10 July 2015

उलटबाँसी

एक विलोम सा कैसा चिपका हुआ संग मेरे...उलटबाँसी जैसा क्या तो कुछ | क्या कहता था वो बूढ़ा फ़कीर उस सूखे पेड़ के नीचे बैठा...हर्फ़-हर्फ़ अफ़साना देखा, जुमलों में कहानी / कविता में क़िस्सागोई और क़िस्से में कविताई... 




तुमने जब से ज़िंदगी लिखा
तलब सी लगी है ख़ुदकुशी की मुझे

अभी उस दिन जब सहरा कहा था ना तुमने
मेरे शहर में झूम कर बारिश हुई थी
भीगी तपिश देखी है तुमने ? 
या भीगा पसीना ही ? 
उस रोज़ बारिश पसीने में नहाई हुयी थी
...उसी रोज़, जब तुमने सहरा पर बांधा था जुमला 

रतजगे वाली नज़्म पढ़कर तो घराई नींद आई थी
शायद नज़्म पढ़ते-पढ़ते ही सो चुका था मैं
बाद अरसे के मालूम चला कि वो पन्ना देर तक सुबुकता रहा था 
और एक किसी ख़्वाब के ठहाके छूट रहे थे 

ये किस चौंध, 
ये किस चमक का ज़िक्र छेड़ा था तुमने 
कि पूरा का पूरा वजूद एक अपरिभाषित से अँधेरे में डूबा जाता है 
अब कोई गीत उठाओ अमावस का
मैं चाँद होना चाहता हूँ

सुनो, एक अफ़साना तो बुनो कभी
धुयें की तासीर पर 
मुँहलगी ये मुई सिगरेट छूटती ही नहीं 

हाँ प्रेम तो लिखना ही कभी मत तुम !

01 July 2015

एक अक्षराशिक़ का विरहकाव्य

सुनो, चाँदनी के द लिपटे दुख पर अब भी भारी है धूप के प में सिमटा हुआ प्रेम...स्मृतियों में चुंबन के ब से होती बारिश, तुम्हें भी तो भिगोती होगी ना ?




खुलता है यादों का दरीचा
चाँदनी के द से अब भी
बचा हुआ है धूप के प में  प्रेम अभी भी थोड़ा सा
यादों में चुंबन के ब से होती है बारिश रिमझिम
और रगों में ख़ून उबलता तेरे ख़्वाबों के ख़ से

बाद तुम्हारे ओ जानाँ...
हाँ, बाद तुम्हारे भी जब तब

तेरी तस्वीरों के त से र तक एक तराना है
तनहाई का ताल नया है
विरह का राग पुराना है
एक पुरानी चिट्ठी का च बैठा है थामे चाहत
स्मृतियों की संदूकी में
तन्हा-तन्हा अरसे से
एक गीत के गुनगुन ग से हूक ज़रा जब उठती है
कहती है ओ जानाँ तेरा ज बड़ा ही जुल्मी है
एक कशिश के क से निकलती कैसी तो कैसी ये कसक
बुनती है फिर मेरी-तुम्हारी एक कहानी रातों को

बिना तुम्हारे भी जानाँ...
हाँ, बिना तुम्हारे भी अक्सर

यूँ तो मोबाइल का ल अब लिखता नहीं कोई संदेशा
उसके इ में है लेकिन इंतज़ार सा कोई हर पल
मौसम के म पर छाई है हल्की सी कुछ मायूसी
और हवा का ह भी हैरत से अब तकता है हमको

इतना भी मुश्किल नहीं है बिना तुम्हारे जीना यूँ
हाँ, जीने का न बैठ गया है चुपके से बेचैनी में
और धुएँ के बदले उठती सिसकी सिगरेट के स से

ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !