09 May 2011

अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा...

लम्हा था कोई बहता हुआ जो अचानक ठिठक गया...लम्स था इक ठिठका हुआ, जो निर्बाध बह चला| नहीं, कुछ उल्टा सा हुआ था इसके लम्हा ठिठका हुआ था...लम्स बह रहा था| ऐसा ही कुछ था| बीती सदी की बात थी वो, तब वक्त देखने के लिए घड़ियाँ नहीं बनी थीं और छूने के लिए हाथ का होना जरूरी नहीं था| फिर भी समझ इतनी तो वयस्क हो ही गई थी कि लम्हे का ठिठकना या बह चलना और लम्स का बहना या ठिठक जाना, भांप लिया करती थी| बचपना तो इस मुई समझ का अभी अभी लौटा है...अभी के अभी, आधी रात गए| अब, रात को आधी कहने के वास्ते घड़ी की ओर देखना पड़ता है और छूने को महसूस करने की खातिर हाथ बढ़ाना पड़ता है

...समझ तब वयस्क थी या अब हुई है ?

दूर कहीं उस लम्हे की यादों से परे, उस लम्स के अहसासों से अलग...कोई आक्रोश उफनता है, एक वजूद को जलाता हुआ| कोई बेबसी उमड़ती है, एक वजूद को भिगोती हुई| सच को विवश कराहते देखते हैं दोनों मगर - आक्रोश भी, बेबसी भी| अपने-अपने दायरों में सिमटे, उलझे...गड्ड मड्ड|

...समझ का बचपना लौट आया है या कभी गया ही नहीं था ??

उस उफनते आक्रोश के सिवा, इस उमड़ती बेबसी के बिना और सबकुछ बेमानी हो जाता| सच तो यही है| कितना एकाकी-सा अपने पर विलाप करता हुआ सच| विवश कराहता हुआ, किन्तु उस लम्हे से भी बड़ा...उस लम्स से भी गहरा|

...समझ की वाकई कोई उम्र होती है क्या ???

जाने किस लम्हे, लम्स और सच में उलझे हुए उस पगले शायर ने कहा होगा कि

अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा
मगर मुद्दत से इक गौतम मेरे साये में बैठा है