18 May 2009

कातिलों का सरगना तो हाय मेरा यार है...

...जमीन अता की है शहरयार साब ने, जिसे आसमान की बुलंदी तक ले जाने में मशहूर संगीतकार खैय्याम साब और स्वर-साम्राग्यी आशा भोंसले की अहम भूमिका रही। ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दयार है। इसी जमीन पर अपनी एक गज़ल पेश है

खबर मिली है जब से ये कि उनको हमसे प्यार है
नशे में तब से चाँद है, सितारों में खुमार है

मैं रोऊँ अपने कत्ल पर, या इस खबर पे रोऊँ मैं
कि कातिलों का सरगना तो हाय मेरा यार है

ये जादू है लबों का तेरे या सरूर इश्क का
कि तू कहे है झूठ और हमको ऐतबार है

सुलगती ख्वाहिशों की धूनी चल कहीं जलायें और
कुरेदना यहाँ पे क्या, ये दिल तो जार-जार है

ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है

बनावटी ये तितलियाँ, ये रंगों की निशानियाँ
न भाये अब मिज़ाज को कि उम्र का उतार है

भरी-भरी निगाह से वो देखना तेरा हमें
नसों में जलतरंग जैसा बज उठा सितार है

...और आखिरी में चचा ग़ालिब से क्षमा-याचना सहित*

तेरे वो तीरे-नीमकश में बात कुछ रही न अब
खलिश तो दे है तीर, जो जिगर के आर-पार है


( त्रैमासिक पत्रिका "नयी ग़ज़ल" के अक्टूबर-दिसंबर 09 वाले अंक में प्रकाशित)

* कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीमकश को
वो खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

11 May 2009

तू जब से अल्लादिन हुआ, मैं इक चरागे- जिन हुआ...

...चीड़-देवदार-चिनारों से आच्छादित धरती के इस कथित जन्नत के एक कोने से आप सब के साथ इस ब्लौग-जगत से जुड़े रहने की कोशिश अपने-आप में बड़ा ही कठिन श्रम है। नेट की गति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मेल में एक साधारण-सी आडियो फाइल को अटैच करने में एक घंटे से ऊपर का समय लगता है और वो भी कोई जरूरी नहीं है कि प्रयास सफल ही हो। किंतु यहाँ इस बात की शिकायत करना तो ज्यादती होगी, क्योंकि मुझे याद है कि पाँच-छः बरस पहले यहाँ की अपनी पहली पोस्टिंग के दौरान घर वालों को फोन तक करने के लिये कितनी जद्दोजह्द उठानी पड़ती थी। अब तो मोबाइल की विलासिता और इंटरनेट की सुलभता उपलब्ध है। शिकायत तो कर ही नहीं सकता।

...अपने पिछले पोस्ट में मेरी एक तुच्छ-सी शंका के निबारन हेतु बढ़े उन समस्त मददों का शुक्रगुजार हूँ। ये अपना हिंदी ब्लौग-जगत सचमुच में एक विस्तृत परिवार बनता जा रहा है। विशेष रूप से अनुग्रहित हूँ हिंदी ब्लौगिंग के पुरोधा रविरतलामी साब का, श्रद्धेय गुरू पंकज सुबीर जी का, सुश्री अल्पना जी का, शैलेश जी का और अपनी अनुजा कंचन का।

...इधर बहुत दिनों से कोई ग़ज़ल नहीं हुई थी पोस्ट पर। गुरूजी का हुक्म हुआ, तो उन्हीं के आशिर्वाद से सँवरी एक छोटी बहर की ग़ज़ल प्रस्तुत है। बहरे-रज़ज में 2212-2212 के वजन पर।

तू जब से अल्लादिन हुआ
मैं इक चरागे- जिन हुआ

भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ

पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ

काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ

झीलें बनीं सड़कें सभी
बारिश का जब भी दिन हुआ

रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ

आया है वो कुछ इस तरह
महफ़िल का ढ़ब कमसिन हुआ


(अशोक अंजुम द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका "अभिनव प्रयास" के जुलाई-सितंबर 09 अंक में प्रकाशित)

04 May 2009

तनख्वाह मैं जब लेके आऊँगा, तेरे ही हाथों में दूँगा...

कुछ गीतों में, नज़्मों में आदत-सी होती है, जिंदगी से- अपनी, हमारी जिंदगी से जुड़ जाने की। एक ऐसा ही गीत मुझसे भी आकर जुड़ गया था और ये जुड़ना मुझे ले जाता है ग्यारह साल पीछे। वर्ष 1997। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के तीन कड़े सालों का प्रशिक्षण संपन्न कर मैं देहरादून आया ही था भारतीय सैन्य अकादमी में अपनी आखिरी एक साल की विशेष ट्रेनिंग के लिये।...और वहीं मुलाकात हुई मेजर भाष्कर से- हमारे प्रशिक्षक हुआ करते थे। हमें तरह-तरह के शारीरिक परिश्रमों में उलझाये रहने के अलावा उनका जो एक और शौक था, वो था गिटार का।...आहहाहा !! व्हाट गिटार प्ले ! यदि वे Hotel California बजा रहे हों अपने गिटार पर तो मजाल है कोई कह सके कि ये Eagles का लीड गिटारिस्ट खुद फेल्डर नहीं हैं या फिर अपनी मस्ती में भाष्कर सर जब अपने गिटार पर Summer Of 69 की धुन निकाल रहे होते, तो फर्क करना मुश्किल हो जाता था कि हम कैसेट में स्वंय ब्रायन एडम्स को सुन रहे हैं या अपने भाष्कर सर को ...

...और फिर एक दिन उनसे ये गीत सुन लिया मैंने। एक फौजी का अपनी प्रेयसी को लुभाने का प्रयत्‍न। अपनी सीमित आय में, वो और क्या दे सकता है जंगलों-पहाड़ों के सिवा और सुनाने को चंद किस्सों के अलावा। आप में से अधिकांश लोगों ने उस दिन ये गीत सुन ही लिया होगा ताऊ के साक्षात्कार में। एक बार फिर से-

सोना न चाँदी न कोई महल जानेमन तुझको मैं दे सकूँगा
फिर भी ये वादा है तुझसे तू जो करे प्यार मुझसे
छोटा-सा घर एक दूँगा, सुख-दुख का साथी बनूँगा
सोना न चाँदी न कोई महल जानेमन...

जब शाम घर लौट आऊँगा, हँसती हुई तुम मिलोगी
मिट जायेंगी सारी सोचें बाँहों में जब थाम लोगी
छुट्टी का दिन जब भी होगा हम खूब घूमा करेंगे
दिन-रात होठों पे अपने चाहत के नग्में लिखेंगे
बेचैन दो दिल मिलेंगे
सोना न चाँदी न कोई महल जानेमन...

गर्मी में जाके पहाड़ों पे हम गीत गाया करेंगे
सर्दी में छुप कर लिहाफ़ों में किस्से सुनाया करेंगे
रुत आयेगी जब बहारों की, फूलों की माला बुनेंगे
जाकर समन्दर में दोनों सीपों के मोती चुनेंगे
लहरों की पायल सुनेंगे
सोना न चाँदी न कोई महल जानेमन...

तनख्वाह मैं जब लेके आऊँगा, तेरे ही हाथों में दूँगा
जब खर्च होंगे वो पैसे, मैं तुझसे झगड़ा करूँगा
फिर ऐसा होगा खुदी से, कुछ देर रूठी रहोगी
सोचोगी जब अपने दिल में, तुम मुस्कुरा कर बढ़ोगी
आकर गले से लगोगी
सोना न चाँदी न कोई महल जानेमन तुझको मैं दे सकूँगा...

...वो दिन था और ये गीत आकर बस गया मेरा एक अपना वाला गीत बन कर। सोचा था कि आपलोगों को इसके धुन से भी परिचय करवाऊँगा। अपनी आवाज में। गीत रिकार्ड भी कर लिया है। किंतु अब समझ में नहीं आ रहा कि इसे पोस्ट में लगाऊँ कैसे। ...तो बच गये आप सब मेरी इस कर्कश आवाज को सुनने से। वैसे बचपन में मोहम्मद रफ़ी बनने की तमन्ना संजोये हुये था। हा! हा!! हा!!!

खैर, इस गीत की धुन के बाबत...कुछ साल पहले सलमान खान और नीलम की एक फिल्म आयी थी एक लड़का एक लड़की- याद आया? तो उस फिल्म का एक गाना है "छोटी-सी दुनिया मुहब्बत की है मेरे पास और तो कुछ नहीं है..."। उस गाने के बोल और थीम इसी गीत पर बसे हैं और लगभग धुन भी। यदि आप सब में से किसी के पास इस सलमान खान वाली फिल्म के गाने का mp3 हो तो मुझसे साझा करने की कृपा करें।।...और यदि आप में से कोई इस गीत के रचयिता के बारे में जानते हों या कुछ और जानकारी रखते हों, तो ताउम्र ऋणि रहूँगा।

भाष्कर सर तो कर्नल के रैंक से सेवानिवृत हो पूर्णतया गिटार को समर्पित जीवन जी रहे हैं....कहते हैं doctors and soldiers never retire....!!!