29 December 2008

युद्ध के बादल,ईश्वर की उलझन और देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को...

सिसकता हुआ ये २००८...निरीह बना हुआ...२००९ के लिये बिछा हुआ राह बनाता-सा !!!

नये साल में हम सब की इतनी कोशिश तो रहनी ही चाहिये कि हम २६/११/२००८ वाली मुंबई को न भूलें.सब "कारगिल" भूल चुके हैं,लेकिन वो चलता है.क्योंकि कारगिल में सैनिकों ने जान दी थी.हम सैनिकों का काम है ये.इसीलिये हमें सरकार तनख्वाह देती है.मगर मुंबई ....???

वर्ष के इन आखिरी दिनों में मेरे घर में परमपिता परमेश्वर सर्वशक्तिशाली भगवान पे बड़ी उलझन आन पड़ी है.मेरी माँ ,दुर्गा-भक्त, हर रोज सिंहवाहिनी से ये प्रार्थना करती है कि युद्ध के ये उमड़ते-घुमड़ते बादल छँट जाये ताकि उसके इकलौते (सु)पुत्र को वर्षों बाद मिले इस शांत-सुकुन भरी पोस्टिंग को छोड़कर सीमा पर न जाना पड़े.लेकिन दुसरी तरफ मैं ,उसका ये (कु)पुत्र,अपने इष्ट देवों के देव महादेव से ये मनाता रहता हूं कि ये बादल न सिर्फ उमड़े-घुमड़े,बल्कि जोर-जोर से गरजे और फिर खूब-खूब बरसे.
अब आप ही बताइये अपना ईश्वर किसकी सुने...और-तो-और महादेव और माँ दुर्गा की छोटी मुर्तियाँ एक ही कमरे के एक ही तक्खे पे विराजित हैं.

इन उमड़ते "बादलों" पर और भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ,किंतु इस हरी वर्दी को पहनते समय ली गयी शपथ रोकती है हमें कुछ और कहने से...

आईये, आप सब मेरे मित्र-गण मेरे लिये और अपने इस हिंदुस्तान के आत्म-सम्मान के लिये प्रार्थना करे इस "बादल" के बरसने की ताकि इस सिसकते २००८ की इस आखिरी बेला में लहुलुहान-सा ये मुल्क अपना .खोया आत्म-सम्मान वापस ले और २००९ एक नया सबेरा लेकर आये.

फिलहाल एक मतला और दो शेर मुखातिब हैं :-

दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्‍ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को

प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को

साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को

...पूरी गज़ल अगले वर्ष सुनाऊँगा.तब तक के लिये विदा.आप सब को २००९ की ढ़ेर सारी शुभकामनायें और "मुंबई" को न भूलते हुए मेरी प्रार्थना में शामिल रहियेगा...!!!!

23 December 2008

तू जो गया तो अहसासों का,मन अब इक खाली बटुआ है...

...वो कहते हैं न कि पुराने का मोह नहीं छुटता.तो अपनी एक पुरानी रचना को बहर में लाने का प्रयास कुछ यूं बना है:-

जब से मुझको तू ने छुआ है
रातें पूनम दिन गिरुआ है

इक बीज पड़ा है इश्क का तो
नस-नस में पनपा महुआ है

तू जो गया तो अहसासों का
मन अब इक खाली बटुआ है

टूटा है तो दर्द भी होगा
दिल तो शीशम ना सखुआ है

तेरे चेहरे की रंगत से
मेरा हर मौसम फगुआ है

फेरो ना यूं नजरें मुझसे
बहने लगेगी फिर पछुआ है

हँस के तू ने देख लिया तो
जग ये सारा हँसता हुआ है

...कहीं-कहीं कमजोर रह गयी है,जानता हूं.आप सब मशवरा दें और सुधारने का.


(मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित)

15 December 2008

जरा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे...

अभी उसी दिन तोरूपम जी ने अपने ब्लौग पर एक बड़ी ही प्यारी गज़लनुमा कविता सुनायी थी अपनी नन्हीं बेटी की बाल-कारगुजारियों पर.पढ़ कर एक अपना शेर याद आया.सुनाना चाहता हूँ.लेकिन साथ में शेष गज़ल भी सुननी होगी.

बहर है:- बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है:- १२२२-१२२२-१२२२-१२२२

उठेंगी चिलमनें अब तो यहाँ तू देख किस-किस की
चलो खोलो किवाड़ें,दब न जाये कोई भी सिसकी

जलूँ जब मैं, जलाऊँ संग अपने लौ मशालों की
जलाये दीप जैसे जब जले इक तीली माचिस की

सितारे उसके भी,हाँ,गर्दिशों में रेंगते देखा
कभी थी सुर्खियों में हर अदा की बात ही जिस की

उसी के नाम का दावा यहाँ हाकिम की गद्‍दी पर
फ़सादें जो सदा बोता रहा है, यार चहुँ दिस की

हवाओं के परों पर उड़ने की यूँ तो तमन्ना थी
पड़ा जब सामने तूफां,जमीं पैरों तले खिसकी

अगर जाना ही है तुमको,चले जाओ,मगर सुन लो
तुम्हीं से है दीये की रौशनी औ’ हुस्न मजलिस की

...और अंत में मेरी बेटी तनया{मेरी इकलौती मुकम्मल गज़ल} के लिये

जरा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे
थकन सारी मैं भूलूँ यक-ब-यक दिन भर के आफिस की


{मासिक पत्रिका "आजकल" के जून 2010 वाले अंक में प्रकाशित}

08 December 2008

उसने खद्‍दर पहना साहिब...

..आक्रोश दबता हुआ...लोग फिर से लौटते हुये अपनी सामान्य क्रिया-कलापों की ओर...एक बार फिर से झकझोरे जाने के लिये निकट भविष्य में ऐसे ही किसी घृणित और कायरतापूर्ण आतंकवादी कारवाई से-चंद और "उन्नियों" के शहीद हो जाने तक.

एक पुराने और प्रचलित रदीफ़ पे मेरा ये प्रयास देखें और देख कर त्रुटियों से अवगत कराना न भूलें.
२२-२२-२२-२२ के वजन पर:-


सीखो आँखें पढ़ना साहिब
होगी मुश्‍किल वरना साहिब

सम्भल कर इल्जामें देना
उसने खद्‍दर पहना साहिब

तिनके से सागर नापेगा
रख ऐसे भी हठ ना साहिब

दीवारें किलकारी मारे
घर में झूले पलना साहिब

पूरे घर को महकाता है
माँ का माला जपना साहिब

सब को दूर सुहाना लागे
ढ़ोलों का यूँ बजना साहिब

कितनी कयनातें ठहरा दे
उस आँचल का ढ़लना साहिब

(नैनिताल से निकलने वाली द्विमासिक पत्रिका "आधारशिला" के जनवरी-फरवरी 09 अंक में प्रकाशित)

01 December 2008

मेजर उन्नीकृष्णन की यादें और तिरंगा अनमना निकला...

तमाम मिडिया,अखबारों और हिंदी ब्लौग पर / से उभरता ये आक्रोश...मेरे होंठों पे एक विद्रुप-सी हँसी फैल जाती है.एक विचित्र-सी उदासीन भरी तल्लीनता के साथ सारे पोस्ट पढ़े और एक पर भी टिप्पणी करने की इच्छा नहीं हुई.

"उन्नी" करीब था.जुनियर था,मगर करीब था मेरे.वो भी अन्य कितने ही सिपाहियों की तरह कहीं कश्मीर या असम-नागालैंड के सुदूर जंगलों में लड़ता धराशायी होता तो शायद किसी मेहरबान अखबार के तीसरे पन्ने के एक कोने में जगह पाता या कीड़ॊं की तरह गिजमिजाये खबरिया चैनल के स्क्रीन में नीचे दौड़ते टिक्कर पे जगह पाता.शुक्र है उसे अपनी बहादुरी और भारतीय सेना का जौहर दिखाने का मौका मुल्क के सबसे बड़े होटल में एक स्वप्न समान आपरेशन में मिला...कमबख्त फ़ौजियों को ढ़ंग से शोक तक मनाना नहीं आता.

चलिये एक गज़ल सुन लिजिये.आज ही मुकम्मल हुई है.

बहर है--> बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२

परों का जब कभी तूफ़ान से यूँ सामना निकला
कि कितने ही परिंदों का हवा में बचपना निकला

गली के मोड़ तक तो संग ही दौड़े थे हम अक्सर
मिली चौड़ी सड़क जब,अजनबी वो क्यूं बना निकला

न जाने कह दिया क्या धूप से दरिया ने इतरा कर
कि है पानी का हर कतरा उजाले में छना निकला

मसीहा-सा बना फिरता था जो इक हुक्मरां अपना
मुखौटा हट गया,तो कातिलों का सरगना निकला

जरा खिड़की से छन कर चांद जब कमरे तलक पहुँचा
दिवारों पर तिरी यादों का इक जंगल घना निकला

दिखे जो चंद अपने ही खड़े दुश्मन के खेमे में
नसों में दौड़ते-फिरते लहू का खौलना निकला

....और अंत में एक शेर "उन्नी" तेरे लिये

चिता की अग्नि ने बढ़ कर छुआ था आसमां को जब
धुँयें ने दी सलामी,पर तिरंगा अनमना निकला


(जोधपुर से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "शेष" के जुलाई-सितंबर ०९ अंक में प्रकाशित)