03 April 2013

तेरे ही आने वाले महफ़ूज 'कल' की ख़ातिर...


...सब कुछ थमा हुआ था जैसे| पहाड़ों ने कंधे उचकाने बंद कर दिये थे, पत्थरों ने सिसकारी मारना छोड़ दिया था, चीड़ की टहनियों ने गर्दन हिलाना भुला दिया था...कुछ गतिमान थी तो बस वो हवा...वो तेज उद्दंड बदतमीज बर्फ उड़ाती हवा| उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उसके इस तेज बहाव से धवल श्वेत लिबास में लिपटे योगी बने पहाड़ों को कितनी तकलीफ़ होती है और कितना कष्ट होता है इन पहाड़ों के शिखरों की सुरक्षा में डटे नए चरागों को| कौन समझाता इस मुंहजोर हवा को| ऐसे में पत्थरों का सरदार बर्फीली हवा को अपने पोर-पोर पर झेलता इस शिखर से उस शिखर डोलता है, नए चरागों के हौसलों को बुलंद रखने की कोशिश करता है...और इस कोशिश के आगे धीरे-धीरे हवा परास्त हो जाती है...पहाड़ों के शिखरों से एक मिली-जुली गुनगुनाहट उभरती है...इक ग़ज़ल अपना सर उठाती है :-  

उकसाने पर हवा के आँधी से भिड़ गया है
मेरे चराग का भी मुझ-सा ही हौसला है

रातों को जागता मैं, सोता नहीं है तू भी
तेरा शगल है, मेरा तो काम जागना है

साहिल पे दबदबा है माना तेरा ही तेरा
लेकिन मेरा तो रिश्ता, दरिया से प्यास का है

कब तक दबाये मुझको रक्खेगा हाशिये पर
मेरे वजूद से ही तेरा ये फलसफ़ा है

अम्बर की साज़िशों पर हर सिम्त खामुशी थी
धरती की एक उफ़ पर क्यूँ आया ज़लज़ला है

तेरे ही आने वाले महफ़ूज 'कल' की ख़ातिर
मैंने तो हाय अपना ये 'आज' दे दिया है

मेरी शहादतों पर इक चीख़ तक न उट्ठे
तेरी खरोंच पर भी चर्चा हुआ हुआ है



...और फिर यूँ हुआ कि ग़ज़ल गुनगुनाते हुये शिखरों के सुर में अपना सुर मिलाने लगी है ये हवा भी...चीड़ की टहनियाँ फिर से झूम कर गरदन हिलाने लगी हैं अपनी...बर्फ की चादर लपेटे योगी बने साधनारत पहाड़ों के कंधे बराबर उचकने लगे हैं...और...और ...नए चरागों की लौ अपने पूरे शबाब पर हैं |