बहुत दिन हो गये थे अपनी कोई ग़ज़ल सुनाये आपलोगों को। ...तो एक ग़ज़ल आपसब की नज्र। इस बार बारिश को रिझाने की मुहीम में मिस्रा-ए-तरह उछाला गया था "फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं"। जरा देखिये तो मेरा प्रयास कैसा है:-
उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं
धड़क उठा जो ये दिल उनके देखने भर से
कहो तो इसमें भला क्या मेरी ख़ताएँ हैं
खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं
उधर से आये हो, कुछ जिक्र उनका भी तो कहो
सुना है, उनके ही दम से वहाँ फ़िज़ाएँ हैं
सिखाये है वो हमें तौर कुछ मुहब्बत के
शजर के शाख से लिपटी ये जो लताएँ हैं
उन्हीं के नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं
भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्र की हवाएँ हैं
कराहती है ज़मीं उजली बारिशों के लिये
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
उठी थी हूक कोई, उठ के इक ग़ज़ल जो बनी
जुनूँ है कुछ मेरा तो उनकी कुछ अदाएँ हैं
...और हमेशा की तरह जिक्र कुछ गानों का जिनकी धुन पर इस ग़ज़ल को गुनगुनाया जा सकता है। मो० रफी साब के दो गाने याद आते हैं...एक तो "ये वादियाँ ये फ़िज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें " वाला है...और एक "न तू जमीं के लिये है न आस्मां के लिये" वाला है। एक और याद आ रहा है उन्हीं का गाया और जो मुझे बहुत पसंद भी है..."हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक, खुदा करे कि कयामत हो और तू आये" । अरे हाँ, वो मुकेश साब का गाया "कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है" वाला गीत भी तो इसी धुन पर है।
उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं
धड़क उठा जो ये दिल उनके देखने भर से
कहो तो इसमें भला क्या मेरी ख़ताएँ हैं
खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं
उधर से आये हो, कुछ जिक्र उनका भी तो कहो
सुना है, उनके ही दम से वहाँ फ़िज़ाएँ हैं
सिखाये है वो हमें तौर कुछ मुहब्बत के
शजर के शाख से लिपटी ये जो लताएँ हैं
उन्हीं के नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं
भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्र की हवाएँ हैं
कराहती है ज़मीं उजली बारिशों के लिये
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं
उठी थी हूक कोई, उठ के इक ग़ज़ल जो बनी
जुनूँ है कुछ मेरा तो उनकी कुछ अदाएँ हैं
...और हमेशा की तरह जिक्र कुछ गानों का जिनकी धुन पर इस ग़ज़ल को गुनगुनाया जा सकता है। मो० रफी साब के दो गाने याद आते हैं...एक तो "ये वादियाँ ये फ़िज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें " वाला है...और एक "न तू जमीं के लिये है न आस्मां के लिये" वाला है। एक और याद आ रहा है उन्हीं का गाया और जो मुझे बहुत पसंद भी है..."हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक, खुदा करे कि कयामत हो और तू आये" । अरे हाँ, वो मुकेश साब का गाया "कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है" वाला गीत भी तो इसी धुन पर है।