(त्रैमासिक पत्रिका "कथाक्रम" के अक्टूबर-दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित कहानी)
{कश्मीर की सर्दी को तीन हिस्सों में बाँटा गया है, जिसे यहाँ की स्थानीय भाषा में चिल्ले-कलाँ, चिल्ले-ख़ुर्द और चिल्ले-बछ पुकारते हैं | चिल्ले-कलाँ कश्मीर वादी का चालीस दिनों वाला सर्दी के मौसम का सबसे ठंढा हिस्सा है, जो अमूमन 21 दिसंबर से शुरू होता है और 29 जनवरी तक रहता है | ये कहानी बारह साल पहले कश्मीर में आई अब तक की सबसे प्रचंड सर्दी के उसी चालीस दिनों के अंतराल की है ...ओसामा बिन लादेन द्वारा अमेरिका के ट्रेड-सेंटर पर हुआ दुनिया को अचंभित कर देने वाला हमला और उसके चंद दिनों बाद ही भारत के संसद-भवन पर हुये आतंकवादी आक्रमण के तुरत बाद चल रही इस कहानी में कितनी डायरी-पैमाई है और कितनी किस्सागोई, सुधि पाठकगण खुद निर्णय लें | कहानी समर्पित है देश की सरहद पर तैनात सेना के समस्त बहादुर जवानों को, जिन्होंने हमसब के आने वाले 'कल' के लिए अपना 'आज' क़ुरबान किया हुआ है | }
21 दिसम्बर 2001
कंपनी-पोस्ट के नीचे...ठीक नीचे सड़क के परली तरफ, सरसराती-बलखाती बहती हुई, अपने सकुचाये सिमटे साहिलों के बीच में सिकुड़ी हुई झेलम एक अजीब तल्खी से अम्बर
को निहारती पूछ रही है...चिल्ले-कलाँ
तो शुरू हो गया, अब कब बरसाओगे बर्फ के फाहे? अम्बर का विस्तार उसकी रहस्यमयी खामोशी को तनिक और तिलिस्मी बना रहा है और पूरी वादी झुंझलायी-सी चिहुँक रही है अम्बर
के इस अकड़ी ऐंठ पर। अम्बर ऐंठा है कि कम्बख्त बादलों को तो फुरसत ही नहीं, फिर उसे क्या पड़ी है। सूरज संग चुहलबाजी में उलझे बादलों
की नजर न वादी की झुंझलाहट भरी चिहुँक पर है और न ही सिमटी झेलम की तल्खी पर। मसला
अम्बर और बादलों के अंह-टकराव का है और दोष दिया जा रहा है ग्लोबल वार्मिंग को इस साल-दर-साल
वादी में विलंबित होती बर्फबारी का। पिछले साल तो अब तक दो बार बर्फ गिर चुकी थी। वैसे
इस साल की अब तलक नहीं हुई बर्फबारी की वजह इस अम्बर और बादलों के अंह-टकराव के अलावा अफगानिस्तान की उन तोरा-बोरा पहाड़ियों पर जारी अमेरिकन बमबारी भी तो नहीं? फिर माहौल और भी तो गर्मा रहा है इधर एक हफ़्ते पहले अपने संसद-भवन पर हुये हमले के बाद से। जाने क्या मंत्रणा किये जा रहे हैं ये दिल्ली वाले! तुम्हीं बताओ डायरी मेरी कि इसमें भला विमर्श की क्या दरकार है। ...और किस सबूत की जरूरत है इस हमले में अपने नामुराद पड़ोसी
का हाथ होने में? हमले का मास्टर-माइंड
अफ़जल गुरू भी तो पकड़ा गया चार दिन पहले| यहीं का तो था कमबख़्त, मेरे
कंपनी-पोस्ट के नीचे सोपोर के एक
गाँव का| सब कुछ तो स्वीकार्य कर लिया
है उसने पूलिस के सामने| जाने
हम इतने सॉफ्ट क्यों हैं? या फिर कश्मीर वादी का ये चिल्ले-कलाँ उधर हमारे आकाओं के निर्णय लेने की क्षमता पर भी काबिज़ हो रखा है?
पक
गया हूँ विगत चार महीने से इस पोस्ट पर बैठे हुये। तू नहीं होती तो जाने क्या बनता
मेरा, यार डायरी! एक तू और ये एक मेरा नन्हा-सा फिलिप्स का ट्रांजिस्टर! उधर नीचे सभ्यता में तो सुना है कि ट्रेड सेंटर पर हुये उस
अद्भुत हवाई हमले के विडियो जाने कितने एंगल से रोज दिखाये जा रहे हैं टीवी पर। क्या प्लानिंग थी कमबख्त
ओसामा की! मान गये साले को! ...और इधर अपने यहाँ देख लो, ये सरफिरे संसद का मुख्य-द्वार तक नहीं टप पाये। कल शाम जब कंपनी के जवानों को बिठा
कर उन्हें तीन दिन पुराने टाइम्स आफ इंडिया का एडिटोरियल सुना रहा था तो हवलदार रेशम कह पड़ा कि ’ससुरे, घुस ही जाते अंदर तो मजा आ जाता...सारे नेताओं का संगे सफाया हो जाता’ और फिर सारे जवानों का वो समवेत ठहाका देर तक गूंजता रहा
था पूरे कंपनी-पोस्ट में।
चल, अभी बाय करता हूँ डायरी...ऐश्वर्या राय के कोलाज पर भी तो काम करना है। बंकर की ये
छत आधी से ज्यादा भर चुकी है ऐश्वर्या की तस्वीरों से। कंपनी-पोस्ट पर जो दस-बारह अखबार आते हैं दो-तीन दिन विलंब से ही सही, उनमें से कुछेक अमर उजाला, पंजाब केसरी, कश्मीर दर्पण सरीखे अखबार चटपटी खबरों के अलावा अन्य हीरोइनों के बनिस्पत ऐश्वर्या
की खूब तस्वीरें छापते हैं। अब तो कंपनी के सारे जवानों को भी पता चल गया है कि मेजर
साब, ऐश्वर्या
राय के दीवाने हैं और सबके पढ़ लेने के बाद अखबारों से ऐश्वर्या कट-छंट कर मेरे बंकर में आ जाती है। इस चिल्ले कलाँ में रश्मि
की यादें और स्लीपिंग बैग के अलावा ये ऐश्वर्या ही तो है जो मेरे इस सर्द बंकर को सकून
भरी गर्मी से नवाजती है। शुक्रिया ऐश...!!!
27 दिसम्बर 2001
विगत
तीन दिनों से घमासान बर्फबारी हुई है, डियर डायरी। जैसे मौसम को भी क्रिसमस का इंतजार था। आज जाकर दिन खुला। खूब धूप सेंका जवानों के संग। अल सुबह रोज एक युद्ध होता है खुद से। चिल्ले-कलाँ की हाड़ कंपकपाती सर्दी में सुबह-सुबह गर्म स्लिपिंग बैग से बाहर निकलने की जद्दोजहद किसी
युद्ध से कम कहाँ। जिलेट सेंसर का ब्लेड, मग भर खौलते पानी में डूबे रहने के बाद एकदम से इंकार कर देता है बाहर निकलने
से और फिर मग की सकून भरी गर्माहट से जब उसे जबरदस्ती निकालता हूँ तो अपना सारा आक्रोश, वो कमबख्त मेरे ठिठुरते गालों और कंपकपाती ठुड्ढ़ी पर बेरहमी
से उतारता है। सोच रहा हूँ कुछ दिनों के लिये शेविंग बंद कर दूँ। वैसे भी जिस तरह की
बातें सुनने को आ रही है...लगता है, जल्द ही इस वर्दी को पहनने
की सार्थकता साबित होने जा रही है। सेना ने ऑपरेशन पराक्रम के नाम से मोबिलाइजेशन शुरू
कर दिया है| याहू ssssss...अपने नामुराद पड़ोसी को सबक सिखाने का वक्त आ गया है, अगर रोज आती इन ख़बरों पर यकीन करूँ तो। लाहौर तक तो घुस ही जाना है इस दफे और फिर वहाँ लाहौर में
कौन देखने वाला है मेरा शेविंग...हा! हा!!
और
नहीं चाहिये ये बर्फबारी फिलहाल। दिन भर बस धूप में लेटे रहने का मन करता है। बंकर
के सीजीआई सीट वाले छप्पर पर रात
भर ठाठ से पसरा हुआ पाला, बादलों
की चुहलबाजी से निजात पाये सूरज की बेरहमी पर कुनमुनाता है और टपकता हुआ बंकर की बाहरी
दीवारों को जब अपने आगोश में ले लेता है, तो बाहर धूप में बैठ
कर चाय पर चाय पीते हुये पुराने अखबारों को फिर-फिर से बाँचने का अलग ही लुत्फ़ मिलता
है। चार दिन से अखबार भी तो नहीं आये हैं। शायद कल आये। बीबीसी बता रहा है कि ओसामा
का अब तक पता नहीं चला है। तोरा-बोरा में अमेरिकन बमबारी लगातार जारी है। कहाँ छुपा बैठा होगा जाने वो दढ़ियल
लादेन !
दिन
तनिक फुरसत वाले हैं और रातें थोड़ी चैन वाली कि सर्दी इन सरफिरे जेहादियों को भी तो
लगती है...कहीं से किसी मूवमेंट की खबर नहीं आ रही है। सारे मुखबीरों
को भी जैसे चिल्ले-कलाँ
सूंघ गया है। सीओ{कमांडिन्ग
आफिसर} रोज शाम रेडियो सेट पर चिल्लाते
रहते हैं ’कुछ करो-कुछ करो’। सबको ठंड़ लगती है, लेकिन अपने सीओ साब को नहीं। ये कंपनी-पोस्ट
और पूरी-की-पूरी वादी बर्फ में लिपटी धवल-श्वेत लिबास में किसी योगी की भाँति
तपस्या में तल्लीन-सी है। देर रात गये चिनार की शाखों और बिजली के तारों पर झूलते बर्फ
धम-धम की आवाज के साथ बंकर के छप्पर पर गिरते हैं और मेरा उनींदा मन स्लिपिंग-बैग में
कुनमुनाया-सा, मन की आशंकाओं के साथ गश्त
लगाता फिरता है तमाम रतजगों की चौकसी में। कितने अफ़साने हैं,मेरी प्यारी डायरी, इन ठिठुरते रतजगों के जो लिखे
नहीं जा सकते...! कितनी कहानियाँ हैं इन उचटी नींदों की जो सुनाई नहीं जा सकती...!!
गश्त करता आशंकित मन संतरी-पोस्टों पर खड़े जवानों के बारे में सोचता
है और रतजगे की कुनमुनाहट मुस्कान में बदल जाती है...ये मुस्कान एकदम से बढ़ जाती है
जब मन ठिठक कर महेश पर आ रुकता है।
दूर
उस टावर वाले संतरी-पोस्ट
पर महेश खड़ा है...लांस नायक महेश सिंह, हर पल चौकस मुस्तैद अपनी एलएमजी{लाइट
मशीन गन} लिये। पिथौड़ागढ़ का रहनेवाला
महेश...दिखता तो मासूम-सा है, लेकिन
है बड़ा ही सख्त और मजबूत...और उतनी ही सुरीली आवाज पायी है कमबख्त ने। एक टीस-सी उठा
देता है जब तन्मय होकर गाता है वो। उसी ने तो सिखाया था मुझे ये प्यारा-सा कुमाऊँनी
गीत...
हाय तेरी रुमालाsssss
हाय तेरी रूमाला गुलाबी मुखड़ी
के भली छजी रे नके की नथुली
गवे गोल-बंदा हाथे की धौगुली
छम छमे छमकी रे ख्वारे की बिंदुली
हाय तेरी रूमालाssss...
...और जानती हो डायरी डियर जब से उसे पता चला है कि मुझे मो० रफ़ी के गाने खास पसंद हैं, तो अब तो हर मौके पर रफ़ी साब छाये रहते हैं महेश के होठों
पर अपने कंपनी-कमांडर को खुश करने के लिये।
थोड़ा-सा आगे की तरफ झुक कर, शरीर का बोझ तनिक ज्यादा आगे वाले दाँये पाँव पर डाले हुये
और दोनों हाथ पीछे बाँध कर जब वो ’दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, यादों को तेरी मैं दुल्हन बना कर’ गाना शुरू करता है तो तुम आराम से अपनी आँखें बंद कर प्यानो
पर बैठे शम्मी कपूर को सोच सकती हो डायरी डार्लिंग,
कानों में रफ़ी की ही आवाज आयेगी। अभी मन कर रहा है महेश को
संतरी-ड्यूटी से निजात दिलवाकर बंकर
में बुलावा लूँ और खूब सारे गाने सुनूँ उससे। रफ़ी के पुराने रोमांटिक गाने...रश्मि की पसंद वाले..”ज़रा सुन हसीना-ए-नाजनी, मेरा दिल तुझी पे निसार है’ वाला या...या फिर "तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी
में शामिल है" वाला। उफ़्फ़्फ़! हाउ मच आई मिस हर...!!! चल अभी विदा दो डायरी...लीव मी अलोन विद दी वार्म थाउट्स आव रश्मि...गुड नाइट !
30 दिसम्बर 2001
साल
अपने समापन पर है। चार महीने से ऊपर हो गये हैं आखिरी बार छुट्टी गये। मन की हालत अजीब-सी है। सीओ साब कह रहे थे कि अभी कम-से-कम अगले दो हफ़्ते
तक और मुझे इस कंपनी-पोस्ट
से नीचे उतरने के बारे में सोचना भी नहीं है| कोई ऑफिसर ही नहीं है उनके
पास फिलहाल मुझे बदली करने के लिए| कायदे से तो मेरी छुट्टी सैंकशन हो रखी है जनवरी के पहले
हफ़्ते में| देखें क्या होता है| घर बात किये हुए भी आज दसवां दिन होने जा रहा है। बाबूजी
की तबियत में जाने सुधार आया है कि नहीं। रश्मि बता रही थी उस दिन फोन पर कि बाबूजी
के एलजाइमर वाले लक्षण दिन-ब-दिन प्रखर होते जा रहे हैं।
उसी सुबह पान की दुकान से पान लेने के बाद जाने किधर को चले गये थे बाबूजी। उन्हें
याद ही नहीं रहा कि घर का रास्ता किस तरफ है। वो तो शुक्र हो ठाकुर चाचा का कि उन्होंने
देख लिया था बाबूजी को भटकते हुये। छुटकी को रोज घुमाने ले जाते हैं बाबूजी हाई स्कूल
ग्राउंड में। चिंता जाहिर कर रही थी रश्मि कि ऐसी हालत में छुटकी को उनके के संग भेजना
उचित है कि नहीं। कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करूँ। छुटकी को देखने के लिये मन तरस
रहा है। रश्मि बता रही थी कि अब तो बकायदा तुतलाते हुये मेरा पूरा नाम बता देती है, जब कोई उससे उसके पापा का नाम पूछता है...मेजल तुछाल छक्छेना। मन कर रहा है रश्मि से घंटों बतियाऊँ
अभी। छुटकी की सारी दिनचर्या सुनूँ। मगर यहाँ का इकलौता फोन लाइन जो पंद्रह किलोमिटर
दूर हेडक्वार्टर तक जाने कितने पैचों में जुड़ा हुआ है, खामोश बैठा है। रेडियो पर कितनी दफ़ा बता चुका हूँ हेडक्वार्टर
को, लेकिन वो भी क्या करेंगे...इस बर्फबारी में जाने कहाँ-कहाँ से टूटा होगा कनेक्शन।
भाग
जाने को मन कर रहा है, यार
डायरी। कहीं गुम हो जाने की इच्छा हो रही है। वैसे भी जब से फौज में आया हूँ...विगत सात सालों से गुमशुदा ही तो हूँ...कब से...खुद से...सब से...और इस गुमशुदगी में
अक्सर मिलता है जाने कितनी लापता
कविताओं का पता। कटी-छँटी पंक्तियों में बँटी अनर्गल से अलापों के ड्राफ्ट में लापता
ये कवितायें जैसे एक अर्थ
देती हैं मेरी इस गुमशुदगी को। ठिठुरती मुट्ठी में दबोच कर सहेजी गयी एक टुकड़ा धूप-सी
जिंदगी चाहती है कोई एक मुकम्मल कविता लिखना...एक कविता, जो चीड़-देवदार के इन घने जंगलों में बौरायी-सी घूमती है दिनों-रातों
का भेद मिटाते हुये...एक कविता, जो बारूद की फैली गंध में भी मुस्कुराती हुई दूर बहुत दूर
अपने मुस्कान की खुश्बू भेजती रहती है...एक कविता, जो इधर-उधर आस-पास फैले नाशुक्रों की पूरी जमात को
अब भी अपना हमसाया मानती फिरती है...एक कविता, जो बर्फ बनकर टपकती रहती है
कब से ऐंठे तने हुये इन पहाड़ों के थके कंधों पर...एक कविता, जो छुट्टी लेकर घर जाती है
तो छुटकी की हँसी को एक नयी खनक मिलती है और कविता को उसकी धुन......बँट जाना चाहता
हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े,
ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में...और समेट लेना चाहता हूँ इन पंक्तियों में बाबूजी की बीमारी, माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
बारुद की गंध, रेत की भरी बोरियों और टीन की छप्पर वाला ये ठिठुरता बंकर, ऐश्वर्या राय की आँखें,
रश्मि की आवाज, छुटकी की मुस्कान, ढ़ेर-ढ़ेर सारी छुट्टियाँ और प्रेम का संपूर्ण विस्तार...चंद तस्वीरों, डायरी के पन्नों, कुछ टेलिफोन-कॉल्स में सिमटा हुआ एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...और तब्दील हो
जाना चाहता हूँ एक अमर कविता में कि गुनगुनाया जा सकूँ सृष्टि के अंत तक।
हा! हा!! देख रही हो ना डायरी डार्लिंग, इस चिल्ले-कलाँ ने अच्छे भले सोल्जर को फिलास्फर बना दिया है!
एक
बात बता मेरी डायरी कि अफगानिस्तान के उन तोरा-बोरा के सूखे पहाड़ों पर हुई इतनी अमेरिकन बमबारी के बाद कहीं
छुपा हुआ ओसामा क्या सोच रहा होगा। क्या मेरी तरह वो भी ऐसे अनर्गल-सी कविताओं का ड्राफ्ट लिख रहा होगा? क्या उसे अपने परिजनों की याद आ रही होगी? तुझे क्या लगता है डायरी कि ओसामा को अपनी उन अनगिनत पत्नियों
में उसे किसकी याद सबसे ज्यादा आ रही होगी। हुम्म्म...सवाल तो ये भी है कि कमबख्त जिंदा
भी है कि नहीं किसी को याद करने के लिये। इसी से जुड़ा एक और आवारा ख्याल सर उठा रहा
है इस वक्त कि ये दो हफ़्ते पहले हुये संसद-भवन हमले का कोई तार क्या ट्रेड-सेंटर वाले
प्रकरण से जुड़ा है? ...और
हम अभी तक चुप कैसे बैठे रह सकते हैं? पूरी सेना का मोबिलाइजेशन भी हो गया है अब तो बॉर्डर पर| जाने क्या मंत्रणा चल रही है दिल्ली में| गॉड, व्हाट
इल्स डू वी नीड टू टीच अ गुड लेशन टू आवर फ्रेंडली नेबर...???
छोड़ ना यार सोते हैं...वो किसी शायर ने कहा है ना कि "किस-किस को सोचिए किस-किस को रोईए, आराम बड़ी चीज है मुँह ढाँप के सोईए"...तो शुभ-रात्रि !
09 जनवरी 2002
हैप्पी
न्यू ईयर डायरी डीयर! विगत कुछ दिनों से बिलकुल ही मन नहीं कर रहा था तुझसे मुखातिब
होने का| एक और नया साल शुरू हो गया
है| सामने खड़ा पहाड़ सा ये दो हजार
दो मुँह चिढ़ाता सा लग रहा है| तयशुदा
छुट्टी की प्लानिंग के हिसाब से मुझे आज...अभी जम्मू रेलवे-स्टेशन पर होना चाहिए था|
लेकिन मैं हूँ वहाँ से तीन सौ किलोमीटर से भी ज्यादा पीछे
अभी भी अपने इसी कंपनी-पोस्ट पर| सीओ
साब अभी तक कोई ऑफिसर नहीं निकाल पा रहे हैं मेरी बदली करने के लिए| "होल्ड आन तुषार...होल्ड आन, जस्ट
फार टू मोर वीक्स" बीसियों बार कह चुके हैं मुझसे और मेरा धैर्य है की अपनी सारी
हदें तोड़ने पर आमादा है| कंपनी
के सारे जवान इन दिनों खामखां मेरे जब-तब उमड़ते गुस्से को झेलते रहते हैं| कल ही दो-चार जवानों को बात करते हुये सुना था| बेचारे परेशान से थे कि उनके कंपनी-कमांडर साब को क्या हो गया है...पहले तो कभी नहीं इतना गुस्साते थे|
मैं भी क्या करूँ यार डायरी,
तू ही बता ना! पाँच महीने होने जा रहे हैं घर गए हुये...सभ्यता के दर्शन किए हुये...शहर नाम के चीज की रंगीनियों की झलक लिए हुये|
बाबूजी को दिखाने लेकर जाना है दिल्ली किसी अच्छे न्यूरोसर्जन
से| आज इतने दिनों बाद फोन-लाइन ठीक हुआ तो घर बात हुई|
माँ ने तो पहले फोन पर आने से ही इंकार कर दिया था| रश्मि कितना मना के लायी तब आई बात करने फोन पर और आते ही
खूब सुनाया मुझे कि मैं खुद ही आना नहीं चाहता हूँ...कि मैं इकलौता होने के बावजूद अपनी जिम्मेदारियों से मुँह चुरा रहा हूँ...कि मुझे बाबूजी की फिक्र ही नहीं है...वगैरह-वगैरह !! अब उन्हें क्या कहता मैं| एक
तो वैसे ही छुटकी के होने के बाद से वो रश्मि से चिढ़ी रहती हैं| पोते की आस जो लगाए बैठी थी...
! ऊपर से अब छुटकी तीन साल की होने को आई है और उनको, बेटा-बहू अब भी पोते के लिए प्रयासरत नजर नहीं दिखते हैं, तो उनका पारा चढ़ा ही रहता है|
मंगल, बृहस्पति
और शनिवार का व्रत तो रखा ही जा रहा है जाने कब से और आज ही रश्मि बता रही थी कि कोई
एकादशी भी शुरू कर दिया है, जो
हर दूसरे हफ़्ते कभी बुधवार तो कभी शुक्रवार को पड़ जा रहा है| फिर बाबूजी की बिगड़ती स्थिति|
अभी पिछले दिनों फिर से कहीं गुम हो गए थे और अब तो लगातार
कुर्सी पर या बिस्तर पर बैठते हैं तो बैठे रह जाते हैं जब तक माँ या दादी या रश्मि
उन्हें आकर उठने को न कहे|
माँ
की इन उलाहनाओं ने मन खिन्न कर दिया है| मैं क्या करूँ, तू
ही बता ना यार डायरी? दीदी
को फोन किया बाद में तो वो भी उल्टा मुझे ही समझाने लगीं|
जी चाहता है खूब ज़ोर-ज़ोर से चीखूँ...फोन घूमा कर अभी के अभी सीओ को हजार गालियाँ सुनाऊँ...या...या
फिर सामने इस लाइन ऑव कंट्रोल के उधर उस पाकिस्तानी पोस्ट पर इतने गोले बरसाऊँ कि इनकी
धज्जियाँ उड़ जायें...काश
कि सरकार द्वारा इस वक्त सीज़-फायर
का हुक्म न लागू हुआ होता!! काश.....
तू
नहीं होती तो मेरा क्या बनता यार डायरी...??? कौन सुनता मेरे इस एकाकी मन के अनर्गल आलापों को...???
ओके, लेट्स
कैच सम स्लीप नाऊ...गुड
नाइट !
17 जनवरी 2002
इस
बार तो हद ही कर दिया है इस सर्दी ने| कल से बदस्तूर बर्फ गिर रही है| आज सुबह उठा तो मेरा बंकर पूरी तरह ढँक चुका था बर्फ में| कंपनी के कुछ जवान लगे हुये थे खुदाई करके बर्फ हटाने में| सुबह में कुछ देर को रुकी और फिर से चालू हो गई है बर्फबारी| इस बार के चिल्ले-कलाँ ने तो खुश कर दिया है इन कश्मीरियों को|
चिल्ले-कलाँ
खत्म होगा तो चिल्ले-ख़ुर्द
शुरू होगा...इस भीषण बर्फबारी के बाद फसल
अच्छी होगी...सेब में रस ज्यादा आयेगा...झेलम की उछाल देखने लायक होगी|
हम भले ही परेशान रहें,
कश्मीर तो खिलखिलाता रहे...!
क्यों, सही
कह रहा हूँ ना डायरी डार्लिंग? ये
भले ही हमें हिंदूस्तानी समझे और अपना हमसाया नहीं माने,
लेकिन इन नाशुक्रों की पूरी जमात को हम तो अपना हमसाया मानते
ही हैं| कैसे नहीं मानें? जाने कितने अपने बंधुओं ने,
यार-दोस्तों ने इसी को साबित करने के लिए तो जान निछावर कर
दिया है| कम-से-कम उनकी खातिर तो हमें
इस भ्रम को हकीकत मान कर चलना ही पड़ेगा ना?
तू
भी सोच रही होगी डायरी कि आजकल जब भी तुझसे मुखातिब होता हूँ, कड़वाहट ही निकालते रहता हूँ|
क्या करूँ...वैसे तू गौर तो कर ही रही होगी कि इन दिनों कम कर ही दिया है तुझसे मिलना-जुलना| मन की कड़वाहट कितना उड़ेलूँ तेरे इन पन्नों पर| तू भी तो ऊब जाती होगी ना?
23 जनवरी 2002
इस
ठंढ का कुछ तो उपाय बता दे डायरी मेरी ! चिल्ले-कलाँ नाम जिसने भी दिया होगा कश्मीर की इस सर्दी का, जाने क्या सोच कर दिया होगा|
पिछले तीन दिन से बर्फबारी तो रुकी हुई है, लेकिन मौसम बंद-बंद सा ही है|
धूप देखने के लिए तरस रहा है मन|
कपड़े, यूनिफार्म
तक ठीक से सूख नहीं पा रहे हैं| वैसे
रश्मि बता रही थी फोन पर कि इस बार उधर गाँव में भी खूब कड़ाके की सर्दी पड़ रही है| दादी आजकल सबसे रोज कहती हुई सुनाई देती हैं कि ये सब प्रलय
आने के लक्षण हैं| अपने
नब्बे बरस में उन्होने कभी इतनी सर्दी पड़ते नहीं देखी|
हम्मम्म...यानि
कि ये कमबख्त चिल्ले-कलाँ
उधर भी अपना असर दिखा रहा है| बाबूजी
की हरकत बिल्कुल छोटे बच्चों जैसी होती जा रही है|
डा० पाठक भी तो यही बता रहे थे कि एलजाइमर के चरम पर मरीज़
एकदम बच्चा जैसा हो जाता है| अभी
परसों ही बाबूजी ने बिस्तर पर लेटे-लेटे बगल की दीवार पर अपना हाथ खुरच-खुरच कर पूरा
लहूलुहान कर लिया था| कुछ
समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ | माँ
की सारी झुंझलाहट रश्मि पर ही निकल रही है आए दिन|
डा० पाठक ने तो पिछली बार की छुट्टी में स्पष्ट रूप से कह
दिया था कि इसका कोई इलाज नहीं है| सिर्फ
धैर्य और इच्छा-शक्ति की दरकार है इस रोग के मरीज़ के आस-पास रहने वाले लोगों में| विगत सात सालों के सैन्य सेवाकाल के दौरान इधर कुछ दिनों
से पहली बार फौज में आने पर अफसोस हो रहा है|
क्या फायदा मेरा,
जब मैं जरूरत के समय बाबूजी की देखभाल नहीं कर सकता...माँ की परेशानी को ठीक नहीं कर सकता| इससे तो बेहतर था कि उधर ही गाँव में पड़ा रहता...बाबूजी की खेती देखता|
क्या जरूरत पड़ी थी इतनी पढ़ाई करके एनडीए की प्रवेश-परीक्षा निकालने की और सेना में ऑफिसर बन जाने के बाद इधर
इन सुदूर पहाड़ों-जंगलों
में भटकने की...और फिर ऊपर से अपने ही हमवतनों
की गालियाँ सुनने की, मीडिया
की इल्ज़ाम उठाती ऊंगलियों को झेलने की|
वान्ट
टू रन अवे... घर जाने के लिए विकल हो रहा
है मेरा पूरा वजूद| बाबूजी
को देखने के लिए बेचैन हुआ जा रहा हूँ| मेरी बदली के लिए ऑफिसर तो आ जाना था कल तक|
सीओ साब ने आखिरकार निकाल ही लिया है एक ऑफिसर मेरी बदली
के लिए| सौरभ आ रहा है...मेजर सौरभ शाह| लेकिन इस भीषण बर्फबारी में सारे रास्ते तो बंद पड़े हुये हैं पिछले एक हफ़्ते
से| सौरभ आयेगा भी तो रास्ता खुलने
के बाद ही| अब तो कंपनी-पोस्ट पर दूध भी
खत्म हो गया है| पिछले तीन दिनों से पाउडर वाले
दूध की चाय पी-पी कर हाजमा बिगड़ा हुआ है| कल दोपहर तक के खाने की सब्जी शेष है बस|
फिर भी रास्ता नहीं खुला तो,
टिंड राशन पर आना पड़ेगा सारे जवानों को और तू जानती है ना
डायरी, कि मुझे जरा भी पसंद नहीं ये
टिंड राशन| याद है, पिछली सर्दी में ऐसा ही हो गया था और मैं नौ दिन लगातार मैगी
खा कर रहा बस| सूबेदार महिपाल से कनफर्म कर
लिया है मैंने...स्टाक में मैगी के पैकेट बतेरे
पड़े हुये हैं|
चल
दुआ कर मेरे साथ कि अब और बर्फ न पड़े| इस चिल्ले कलाँ ने तो बैंड ही बजा ही दिया है पूरा|
चल बाय अभी !
26 जनवरी 2002
हैप्पी
रिपब्लिक डे, यार डायरी ! गणतंत्र-दिवस के इस बावनवें सालगिरह को हमने अपने इस छोटे से कंपनी-पोस्ट
पर बर्फ में भीगते हुये भी जैसे-तैसे सेलेब्रेट कर ही लिया| कंपनी के पैंसठ जवानों के साथ और पास के गाँव से बुलाये गए
बच्चों और बड़े-बूढ़ों के साथ बर्फ में भीगते हुये तिरंगे को फहराने का दृश्य अनूठा था| गाँव के बच्चों ने तो पूरे सुर में और जोश में हमारा साथ
दिया जन-गण-मन गाने में, लेकिन
शेष गाँव-वासियों की दुविधा उनके चेहरे पर उजली बर्फ के परत की तरह चमक रही थी| कमबख़्त...नाशुक्रों
की ज़मात...और इनके लिए हम अपने घर-बार से दूर, इस पहाड़ पर डेरा जमाये बैठे हैं| वैसे मुफ्त की चाय, समोसे
और जलेबी खाने में इन नाशुक्रों को कोई दुविधा नहीं हो रही थी|
परसों
रात से बर्फ गिरनी फिर से शुरू हो गई है| वैसे तो कम-कम ही गिर रही है पिछले कुछ दिनों के मुक़ाबले...लेकिन इतना तो कर ही दिया है कि हेडक्वार्टर से यहाँ तक का
रास्ता अभी भी नहीं खुल पाया है| सौरभ
का आना इसी चक्कर में टलता जा रहा है| गनीमत है कि फोन-लाइन चालू है| इस बार की बर्फबारी मुझे बस पागल बना कर छोड़ेगी|
कश्मीर के इन नाशुक्रों की तरह इनका चिल्ले-कलाँ भी कम थोड़ी ना है|
चल, आज
ज्यादा मूड नहीं है बात करने का डायरी| मन भन्नाया हुआ है| बंकर
की छत पे चिपके कोलाज से टुकुर-टुकुर ताकती ऐश्वर्या भी रास नहीं आ रही ज़रा भी| विदा दे फिलहाल...
27 जनवरी 2002
बाबूजी
नहीं रहे| सुना तुमने डायरी? बाबूजी नहीं रहे...
सुबह ही फोन आया था घर से|
पहले तो हेडक्वार्टर में ही आया सीओ के पास...फिर रश्मि का आया बाद में यहाँ पोस्ट पर| सहज ही विश्वास नहीं हो रहा है|
कुछ समझ में नहीं आ रहा|
माँ बाथरूम में थी...दादी पूजा पे बैठी हुई थीं...रश्मि
रोटी खिला रही थी छुटकी को...बाबूजी
इस बीच पता नहीं कब छत पे चले गए और जाने कैसे उस अधबने बगैर रेलिंग वाले हिस्से की
तरफ से नीचे गिर गए| जस्ट
कान्ट बिलीव...आई कान्ट बिलीव...हमेशा कोई न कोई रहता था बाबूजी के पास| ज़्यादातर दादी ही रहती थीं|
उनको रामायण सुनाया करती थीं|
ये कैसे हो गया...मैं क्या करूँ| रास्ता
बंद है अभी तक| कल सुबह कोशिश की जाएगी मेरे
लिए रास्ता खुलवाने की...कुछ
समझ में नहीं आ रहा यार| मैं
क्या करूँ...व्हाट टू डू...क्या करूँ मैं...हाऊ कैन यू डू दिस टू मी, गॉड???
28 जनवरी 2002
अभी
भी यहीं हूँ मैं अटका हुआ...इस
बर्फीली चोटी पर| बर्फ
गिर रही है लगातार| जब
तक सौरभ नहीं आ जाता ये कंपनी-पोस्ट नहीं छोड़ सकता मैं|
छत्तीस घंटे से ऊपर हो चुके हैं बाबूजी को गुजरे और मैं कहीं
से करीब भी नहीं हूँ घर के| श्रीनगर
से उड़ने वाली सारी फ्लाईट भी रद्द है बर्फबारी को लेकर|
जम्मू तक जाने में ही एक दिन लगेगा पूरा, वो भी तब जब मैं यहाँ से नीचे उतर पाऊँ| फिर ट्रेन से दो दिन लग जाएंगे घर तक| मन की हालत पागलों जैसी हो रही है| दीदी पहुँच चुकी हैं...दोनों मामा और छोटे वाले चाचा भी पहुँच चुके हैं|
बस बाबूजी का इकलौता बेटा यहाँ बर्फ खा रहा है| ज़िद पे अड़ गया था मैं कि चाहे सौरभ पहुँचे न पहुँचे...कुछ भी हो, मैं नीचे उतर जाऊँगा, लेकिन
फिर मानना पड़ा सीओ का आग्रह| कमबख़्त
वर्दी ये और इस वर्दी की शपथ....
रश्मि
से और दीदी से बात हुई थी थोड़ी देर फोन पर|
माँ की हालत ठीक नहीं है|
रोते जा रही है लगातार|
सब पूछ रहे हैं मेरे बारे में कि मैं कब तक पहुँच रहा हूँ...और मुझे खुद ही नहीं पता कि....
29 जनवरी 2002
सौरभ
पहुँच गया है| सीओ ने स्पेशल रिक्वेस्ट करके
एक हैलीकाप्टर का इंतज़ाम करवाया...उसी
से पहुंचा है सौरभ| लेकिन
हैलीकाप्टर के यहाँ लैंड करते-करते अँधेरा हो चुका था|
इसी ने मुझे नीचे लेकर जाना था,
लेकिन रौशनी की कमी से पायलट ने टेक ऑफ करने से मना कर दिया
है| अब कल सुबह निकल पाऊँगा मैं|
उधर
माँ ने बकायदा घोषणा कर दी है कि उनका बेटा भी नहीं रहा अपने बाप के साथ| रश्मि को कहा बता देने के लिए मुझे कि मुझे अब आने की जरूरत
नहीं और वो भी चली जाय यहाँ से| दीदी
की सहमति से पापा का दाह-संस्कार
कल सुबह छोटे वाले चाचा कर रहे हैं| कल
हेलीकाप्टर से जम्मू तक पहुँचने बाद भी मैं परसों शाम तक ही घर पहुँच पाऊँगा...
डोंट
नो व्हाट टू डू...जस्ट डोंट नो...माँ की बातों ने विचलित कर दिया है मन| कश्मीर के इस चिल्ले-कलाँ का आखिरी दिन....लेकिन यहाँ तो अब पूरी ज़िंदगी ही जैसे एक अनंत कालीन चिल्ले-कलाँ में तब्दील हो चुकी है|