायरे से पेश है मेरी ग़ज़ल:-
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
...बहरे हज़ज के इस मीटर पर कुछ गीतों और ग़ज़लों के बारे में जिक्र किया था मैंने अपनी पिछली ग़ज़ल सुनाते समय। फिलहाल कुछ और गाने जो याद आ रहे हैं इस बहरो-वजन पर...एक तो रफ़ी साब का गाया बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है...रफ़ी साब की ही गायी एक लाजवाब ग़ज़ल भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाये...और एक याद आता है मुकेश की आवाज वाला तीसरी कसम का वो अमर गीत सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। इस बहर पर एक गीत जो सुनाना चाहूंगा, वो है गीता दत्त और मुकेश की आवाज में फिल्म बावरे नैन का जो मुझे बेहद पसंद है खयालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते । लीजिये सुनिये गीता दत्त की मखमली आवाज:-
पुनश्चः -
अपनी लिखी ग़ज़लों के बहरो-वजन पर उपलब्ध फिल्मी गीत या सुनी ग़ज़लों का जो मैं अक्सर जिक्र करते रहता हूँ अपनी पोस्ट पर, उसका उद्देश्य कहीं से भी अपना ज्ञान बघारना नहीं है, बल्कि मैं खुद के लिये इसी बहाने एक डाटा बेस तैयार कर रहा हूँ और मेरे ही जैसे अन्य नौसिखुये को ये बताना है कि एक बहरो-वजन की किसी भी धुनों पर हम अपनी उसी बहरो-वजन पे लिखी रचना को गुनगुना सकते हैं। इधर छुट्टियाँ संपन्न होने को आयी। अगली पोस्ट में मिलूँगा आपसब को वादिये-कश्मीर से।
KYA BAAT HAI GOUTAM JI .... EK BAAR FIR SE AANAND LE RAHA HUN AAPKI GAZAL AUR IS KHOOBSOORAT GEET KA JO AAPNE BLOG PAR LAGAAYA HAI ...
ReplyDeleteSAB SHER BAHUT KAMAAL KE HAIN ...
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
ReplyDeleteजरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
-क्या बात है महाराज!! गजब कर दिया इस गज़ल में तो...जान ले लोगे क्या...नौजवान!!
huzoor...!!
ReplyDeletetar`hee mushaayre meiN is umdaa gzl ka bahrpoor lutf le chuka hooN,
lekin aaj phir padh kr yooN mehsoos huaa jaise sb kuchh taaza-taaza-sa.....ek-ek lafz mn ki gehraayioN se niklaa huaa,,,,mn ki gehrayiyoN tk hi pahunchtaa huaa...
aur haaaN..!
bahut hai naaz rutbe par....chalo maana...
is sher pr to balihaari jaane ko jee chahtaa hai...bahut hu nafees lehje meiN kahaa gayaa sher hai.
bs gungunaae ja rahaa hooN...."sajan re jhoot mt bolo.."
ki dhun pr...ya phir..."jinheiN jalne ki hasrat ho,wo parvaane kahaaN jaaeiN..." par bhi . . .
dheroN duaaoN ke saath
---muflis---
बहुत सुंदर गज़ल है। और समान बहर के लोकप्रिय गानों का उदाहरण दे कर आप पाठकों को सहूलियत ही दे रहे हैं।
ReplyDeleteयह बहरो वजन तो हम पर बहुत भारी पड़ गया ,खास कर यह-
ReplyDeleteबहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तरही के बाद आज फिर से इस ग़ज़ल को पढ़ कर आनंद आ गया...सारे के सारे शेर कमाल के हैं...आप अब अच्छा नहीं बहुत ही अच्छा लिखने लगे हैं...लफ्ज़ और ख्याल दोनों बेहतर से बहतरीन होते जा रहे हैं...इश्वर आपकी कलम को सदा यूँ ही जवान रखे...
ReplyDeleteछुट्टियाँ कमबख्त ऐसी चीज हैं जो जल्दी से पेश्तर ख़तम हो जातीं हैं...जहाँ मज़ा आना शुरू हुआ नहीं की लौटने की तारीख़ सर पर आ धमकती है...कितने खुशनसीब हैं वो जिनको छुट्टियों की जरूरत नहीं पड़ती...
वो कौन हैं जिन्हें छुट्टी की जरूरत नहीं पड़ती
हमें हज़ार भी दे दो तो यूँ लगे कम है
(शेर बे-बहर हो सकता है लेकिन सच्चा है...)
नीरज
अहा गुरु भाई क्यूँ मारने पे तुले हो आप ... हर शे'र कमाल की बात
ReplyDeleteहै ऐसा कभी होता है क्या लोग तो कहते हैं के ग़ज़ल में दो तिन शे'र
बढ़िया हो तो पूरी ग़ज़ल मुकम्मल मानी जाती है मगर जब सारे ही
शे'र कमाल के हो तो फिर इसे क्या कही जाये... कमबख्त मार ही
डालोगे ... :) :) तरही में यह ग़ज़ल खूब धमाल मचाई है .... और जब
आपके ब्लॉग पे आये तो किस नजाकत और नफासत से ... क्या खूब
परवरिश की है आपने इसकी वाह मजा आगया ..... वेसे दिल्ली कब आरहे हो ...
?
आपका
अर्श
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
ReplyDeleteकहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
बहुत सुन्दर मेजर साहब,लाजबाब !
"आज की ग़ज़ल" पर सुनकर पहले बधाई दे चुका हूँ. इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए पुनः बधाई." इस नायब प्रस्तुति के तो क्या कहने.
ReplyDelete"है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
--
गौतम जी, जिंदगी-मौत पर एक क्षणिकाएं सुने यहाँ पर http://sulabhpatra.blogspot.com/2009/11/blog-post_23.html
- सुलभ
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
ReplyDeleteअलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
yun to poori ki poori gazal janleva hai magar ye kuch sher to dil ko hi chura le gaye.........lajawaab.
बहुत बढिया मेजर साब्।
ReplyDelete"हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
ReplyDeleteकि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं"
बहुत बढिया मेजर साब्।
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
ReplyDeleteजरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
Is Ghazal ki Uplabdhi....
Wapis aata hoon.
वाह गौतम भाई..!!
ReplyDeleteग़ज़ल के साथ-साथ गीत भी...
दोनों ही बहुत सुंदर हैं...
मन को भा रहे हैं...
मीत
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
ReplyDeleteइधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
बहुत सुन्दर लिखा है आपने गौतम जी ..छुट्टियाँ भी कितनी जल्दी बीत जाती है ..
इशारा वो करें बेशक हल्का उधर - सा भी कोई
ReplyDeleteइधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
Ufffffffffffffffffffffff.... (Copy right act violation.)
Jalan ho rahi hai aisa maine kyun nahi likha?
(Copy right act violation.-Reloaded)
Excuse: क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़ - औ - मीर - गौतम से जुदा
या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
(See one more....//Copy right act violation.-Revolution)
arsh ne sahee kahaa hai sabhee sher kamaal haiM abhi jaldee me hoon fir aatee hooMM dobaaraa padhane aasheervaad
ReplyDeleteहम तो सोचे थे की उधर नागार्जुन को रिसर्च कर रहे होंगे... या फिर से जय-जय भैरव असुर-भयावनी... सुनायेंगे...
ReplyDeleteबहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
शेर तो इसी को कहते है... जिद्दी ना हुआ तो क्या पैदा हुआ...
आपकी इस गजल के मुरीद तो आज की गजल पे प्रकाशित हुई तब ही होगये..आज फिर पढ़कर आनंदित हो रहे है..हर शेर पर हजारों बार प्रशंसा के हकदार है आप ...एक बार फिर बधाई..!
ReplyDeleteमज़ा आ गया सर जी
ReplyDeleteWaah !!
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
ReplyDeleteइधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
zuban pe baad khuda tea naam hai sun le...ab esse jyaadaa wafa ka saboot kya hoga.....
tea*tera..
ReplyDeleteहमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
ReplyDeleteअलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
सारे शेर अर्थपूर्ण....बहुत ही अच्छी लगी
ग़ज़ल
"हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
ReplyDeleteकि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं"..........bahut badhiyaa
बहर और वजन की तो बात अलग है भाई, गज़ल में पिरोये हुए एहसास, उनकी महसूसियत की कीमत ज्यादा है ।
ReplyDeleteकई बार विस्मय का शिकार होता हूँ - मात्रात्मक प्रतिबंधों के साथ इतना खूबसूरत भाव-अर्थ संयोजन कैसे हो पाता है !
"तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं"
इस अभिव्यक्ति-सौन्दर्य पर न्यौछावर भईया !
उसे ख्वाब कहना है, अजाब कहना है, कि किस्मत
ReplyDeleteमुझे तय करना है, शक्ल क्या मेरे अरमान लेते हैं
*अजाब - सजा
@ Rajey Sha...
ReplyDelete*अजाब - Quyamat !!
तीसरे और सातवें शेर को बिलकुल अनूठे सौन्दर्य राग में ढाला है.बाकी के सब भी लाजवाब.
ReplyDeleteआपके लिए तारीफ़ की सारी उपमाएं 'क्लीशे'लगती है पर कंजूस बनने का भी यहाँ कोई काम नहीं.खरा अनुशासन और फिर भी इतनी दमक!आपका काम भी तो ऐसा ही है,कम स्पेस में भी बेहतरीन.
कम स्पेस को कभी कभी बंकर भी मानते हुए:)
क्या लिखूं ग़ज़ल के बारे में ...' क्या पढूं क्या छोड़ू' .... हाँ यही जुमला ठीक रहेगा शायद .....
ReplyDeleteहम तो अंधेरों से बातें करते हैं
आप दीयों की रौशनी थाम लेते हैं |
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबेहद लुभावने और असरदार शेरों से सजाई है आज तो आपने ये बेहतरीन महफ़िल --
ReplyDeleteइसी तरह लिखते रहे आप मेजर सा'ब
और हमें भी पढवाते रहीये --
जीते रहीये, हमेशा खुश रहीये
और हां ,
गीता दत्त जी और मुकेश जी को सुनवाया - शुक्रिया --
ये पत्र मुझे मिला था --
भेज रही हूँ -
उसमे दीये गये लिंक देखिएगा
- आपको पसंद आयेंगें :)
स स्नेह ,
- लावण्या
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मेरा नाम पराग है और मैंने अपने साथियोंके साथ मिलकर स्वर्गीय गायिका गीता दत्त जी को समर्पित एक वेबसाईट और उसके साथ में ब्लॉग पेज बनायी है.
http://geetadutt.com/
http://www.geetadutt.com/blog/
साथ ही हमने यूट्यूब पर एक चॅनल बनाया है जिसपर ४०० से भी ज्यादा गाने उपलब्ध है.
http://www.youtube.com/user/wwwgeetaduttcom
आपसे विनती है की आप इन्हें कृपया देखिये और आपके संगीत प्रेमी मित्रोंको इनके बारे में ज़रूर बताएं.
आपका आभारी
पराग
"हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
ReplyDeleteकि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं"
ati sundar ....
बहुत सुन्दर रचना । आभार
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY KUMAR
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
लाजवाब पंक्तियाँ
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
Email- sanjay.kumar940@gmail.com
BHAI SUBHANALLAH, ZINDABAD ,LAGE RAHIYE
ReplyDeleteसोच रहा था इनमें से एक चुन लूं... पहली बार पढ़ा तो एक मिला, दूसरी बार पढ़ा तो वो किसी और से रिप्लेस हो गया. ये क्रम चलता रहा और मैं चुन नहीं पाया ! सभी एक दुसरे को रिप्लेस करने की क्षमता रखते हैं... एक से बढ़कर एक जो हैं.
ReplyDeleteवाहवा गौतम जी.. अच्छी ग़ज़ल....
ReplyDeleteक्या हर बार एक से एक शेर ले आते हैं मेजर साब.....!
ReplyDeleteमतला एकदम आपके मिजाज से मैच करता हुआ है..
बाकी और भी शेर...सब के सब..
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
शोले का वोही डायलोग याद दिला रहा है....
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
ये थोड़ा हमारे टाइप का है.....ले लूं....?
इन दिनों बड़ा सूखा है...
:)
सच में कई बार पढ़ा, शायद इसलिए पढ़ना पड़ा कि आज कल एक्दम उलट शिल्प की कविता रच रहा हूँ और उस के माहौल से बाहर आना मेहनत भरा काम है।
ReplyDelete" इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं "
ये वाली खूब जँची। इसके कई परतदार मायने निकलते हैं - एक तो हमरे नवके राजाओं और उनके ब्रिलिएण्ट सिपहसालारों पर भी लागू होता है।
____________________-
उर्दू पद्य के शिल्प विधान में शून्य क्या ऋणात्मक हूँ, इसलिए कुछ कहना ठीक नहीं होगा। डर के मारे गजल जैसा कुछ लिखता भी हूँ तो उसे गजलनुमा कविता कहता हूँ - क्या पता पब्लिक लठ्ठ लेकर पिल जाए - ए बहर नहीं ये क़ाफिया है क्या? वगैरह वगैरह :)
आनन्द आया।
ek hi shabd, "anupam"
ReplyDeleteकहने को कुछ बचा ही नहीं। एक से बढ़कर एक हैं सारे ही शेर। आप इतिहास बना रहे हैं। लोग कहेंगे कि देखो और पढो एक सैनिक की गजल।
ReplyDeleteनमस्ते भैय्या,
ReplyDeleteआपने एक खूबसूरत ज़मीन पे अच्छी ईमारत खड़ी की है, ग़ज़ल का मतला इरादों की मजबूती को साफ्गोशी से कह रहा है.
इस शेर के तो कहने ही क्या.......
"तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं"
वाह, मज़ा आ गया, इतनी गहरी बात को एक शेर में पिरो दिया.
अगला शेर जो अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहा है, वो है
"हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं"
एक और शेर जो मुझे बेहद पसंद आया वो है,
"हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं"
इंतज़ार रहेगा आपकी अगली पेशकश का विशेष रूप से ग़ज़ल का.
कल फिर आ नहीं पाई इस गज़ल को बार बार पढना भी था इस लिये फुर्सत मे आयी हूँाब पढी हैं तो समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूँ आप जानते ही हैं गज़ल के बारे मे नौसिखिया हूँ बस इसे कापी कर लिया है नकल मार लूँगी। मगर जो एहसास आपकी गज़ल मे होते हैं वो केवल आप ही लिख सकते हैं
ReplyDeleteहमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
आब आप ही बता दीजिये क्या इन मे ऐसा कोई शेर है जिसे कहा जा सके ये अच्छा नहीं ये पूरी गज़ल ही
मुझे पसंद है । बधाई बहुत बहुत आशीर्वाद्
आपकी ग़ज़ल और कृतित्व पे कुछ कहना वैसे भी सोलर-पॉवर को बैटरी-पॉवर दिखाना है..और इतने मर्मज्ञ लोगों के कहने के बाद मुझ अल्पज्ञ का कुछ कहना मायने रखता भी नही..हाँ सीखने का ही दिल करता रहता है बस..खैर अभी थोड़ी तकलीफ़ है लिखने मे आजकल..सो आपका एक शेर ले जा रहा हूँ..चर्वण के लिये
ReplyDeleteहै ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
सलाम है!!!!
Bahut dinon baad main appke blog par aayee aur aate hi itna sundar gaana sunne ko mila. Purane gaanon ki baat hi kuch aur thi, aaj kal na aise alfaaz, na mausiqi.
ReplyDeleteAll the best to you,cheers.
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
ReplyDeleteकहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
क्या बात है !
दिल खुश कर दिया आपने अपने इन बेहतरीन अशआरों से।
है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
ReplyDelete"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
subahan allah
सोरी कहना बेअदबी होगी .फिर भी कह देता हूँ....छोटा सा आशियाना बनाने की शुरुआत की है तो समझ लो ..आजकल कहां गुजर बसर होती होगी......ऊपर वाला शेर बेहद खूबसूरत है .....कभी कोशिश करना किसी रोज कोई दोस्त है न रकीब है वाले काफिये पर लिखने की .......
Aap bor to kabhi nahi karate. haa madmast jaroor kar dete he/
ReplyDeletebahut kuchh seekhane samajhne ko mil jataa he hame..yaa kahu mujhe..
कंचन कँवर के ब्लॉग का लिंक ढूँढने आपके ब्लॉग पर आया था.. आकर देखा आपने तो खुद एक ग़ज़ल ठोंक रखी है..
ReplyDeleteअपन भी आशियाने की तलाश में है इनदिनों.. तो सॉरी वाला मैटर अपने साथ भी है.. अनुराग जी की हालत भी अपनी समझिएगा
आपको शादी की सालगिरह की हार्दिक बधाई..और शुभकामनाएं!
ReplyDeleteहुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
ReplyDeleteकि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
sabhi achche hain ,par ye do hmne bhi chura liye jab khule aam chori ho rahi ,hai to phir darna kiska ,allah kare aise hi choron ki jamaat badhti jaay ,bahaadur hoge aap apni seema par yahaan to ..............
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
ReplyDeleteइधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
बहुत खूबसूरत अन्दाज है
बेहतरीन
वैवाहिक वर्षगांठ की हार्दिक बधाई
ReplyDeleteवाह गौतम जी एक बेहतरीन गजल पढने के बाद एक सुन्दर प्यारा गीत सुनने में आनंद आ गया। वाकई आपकी पोस्ट बेमिसाल होती है।
ReplyDeleteGOUTAM JI
ReplyDeleteAAPKO SHADI KI KI SAALGIRAH BAHU BAHU MUBAARAK ..... MITHAI KAHAAN HAI SIR .....
हुज़ूर देर आये दुरुस्त आये .......इसी की दरकार हमें थी............उस्ताद शायर फ़िराक़ गोरखपुरी साब की ...."बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं/तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं" ग़ज़ल पर आपकी ग़ज़ल नक्काशी की तरह उभर कर आयी है........
ReplyDeleteतपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
........................इन शेरों के बहाने क्या नहीं कह गए आप.......जीते रहिये राजरिशी जी !
अपनी लिखी ग़ज़लों के बहरो-वजन पर उपलब्ध फिल्मी गीत या सुनी ग़ज़लों का जो जिक्र करते रहते हैं उनके बारे में जब लिखें तो एक प्रति हमें भी भेजिएगा.. ........! वादी से आपसे पोस्ट का इंतज़ार रहेगा....
हम तो यही कहेंगे ..................
"इस तरह के शेर लिखा के आप हमारी जान लेते हैं......."
'हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
ReplyDeleteकि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं"
wah! wah!behad umda!
Gazal ka har sher bahut hi bahut khubsurat lagaa.
-'Khyalon mein kisi ke'geet bhi suna.purane geeton se kitna kuchh sikhte hain ham!
-Gautam ji aap jo data tayyar kar rahe hain ishwar kare wah khoob saflta paye.Yah apni tarah ka ek anootha aur sarahniy prayas hai.
lo जी idhar shadi की saalgirah भी aa gai और hamein अब pta chlta है ......bdhaiyaan जी bdhaiyaan ......!!
ReplyDeleteardhangini ko koi gift तो diya hoga ....??
duaa है yun ही mil-jul के gungunate rahein ......!!
gazal पर fir aati हूँ .....!!
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
ReplyDeleteअलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
वाह ...ये hui fouji waali baat ......!!
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
ये swabhiman की baat .....!!
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
ये chhuttiyon की baat .....!!
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
एक pita के armanon की baat ....!!
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
ये Goutam Rajrishi jaise yuvaa के liye ....!!
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
ये ardhangini के liye .....!!
है ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"
वाह......ये तो लाजवाब कर गया .....Goutam जी kahaan se late hain aisi soch .....??
मेजर साहब, आपने अब ऐसा मुकाम पा लिया है कि राह चलते भी कोई मिसरा कहेंगे तो वह एक मुकम्मल ग़ज़ल होगी.
ReplyDeleteपता नहीं क्यों मगर कई बार आपके शेर मुझे एक एक कहानी की तरह लगते हैं. आप दरिया को समंदर और समंदर को बूँद होने का हौसला देते हैं.
मेजर साहब, आपने अब ऐसा मुकाम पा लिया है कि राह चलते भी कोई मिसरा कहेंगे तो वह एक मुकम्मल ग़ज़ल होगी.
ReplyDeleteपता नहीं क्यों मगर कई बार आपके शेर मुझे एक एक कहानी की तरह लगते हैं. आप दरिया को समंदर और समंदर को बूँद होने का हौसला देते हैं.
अजी सुनते हैम..कि किसी की शादी की सालगिरह भी थी..लोगों के लिये तो नॉट-सो-हैपी-टाइप मोमेंट भी होते हैं..ऐसे मोमेंट..मगर आपके बारे मे हम जानते हैं..सो शादी की सालगिरह की ढ़ेरों बधाइयाँ..न न अकेले नही..आप दोनो को ;-)
ReplyDeleteये लाजवाब गज़ल पढ़ तो चुका था पर पारिवारिक व्यस्तताओं की वजह से comment नहीं कर पाया था। कमाल के शेर निकाले हैं गुरूभाई, खासकर ये शेर तो...
ReplyDeleteतपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
खड़े होकर तालियां बजाता हूं। और हां, शादी के सालगिरह की बहुत-बहुत बधाईयां। परमात्मा जोड़ी सलामत रखे।
मेजर साहब,
ReplyDeleteपहला मिसरा बहुत पंसद आया, हम तो ठान ही चुके थे कि इसपर तो कमेंट बनता है। फिर दूसरा मिसरा पढ़ा, तो वो भी बेमिसाल लगा और हमने सोचा कि इससे अपने कमेंट की शुरूआत करेंगे। एक के बाद एक पढ़ते-पढ़ते पूरी गज़ल पढ़ ली... पूरी गज़ल लाजवाब है, और इसलिए कमेंट पूरी गज़ल के लिए।
शुभकामनाएं :)
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
ReplyDeleteअलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
गजब ..ये है शुद्ध मेजराना तेवर....!
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
बहुत खूब....!
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
क्या बात है...! बोधिसत्व दर्शन.....!:)
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हम्म्म्म्..सच कहा...
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
ये तो व्यक्तिगत तौर पर कुछ अपना सा भी लग रहा है....! कुछ अपनी जिंदगी की भी झलक...!
बिंदास....! आहा....!
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
ReplyDeleteकहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदाया का समझ फ़रमान लेते हैं
bahut khoob likha hai
-Sheena
गौतम साब....
ReplyDeleteदेर से पता चला मगर जैसे ही पता चला वैसे ही खुद को बधाई प्रेषित करने से नहीं रोक सका.......
आपको और भाभी जी को शादी की सालगिरह पर हमारी और से बहुत बहुत बधाई...क्या कहूं ?
यह गिरह साल दर साल और भी मजबूत होती रहे .......खुशियों की बौछार हर पल हर दम आपके चौबारे - आँगन में झरती रहे........ख्वाब जो बोये हों बड़े दरख़्त के रूप में उगें.......!
फिर से बधाई!
पहले स्वयं की और फिर नेट की अस्वस्थता ने ब्लॉग जगत से काट सा दिया था...बहुत अफ़सोस हो रहा है कि यह नायाब रचना इतने विलम्ब से पढ़ रही हूँ...पार साथ ही अंतरजाल के इस पेज का आभार भी मान रही हूँ कि यह रचना को नया ताजा बनाये ,हँसता मुस्कुराता संजोये रहता है...
ReplyDeleteअब ग़ज़ल की तो क्या कहूँ....शब्दों की जादूगरी और भावों की मधुरता मन को इस अवस्था में छोडती ही कहाँ हैं कि इनके अनुरूप इनके स्तर के शब्द ढूंढ ढांढकर टिपण्णी की जाय...
लेकिन यह जो आप उदाहरण दे दिया करते हैं पूर्व के गाये ग़ज़लों गीतों की ...उससे हम जैसे ग़ज़ल के रमलो बहर के अंधों के लिए बड़ी सुभीता हो जाती है...बस पहले के सुने राग पर इन लाजवाब शब्दों को बिठा देना होता है और रचना स्वर में अन्दर जाती है....और फिर यह "रस प्लस " मन को आनंद विभोर कर देता है....
क्या गज़ल पेश की है बस मन करता है पढते रहें गुनगुनाते रहैं ।
ReplyDeleteहो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं ।
ये शेर आप लोगों की नज़र जो देश के लिये हमेशा दिलो-जान से निछावर हैं ।
shukria, manin aapsabki duaon se thik hoon,patna bhraman? uf........safarnama shuru karne ka soch rahi hoon bahut kuch hota hai bantne ko lekin patna se ziyada aapki gazalon ka bhraman raha ,wah.
ReplyDeleteहै ढ़लती शाम जब, तो पूछता है दिन थका-सा रोज
ReplyDelete"सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?"nice
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
ReplyDeleteकदम उनके कहाँ कब रास्ते आसान लेते हैं
बहुत खूब!
जब तक किसी सैनिक के दिल से निकली ग़ज़ल न पढी जाय यह समझ में नहीं आता है कि लश्करी ज़ुबान में काव्य कैसे लिखा जा सकता है.
gajal ke 'bahar', 'meter', wagairah kya hote hain ye kabhi samajhne ki koshish nahi ki aur aaj bhi nahi janta.. (han utsukta jaroor hai).. par itna pata hai ki ek baar fir aapki gajal ultimate lagi....
ReplyDeleteमेरी क़यामत का जबाब वो क़यामत से देते हैं
ReplyDeleteहम इस तरह एक दूसरे की 'जान' लेते हैं
ये क़यामत हीं तो है !!!
फिराक की जमीन, फिर अपना लहजा बरकरार रखते हुए गजल कहना बेहद मुश्किल था. लेकिन इस काम को जितनी आसानी से कर दिखाया है, अगर उसकी तारीफ न करूं तो शायद काफिरों में शुमार हो जाये. गजल पर की गयी मेहनत झलक रही है. राज! ये मेहनत बरकरार रखना. बेस पर अजीब से माहौल में ज़िन्दगी गुज़ारते हुए शख्स से शायरी की उम्मीद तो नहीं की जा सकती लेकिन अपवाद'' इसी दुनिया में होते हैं और उन्हीं में एक नाम है -------- गौतम राजरिशी. मैं इस गजल की वो तारीफ नहीं कर पा रहा हूँ यह जिसकी हकदार है. थोड़े को ही ज्यादासमझना.
ReplyDeleteपिछले दिनों २ मेल भेजे थे जी मेल पर, जाने क्यों वापस आ गये.
फिराक की जमीन, फिर अपना लहजा बरकरार रखते हुए गजल कहना बेहद मुश्किल था. लेकिन इस काम को जितनी आसानी से कर दिखाया है, अगर उसकी तारीफ न करूं तो शायद काफिरों में शुमार हो जाये. गजल पर की गयी मेहनत झलक रही है. राज! ये मेहनत बरकरार रखना. बेस पर अजीब से माहौल में ज़िन्दगी गुज़ारते हुए शख्स से शायरी की उम्मीद तो नहीं की जा सकती लेकिन अपवाद'' इसी दुनिया में होते हैं और उन्हीं में एक नाम है -------- गौतम राजरिशी. मैं इस गजल की वो तारीफ नहीं कर पा रहा हूँ यह जिसकी हकदार है. थोड़े को ही ज्यादासमझना.
ReplyDeleteपिछले दिनों २ मेल भेजे थे जी मेल पर, जाने क्यों वापस आ गये.
आह्ह्ह !!
ReplyDeleteपूरा ग़ज़ल ऐसे लगी जैसे ताज़ा छेना पायस...
माने की पढने में बस स्वाद ही स्वाद .....
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’ तूफ़ान लेते हैं
अब आंधी तूफ़ान की शामत आई है का....जो tornado से पंगा लेवेंगे भला
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
ना जी एकदम नहीं ....हम तो कहते हैं कोई ज़रुरत नहीं है ऐसा लोगन से बात भी करने हा...हां नहीं तो..
सभी शेर ..बब्बर शेर हैं....हमेशा की तरह...
हम देर से आये हैं ...हमका माफ़ी दे दीजियेगा...
एक बात कहूँ... कुछ नहीं !
ReplyDeleteतपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
ReplyDeleteजरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
waaah lajawab