
होश की तीसरी दहलीज़ थी वो
हाँ ! तीसरी
ही तो थी,
जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग
कुलबुलाया था पहली बार
मेरे भीतर
अपनी तमाम तिलमिलाहट लिए
दहकते लावे-सा
पैवस्त होता हुआ
वज़ूद की तलहट्टियों में
फिर कहाँ लाँघ पाया हूँ
कोई और दहलीज़ होश की...
सुना है,
ज़िंदगी भर चलती ज़िंदगी में
आती हैं
आठ दहलीज़ें होश की
तुम्हारे "मुक्ति-प्रसंग"
के
उन आठ प्रसंगों की भाँति ही
सच कहूँ,
जुड़ तो गया था तुमसे
पहली दहलीज़ पर ही
अपने होश की,
जाना था जब
कि
दो बेटियों के बाद उकतायी माँ
गई थी कोबला माँगने
एक बेटे की खातिर
उग्रतारा के द्वारे...
...कैसा संयोग था वो विचित्र !
विचित्र ही तो था
कि
पुत्र-कामना ले गई थी माँ को
तुम्हारे पड़ोस में
तुम्हारी ही "नीलकाय
उग्रतारा" के द्वारे
और
जुड़ा मैं तुमसे
तुम्हें जानने से भी पहले
तुम्हें समझने से भी पूर्व
वो दूसरी दहलीज़ थी
जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में
सोता था मैं
सोचता हुआ अक्सर
"सुबह होगी और यह शहर
मेरा दोस्त हो जायेगा"
कहाँ जानता था
वर्षों पहले कह गए थे तुम
ठीक यही बात
अपनी किसी सुलगती कविता में
...और जब जाना,
आ गिरा उछल कर सहसा ही
तीसरी दहलीज़ पर
फिर कभी न उठने के लिए
इस "अकालबेला में"
खुद की "आडिट रिपोर्ट" सहेजे
तुम्हारे प्रसंगों में
अपनी मुक्ति ढूँढता फिरता
कहाँ लाँघ पाऊँगा मैं
कोई और दहलीज़
अब होश की...
...उनको पढ़ने और समझने वाले जानते हैं कि जीते जी तो उनकी रचनाओं को सम्मान नहीं मिला | यहाँ तक कि अज्ञेय ने भी उन्हें तार-सप्तक में उपेक्षित रखा | देव शंकर नवीन को उद्धृत करूँ तो "जनसरोकार की मौलिकता, अपने लेखन और जीवन के तादात्म्य, साहित्यिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के सिलसिले में, राजकमल चैधरी के समानान्तर हिन्दी के छायावादोत्तर काल की किसी भी विधा में मुक्तिबोध के अतिरिक्त किसी और का नाम गिनाने में असुविधा हो सकती है" ...वही मुक्तिबोध जिन्होंने राजकमल से बारह बसंत ज्यादा देखे, लेकिन मठ और गढ़ से दूर रहने वाले आलोचकों की सुने तो अपने तेवर और अपने कविताई सरोकार के बजरिये उन्नीस ही ठहरते थे मुक्तिबोध राजकमल के समक्ष |
ख़ैर, ये तो हमारे मुल्क की रीत ठहरी सदियों पुरानी...जगे हुओं को जगाने की | चंद नामचीन प्रकाशकों की बदौलत हिन्दी का एक बड़ा पाठकवर्ग परिचित हो रहा है अब राजकमल चौधरी की जगमगाहट से | इस महान कवि को उनकी छियालीसवीं पुण्यतिथि पर मेरी अशेष श्रद्धांजली !!!