24 July 2009

हाँ, तेरे जिक्र से कुछ शेर सँवारे यूं तो...

बहुत साल पहले एक कविता लिखी थी। तब ग़ज़ल के शास्त्र की जानकारी नहीं थी। अब जब थोड़ी-सी समझ आ गयी है इस जटिल शास्त्र की तो यूँ ही खाली क्षणों में बैठ उन पुरानी रचनाओं को कभी-कभी ग़ज़ल के छंद पर बिठाने की कोशिश करता रहता हूँ। ...तो आज पेश करता हूँ एक ऐसी ही पुरानी कविता को ग़ज़ल में ढ़ालकर।

एक मुद्‍दत से हुये हैं वो हमारे यूं तो
चाँद के साथ ही रहते हैं सितारे, यूं तो

तू नहीं तो न शिकायत कोई, सच कहता हूं
बिन तेरे वक्त ये गुजरे न गुजारे यूं तो

राह में संग चलूँ ये न गवारा उसको
दूर रहकर वो करे खूब इशारे यूं तो

नाम तेरा कभी आने न दिया होठों पर
हाँ, तेरे जिक्र से कुछ शेर सँवारे यूं तो


तुम हमें चाहो न चाहो, ये तुम्हारी मर्जी
हमने साँसों को किया नाम तुम्हारे यूं तो

ये अलग बात है तू हो नहीं पाया मेरा
हूँ युगों से तुझे आँखों में उतारे यूं तो


साथ लहरों के गया छोड़ के तू साहिल को
अब भी जपते हैं तेरा नाम किनारे यूं तो

...शायद कुछ हल्की-सी लगे आप सब प्रबुद्ध पाठकजनों को। लेकिन ये किशोरवय के इश्क में डूबी लेखनी की उपज थी। जिस बहर पे इस ग़ज़ल को बिठाया है, उस धुन पे कुछ बेहद ही खूबसूरत ग़ज़लें और गाने हैं। रफ़ी साब का वो कभी न भुलाये जाने वाला गीत "जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात" और रफ़ी साब का ही गाया "दूर रह कर न करो बात करीब आ जाओ" या फिर कतील शिफ़ाई साब का लिखा और जगजीत सिंह की मखमली आवाज में डूबी "अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको" और परवीन शाकिर का लिखा मेहदी हसन साब का गाया "कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की" ...फिलहाल तो ये ही याद आते हैं। आप सबों को कुछ और याद आता हो इस धुन पर तो बताइयेगा।


देहरादुन से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "सरस्वती सुमन" के जनवरी-मार्च १० अंक और भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "अर्बाबे-क़लम" के अक्टूबर-दिसम्बर १० अंक में प्रकाशित)

20 July 2009

लेम्बरेटा, नन्हीं परी और एक ठिठकी शाम..


{मासिक पत्रिका "हंस" के जनवरी 2011 अंक में प्रकाशित कहानी}


एसएमएस आये कितना वक्त बीत चुका था उसे कुछ पता नहीं। एसएमएस को पढ़ते ही वो तो विचलित मन लिये घर से बाहर निकल गया था पापा का क्लासिक लेम्बरेटा स्कूटर उठाये। लाजिमी ही था...उन आँसुओं को छिपाने के वास्ते, विशेष कर दीपा से उन आँसुओं को छुपाने के वास्ते।...और अब शहर की तमाम सड़कें-गलियाँ लेम्बरेटा से नाप लेने के बाद वो बैठा हुआ था उस नन्ही परी के घर वाली गली में पान की दुकान पर सिगरेट के कश पर कश लगाता हुआ। उसे अपने-आप पर हैरानी हो रही थी कि कैसे उसने पिछले बीस-एक दिनों से सिगरेट पीना छोड़ा हुआ था। उसकी वो नन्हीं परी तो वहाँ से हजारों किलोमीटर दूर अपने ससुराल में थी। इधर इस शहर में संध्या का धुंधलका गहराता हुआ...वो लेम्बरेटा की लंबी सीट पर उँकड़ू-सा बैठा उस नन्ही परी की तस्वीर हाथ में लिये कई साल पीछे जा चुका था।

नहीं, गणित में कभी कमजोर नहीं रहा वो। लेकिन इस दिनों, महीनों और सालों के हिसाब से अभी फिलहाल बचना चाहता था। वर्षों पहले की कहानी की वो नन्हीं परी अभी कुछ दिनों पहले अपने पँख फैलाये आयी थी उसकी जिंदगी में और ले गयी थी उसे चाँद-सितारों की दुनिया में। अभी भी याद आता है वो स्कूल के दिनों वाले दिन...उस परी का नीले रंग वाला स्मार्ट-सा स्कूल-यूनिफार्म और पूरे रस्ते उसका सर झुका कर चलते जाना। बार-बार बजती साइकिल की घंटी क्या सचमुच वो नहीं सुनती थी? सुनती तो थी, ये अब जाकर पता चला है। अब...इतने सालों बाद, जब उस नन्हीं परी को शादी किये हुये नौ साल बीत गये हैं और खुद उसकी अपनी दुनिया दीपा के साथ बसाये हुये पाँच साल।

विगत तीन महीने से वो सितारों की ही दुनिया में तो था उसी परी के साथ। हाँ, इन तीन महीनों के सारे दिन, हफ़्ते, घंटे वो अभी के अभी ऊँगलियों पे गिन सकता है। गणित में कभी कमजोर था कहाँ वो। अपने इस शहर का पहला टापर था वो आई०आई०टी० की प्रवेश-परिक्षा में। इतने बरस बीते- बीस से ऊपर ही तो, लेकिन फिर भी वो हरेक साल के हर महीने का हिसाब रखे हुये था। पुरानी चीजों को जतन से सँभाल कर रखना उसकी आदत थी- अब चाहे वो पापा की तीस साल पुरानी लेम्बरेटा हो या उसका अपना बीस साल पुराना इश्क। इतने बरस बीते, लेकिन वो अब भी वैसी की वैसी है- नन्ही सी। बस उस नीले स्कूल यूनिफार्म को पहनाने की जरूरत है। आठवीं कक्षा की बात होगी, जब पहली बार देखा था उसे। नहीं, देखने से पहले तो सुना था उसके बारे में। माँ जिक्र कर रही थी किसी से। सबसे पहले माँ ने ही तो उसे नन्हीं परी कह कर बुलाया था और तब से वो उसके लिये नन्हीं परी ही होकर रह गयी। उसने अपना नाम उस नन्हीं परी के नाम के साथ जुड़ते सुना था...एक रोज माँ कह रही थी पापा से और पापा के एक दोस्त से कि जब वो बड़ा होगा तो उसकी शादी उस नन्हीं परी से कर दी जायेगी। पापा के उसी दोस्त की बेटी थी वो। कितनी उम्र रही होगी उसकी अपनी उस वक्‍त? शायद बारह साल। नहीं, तेरह का था वो। टीन-एज के उस रहस्यमयी दरवाजे के अंदर आया ही तो था वो उस साल। वो साल उसकी जिंदगी के लिये सबसे अहम साल साबित हुआ। उस साल उसकी दोस्ती फैंटम, मैंड्रेक, पराग, सुमन-सौरभ और राजन-इकबाल से इतर शरतचंद, आरके नारायण, धर्मवीर भारती, अमृता प्रितम और प्रेमचंद से हुई...उस साल उसे रोजी के लिये राजु गाइड का पागलपन भाया और उसी साल उसे पारो के लिये देवदास की दीवानगी अपनी-सी लगी...उस साल उसने मैथ्स में पूरे स्कूल में टाप किया...उसी साल उसने सिगरेट पीना शुरू किया...उस साल ने उससे उसकी पहली कविता लिखवायी थी- नन्हीं परी के नाम पर। वो साल- उसकी वो आठवीं-नौवीं कक्षा वाला साल एक क्रांतिकारी साल था उसकी आनेवाली जिंदगी के लिये। तेरह कोई उम्र होती है इश्क करने की? सोचता हुआ वो उन विषाद के क्षणों में भी बरबस मुस्कुरा उठता है। वो साल उसकी जिंदगी में उस नन्हीं परी को लेकर आया था, जो फिर सदा के लिये उसकी जिंदगी में रह गयी। लेकिन क्या सचमुच? फिर दीपा??

कितनी यादें! कितने किस्से!! नन्हीं परी की उस ब्लैक-एन-व्हाइट तस्वीर में डूबा सिगरेट के धुँयें के गिर्द। अभी-अभी हासिल हुई वो श्वेत-श्याम तस्वीर। नन्हीं परी ने ये एक तस्वीर उसकी जिद पर मानो तरस खाकर घर के पुराने अलबम से निकाल कर दिया था उसे अभी कुछ दिनों पहले ही तो। उसे बस एक तस्वीर चाहिये थी पुरानी स्कूल के दिनों वाली। उसकी वो नन्हीं परी अब इसी समाज की एक प्रतिष्ठित महिला थी, एक खूब प्यार करने वाले पति की आदर्श पत्नि थी और दो फूल से बेटे-बेटी की प्यारी-सी मम्मी थी। ...थी?...या है? एक दिन छम से अचानक आयी वो अपने पंख फैलाये और उसे दोस्ती की बाँहों में उठाये ले गयी चाँद-तारों के पार। सब कुछ कितना स्वप्न समान था! या सपना ही था उसका ये सब??..और अचानक उसे याद आया कि कैसे जब वो ग्यारहवीं कक्षा में था तो उसके दोस्तों ने मिलकर मुहल्ले में सरस्वती-पूजा का आयोजन किया था। पूरा आयोजन बस इसलिये था कि विगत तीन सालों से उस नन्हीं परी से कुछ भी कहने की हिम्मत न कर सकने वाला उनका ये दोस्त इसी बहाने इस आयोजन में निमंत्रण देने के लिये नन्हीं परी को निमंत्रण-कार्ड देगा और दो बातें करेगा। लेम्बरेटा को घेरे वो विषाद के क्षण एक बार फिर से मुस्कुरा उठते हैं बचपन के उन बेढ़ंगे रोमांटिक प्रयासों को सोचकर।...और जब सचमुच में सरस्वती-पूजा के लिये निमंत्रण-कार्ड देने का अवसर आया, तो स्कूल के रास्ते में उसका वो हड़बड़ा कर नन्हीं परी के सामने साइकिल से उतरना, घबड़ा कर उसकी तरफ देखना, आँखों में एकदम से उतरता हुआ वो स्मार्ट-सा नीला यूनिफार्म...और कार्ड देते हुये कुछ अस्पष्ट-सा बुदबुदाना। "आईयेगा जरूर" जैसा कुछ। कितना बड़ा डम्बो था वो ! कितनी फटकार पड़ी थी दोस्तों से उस शाम। उस शाम वो दोस्तों के बीच तमाम-मददों-से-परे घोषित हो चुका था| ...कहाँ हैं वो सब-के-सब कमबख्त दोस्त? आज जरूरत है उसे तो कोई नहीं मिल रहा। एक वो भी दिन थे, जब दोस्तों को बस कहने भर की जरूरत होती कि "यार जहन्नुम चलना है" और जवाब आता तुरत कि "एक मिनट ठहर, कपड़े बदल कर आते हैं"। कोई उनमें से यकीन करेगा इस कहानी पर कि उसने अपनी नन्हीं परी से बात की है और खूब बातें की और कि उनका ये चुप्पा दोस्त और वो नन्हीं परी अब एक अच्छे दोस्त हैं। दोस्त हैं?...नहीं, थे। उसी दोस्ती के खात्मे का फरमान लेकर तो आया था वो एसएमएस।

अभी तीन महीने पहले वो नन्हीं परी उसे यूं ही मिल गयी थी एक दिन अचानक से इंटरनेट पर चैट करते हुये। नियति का करिश्मा ! इतने सालों बाद---एक युग ही तो बीत गया इस बीच। वो अपनी दुनिया में बस चुका था इस बीते चुके युग के दौरान। नन्हीं परी दिल से उतरी नहीं थी लेकिन कभी। दीपा के आ जाने के बाद भी ...और जब एक छोटी-सी परी खुद उसकी गोद में आयी उसकी और दीपा की बेटी बनकर तो उसे कोई दूसरा नाम सूझा भी नहीं था अपनी बेटी के लिये। उसी नन्हीं परी का नाम उसकी बेटी का नाम बन गया। वैसे भी दीपा से कुछ भी तो नहीं छुपाया था उसने। शादी के पहले के तमाम किस्से और समस्त जज्बातों की निशानियँ वो शेयर कर चुका था दीपा से। लेकिन दीपा से कभी कुछ भी नहीं छिपाने वाला वो जाने क्यों और कैसे नन्हीं परी से हुई इस नयी-नयी दोस्ती की बात छुपा गया था। इतने सालों बाद यूँ अचानक से नन्हीं परी का उसकी जिंदगी में वापस आना क्यों छुपा गया वो दीपा से, इस सवाल के जवाब से वो खुद को बचाता रहा है। लेकिन दीपा क्या इन तीन महीनों से उसकी अनमयस्कता भाँप नहीं रही है? अभी उसी दिन तो कह रही थी वो कि आजकल कहीं खोया रहता है वो। कैसा सकपका-सा गया था वो। बता क्यों नहीं देता है वो दीपा से कि उसकी अचानक से मुलाकात हुई नन्हीं परी से और फिर शुरू हुआ फोनों का सिलसिला और शुरू हुई एक रूहानी दोस्ती। सब कुछ अब स्वप्न समान लग रहा था उसे उस 70 की दशक वाली पापा के लेम्बरेटा पर बैठे हुये। पापा की तरह उसे भी पुरानी चीजों को संभाल कर रखने का शौक विरासत में मिला था। पापा की इस क्लासिक लेम्बरेटा को उसी ने बड़े अहतियाना रख-रखाव से बचाये हुये था अब तलक।...ठीक अपने पहले इश्क की तरह, उस नन्हीं परी की यादों की तरह!!! सुना है कि लेम्बरेटा वालों ने अब ये लेम्बरेटा स्कूटर बनाना बंद कर दिया है। खुदा ने भी तो फिर कोई नन्ही परी नहीं बनायी। नहीं, अभी-अभी तो खुदा ने उसे एक और नन्हीं परी दिया है...उसकी अपनी सवा साल की छुटकी। उसकी और दीपा की छुटकी। विषाद के वो क्षण एक बार फिर से मुस्कुरा उठते हैं छुटकी को याद करके। मुस्कुराहट जरा और विस्तृत हो जाती है वो तीन महीने पहले नन्हीं परी से हुई फोन पर पहली बातचीत को सोच कर और नन्हीं परी की उत्पन्न प्रतिक्रिया के बारे सोचकर जब उसने अपनी छुटकी का नाम नन्हीं परी को बताया था। कैसे चिहुँक उठी थी वो आश्चर्य और खुशी की मिली-जुली प्रतिक्रिया से। उसका अपना ये जन्म अचानक से सार्थक लगने लगा था नन्हीं परी की वैसी प्रतिक्रिया देखकर। वो पहला टेलीफोन और तब से लेकर गुजरे ये कल तक के तीन महीने...कितनी बातें, कितनी कहानियाँ वे दोनों ने एक-दूसरे के साथ शेयर कर चुके हैं। कितना आश्चर्य हुआ था जानकर कि उन दिनों में सब समझती थी वो। वो जानती थी कि उसे छुप-छुप कर देखा जा रहा है। खूब समझती थी कि वो लाल छोटी हीरो साइकिल उसके इर्द-गिर्द घूमती है सड़कों पर और उस साइकिल की घंटी जब-तब उसी के लिये बजती रहती है। उसे भी याद था वो सरस्वती-पूजा वाला आयोजन। कितनी डर गयी थी वो जब उस दिन अपनी उस लाल हीरो साइकिल को रोक कर सरे-रस्ते निमंत्रण-कार्ड दिया जा रहा था उसे। कितना छेडा था उसकी क्लास-मेट्स ने और कितना मुश्किल हुआ था उसे अपनी सहेलियों को समझाना कि वो महज पूजा का निमंत्रण कार्ड था। एक गहरी साँस लेकर रह गया था वो तो...काश कि ये सब कुछ वो तब जान पाता। ...और फिर वो समझाने लगती कि जो होता है अच्छे के लिये होता है...कि जोड़े तो ऊपर से बनकर आते हैं...कि दीपा कितनी अच्छी है...कि वो बहुत खुश है। फिर उन दोनों ने ये सोचा कि उसकी सवा साल की छुटकी और उसका पाँच साल का रोहन जब बड़े हो जायेंगे, तो वो आयेगा नन्हीं परी के घर अपनी छुटकी का रिश्ता लेकर। आहा...! कम-से-कम इस तरह से तो कुछ रह गये सपने पूरे होंगे और वो इतराने लगता अपनी इस दोस्ती पर, अपनी किस्मत पर !!! वो अपनी ऊँगलियों में दबी विल्स क्लासिक की सुलगती सिगरेट को घूरता हुआ आश्चर्य करने लगा महज तीन महीने पुरानी इस दोस्ती के चमत्कारों पर। विगत बीस सालों से लगातार सिगरेट पीता आया था वो। किसी के कहने पर छोड़ नहीं पाया था अपनी ये लत। खुद दीपा ने कितनी जिद की थी। कितना रोना-धोना हो चुका है इस सिगरेट के एपिसोड को लेकर, लेकिन कभी नहीं छूटी ये लत एक दिन के लिये भी। ...और विगत ढ़ाई महीने से उसने बिल्कुल छोड़ा हुआ था सिगरेट पीना। बस नन्हीं परी का एक बार कहना और...उसे खुद ही यकीन नहीं हो रहा था। दोस्ती तो ये वाकई इतराने के काबिल थी। लेकिन आज...

...और फिर अचानक आज का ये संदेशा? उसके पूरे वजूद को हिलाता हुआ। नन्हीं परी ने सीधे-सपाट शब्दों में लिख दिया था कि ये दोस्ती उसके लिये ठीक नहीं। उसकी प्रतिष्ठा, उसकी जज्बातों के लिये ठीक नहीं!! कह तो रही थी वो विगत कुछेक दिनों से कि वो खुद को बँटी पा रही है दो हिस्सों में। उसे ये सब ठीक नही लगता। वो अपना पूरा समय दिल से नहीं दे पा रही है अपने पति को, अपने बच्चों को। वो एक टीन-एजर सा व्यवहार करने लगी है। दिन भर उसकी बातें सोचती रहती है, उसके फोन का इंतजार करती है, हर आनेवाले एसएमएस पर चौंक पड़ती है। ये महज दोस्ती नहीं रह गयी है अब। शी जस्ट कैन नाट टेक इट एनि मोर । इट हैज टु इंड । ...तो हो गया "दि इंड" । नन्हीं परी के इस आज के एसएमएस ने समाप्त कर दिया एकदम से सब कुछ, ये कसम देते हुये कि अगर उसने सचमुच अपनी नन्हीं परी से प्यार किया है तो अब वो उससे कभी कोई संपर्क नहीं करेगा। ...और वो कैसे इस फ़रमान को नकार सकता है। फ़रमान ही तो जारी कर दिया उसकी नन्हीं परी ने उसे उसके इश्क का वास्ता दे कर।

दूसरे पैकेट की आखिरी सिगरेट खत्म हो चुकी थी।
वो मोबाइल हाथ में लिये मैसेज-बाक्स में लार्ड टेनिसन की पंक्‍तियाँ बार-बार टाइप कर और मिटा रहा था- ओ’ टेल हर ! ब्रीफ इज लाइफ, बट लव इज लांग ।

संदेशा भेज देने को व्याकुल मन बार-बार इस उम्मीद में रूक जाता कि अभी...शायद अभी तुरत एक और संदेशा आयेगा नन्हीं परी का और सब ठीक हो जायेगा।

पूरे शहर में रात उतर चुकी थी, लेकिन शाम का एक टुकड़ा विल्स क्लासिक के धुँयें में लिपटा उस गली में शहर की इकलौती क्लासिक लेम्बरेटा के इर्द-गिर्द अभी भी ठिठका खड़ा था उसके मोबाइल के स्क्रीन में झांकता हुआ...इंतजार में एक संदेशे के...

16 July 2009

आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो...

उस दिन जो एक वो शेर सुनाया था जिस पर गुरूजी ने खूब डंडे बरसाये थे कि "बिन बाप के..." लिखने की हिम्मत कैसे हुयी मेरी, तो वो ग़ज़ल अब मुक्कमल हो गयी गुरूजी के ही आशिर्वाद से। बहरे रज़ज पर बैठी हुई ये ग़ज़ल। इस बहर पर कुछ बहुत ही प्यारी ग़ज़लें कही गयी हैं बड़े शायरों द्वारा। विशेष कर दो ग़ज़लों का जिक्र करना चाहुँगा जो मेरी सर्वकालिन पंसदीदा हैं- पहली इब्ने इंशा जी की कल चौदवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा और दूसरी बशीर बद्र साब की सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं।...तो पेश मेरी ये ग़ज़ल:-

है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो
जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो

लिखती हैं क्‍या किस्‍से कलाई की खनकती चूडि़यां
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो

जो सुन सको किस्सा थके इस शह्‍र के हर दर्द का
सड़कों पे फैली रात की खामोशियों से पूछ लो

लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो

गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊंचा हुआ
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो

लब सी लिये सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्‍हें
खामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो

होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो

...पाचवें शेर का मिस्‍रा "लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को" अभी दुरूस्त नहीं हुआ है। आप सब कुछ सुझाव दें। जल्द ही मिलता हूँ अगले पोस्ट में।

आप सब ने दो उस्ताद शायरों की एक गज़ल की अनूठी जुगलबंदी देखी या नहीं? दोनों गुरूजनों को मेरा नमन इस बेजोड़ प्रस्तुति पर।

07 July 2009

दिल्ली की एक शाम और नशिस्त की रपट

छुट्टी बीतती जा रही है। समय की गति भी अबूझ है। जब मैं चाहता हूँ कि ये एकदम कच्छप गति में चले, मुआ घोड़े की सरपट चाल में दौड़ा जा रहा है। तनया के संग तो जैसे दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ रहे हैं।
खैर तो हाजिर हुआ हूँ अपनी पिछली पोस्ट में जिक्र हुये नशिस्त की रपट लेकर।

20 जून की वो संध्या अजब-सी उमस लिये हुये थी। दिल्ली की संध्या। कश्मीर के बर्फीले चीड़-देवदार के बीहड़ों में रास्ता ढ़ूंढ़ना कहीं आसान जान पड़ा बनिस्पत दिल्ली की उस भूल-भूलैय्या ट्रैफिक में। ...और फिर मेट्रो रेल का विस्तार देख कर इंसान की असीम शक्ति का आभास हुआ। मोबाईल पर मनु जी द्वारा तमाम दिशा-निर्देशन के बाद मेट्रो रेल के राजीव चौक स्टेशन पर उनसे और अर्श भाई से मुलाकात हुई। अर्श का गर्मजोशी से गले मिलना एकदम से जोड़ गया हमें और फिर हम तीन तिलंगे चल पड़े मेट्रो पर सवार हो। अर्श कम बोलते हैं। मेट्रो रेल के यमुना बैंक स्टेशन के बाहर प्रतिक्षा शुरू हुई मुफ़लिस जी के लिये...कुछ ही क्षणों बाद वो हाजिर थे। उनके चरण-स्पर्श के लिये झुके मेरे हाथों को बीच में ही रोक कर उनका मुझे गले से लगा लेना अविस्मरणीय कर गया उस पल को। ...और फिर हम चल पड़े दरपण की जानिब एक आटो में बैठ कर। आटो में बैठकी भी बकायदा बहरो-वजन में थी। 2122 के वजन में। अर्श-मुफ़लिस-मैं-मनु। या मनु जी के लिये 3 रखें? मुफ़लिस जी तो यकिनन 1 पर फिट बैठते हैं।

दरपण जी-जान से लगे थे अपने निवासस्थान की सफाई में जब हम पहुँचे। देहलीज़ के बाहर जुते-चप्पलों का अंबार लगा देख मुफ़लिस जी के मुख से बेसाख्ता निकला ये जुमला- "वाह! मुशायरे की पूरी तैयारी है...!!"

उधर उस संध्या ने जब मुस्कुराते हुये विदा लिया तो रात अपने पूरे यौवन पर कभी न भूल पाने वाले एक सत्संग के लिये बिछी हुई तैयार हो रही थी। मुफ़लिस जी ने बागडोर थामते हुये नशिस्त का आगाज़ किया। ...तो शुरू करते हैं मुफ़लिस जी की कशिश भरी आवाज में उनकी एक बेमिसाल ग़ज़ल, जिसके नशे में अब तलक हम डूब-उतरा रहे हैं।

दिल की दुनिया में अगर तेरा गुजर हो जाये - >मुफ़लिस





उनकी इस ग़ज़ल का ये शेर "अब चलो बाँट लें आपस में वो बीती यादें / ग़म मेरे पास रहे चैन उधर हो जाये" उस दिन से मेरी जबान पे कुछ ऐसा चढ़ा है कि पूछिये मत। इसी बहर पर एक किसी शायर ने कहा है इतनी आसानी से मिलती नहीं फ़न की दौलत / ढ़ल गयी उम्र तो ग़ज़लों पे जवानी आयी। लेकिन मुफ़लिस जी के शेरों की जवानी तो देखते बनती ही है, उनके चेहरे पे छाया बचपना कहीं से आभास ही नहीं देता उनकी उम्र का। वैसे उनकी इस ग़ज़ल को पूरा पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें।

अगली पेशकश मनु जी की...


शेर क्या रूक़्न भी होता है मुक्कमल मेरा - >मनु




मनु जी के साथ सबसे खास बात ये होती है कि कई बार उन्हें खुद ही नहीं पता होता कि वो कितनी बेमिसाल ग़ज़ल कह गये हैं। उस रात को बार-बार बंद होते पंखे{स्पष्ट रिकार्डिंग के लिये} के साथ उतरती उनकी कैप का नजारा अद्‍भुत था। मनु जी की इस ग़ज़ल के इन दो शेरों पर अपनी सारी आह-वाह-उफ़्फ़्फ़्फ़ निछावर है:-
और गहराईयां अब बख्श न हसरत मुझको / कितने सागर तो समेटे है ये सागर मेरा

आह निकली है जो यूं दाद के बदले उसकी / कुछ तो समझा है मेरे शेर में मतलब मेरा

और अब आते हैं हरदिल अज़ीज प्रकाश अर्श अपनी दिलकश आवाज के साथ...

इश्क मुहब्बत आवारापन - >अर्श

अर्श ज्यादा बोलते नहीं, लेकिन जब गाते हैं तो साक्षात सरस्वती विराजती हैं उनके गले में। आह ! क्या आवाज पायी है मेरे गुरूभाई ने...! उस रात हमने उनकी लरज़ती आवाज में डूबी कई बंदिशें और मेहदी हसन व ग़ुलाम अली के गाये कुछ शानदार ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाया। फिलहाल यहाँ प्रस्तुत है उनकी ये खूबसूरत छोटी बहर वाली ग़ज़ल उनकी आवाज में- पहले तहत में और फिर तरन्नुम में:-







पूरी ग़ज़ल पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें और साथ में इसी ग़ज़ल पर >निर्मला कपालिया जी की विशेष टिप्पणी पर भी गौर फर्माइयेगा। अर्श, तुम भी गौर कर लो।

और अब दरपण की बारी...

संदूक - >दरपण

हिंदी ब्लौग-जगत में गीत-ग़ज़ल-नज़्म-कविता लिखने-पढ़ने वाले ब्लौगरों को मैं दो हिस्सों में बाँटता हूँ- एक, जिन्होंने दरपण की इस नज़्म संदूक को पढ़ा है और दूसरा, जिन्होंने इस नज़्म को नहीं पढ़ा है। मैं पहले हिस्से में हूँ और फिर उस रात मुझे सौभाग्य मिला उन्हीं की जुबान में इस दुर्लभ नज़्म को सुनने का। दरपण की उम्र का अभास उनकी रचनाओं से नहीं होता। जेनेरेशन वाय {y} का प्रतिनिधित्व करने वाला ये युवा इतना संज़ीदा हो सकता है जिंदगी के प्रति और इश्क को लेकर कि हैरानी होती है...और साथ ही सकून भी मिलता है। खैर आप ये नज़्म सुनिये दरपण की आवाज में{कहीं गुलज़ार का धोखा हो तो बताइयेगा} और पूरी नज़्म पढ़ने के लिये >यहाँ क्लीक करें।




पोस्ट कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। तो अपनी भद्‍दी आवाज़ न सुनाते हुये, आपलोगों को आखिर में मुफ़लिस जी की एक और ग़ज़ल सुना देता हूँ। दीक्षित दनकौरी द्वारा संपादित "ग़ज़ल...दुष्यंत के बाद, भाग ३" में छपी इस ग़ज़ल को पढ़कर इसका दीवाना तो पहले से ही हो चुका था, उस दिन उनकी मधुर अदा के साथ उनकी आवाज में सुनना दीवानगी को अपने चरम पर ले गया। पूरी ग़ज़ल >यहाँ पढ़ें और सुने उनकी जादुई आवाज में नीचे:-

शौक दिल के पुराने हुये - मुफ़लिस




...सुबह तीन बजे तक चलता रहा ये दौर। कुछ और दुर्लभ रिकार्डिंग शेष पड़े हैं अभी मेरे पास, जो निकट भविष्य में सुनाऊँगा। फिलहाल इतना ही। ये पोस्ट और इस पोस्ट पर लगी तमाम आडियों-क्लिपिंग्स के लिये अनुजा >कंचन को विशेष रूप से शुक्रिया और >कुश को भी जिसके सुझाव से मैं ये कर पाया।