13 June 2011

एक स्कौर्पियो, एक लोगान और राष्ट्रीय-राजमार्ग पर एक प्रेम-कविता का ड्राफ्ट...


गर्मी की कोई तपती-सी दोपहर थी वो| ...तपती-सी? कश्मीर में?? ग्लोबल वार्मिंग की इंतहा! झेलम के साथ-साथ मंडराता हुआ राष्ट्रीय राजमार्ग 1A कुछ उफन-सा रहा था| मौसम की गर्मी से या फिर ट्रैफिक की अधिकता से- कहना मुश्किल था| सफेद रंग का एक स्कौर्पियो- सरकारी स्कौर्पियो, जून की तपिश से पिघलती सड़क और रेंगती ट्रैफिक के बावजूद किसी हिमालयन कार-रैली की स्पीड को भी मात करता हुआ अपने गंतव्य की ओर अग्रसर था, जब उसे एक लाल...इंगलिश में मरून कहना बेहतर होगा, रंग की लोगान ने सरसराते हुये ओवरटेक किया| दिल धड़का था जोर से- स्कौर्पियो का या फिर स्कौर्पियो के स्टेयरिंग-व्हील पे बैठे चालक का, जानना रोचक होगा| एक कविता या यूँ कहना बेहतर होगा कि एक प्रेम-कविता के ड्राफ्ट से भी ज्यादा कशिश थी उस जोर-से धड़कने में| दिल के|

अमूमन स्कौर्पियो के उस सरफ़िरे चालक को किसी भी गाड़ी द्वारा ओवरटेक किया जाना व्यक्तिगत अपमान से कम नहीं लगता था, लेकिन बात लोगान की थी और वो भी लाल...मरून रंग के लोगान की| आह...!!! अगले चालीस मिनट झेलम के संग-संग मंडराते-पिघलते राष्ट्रीय-राजमार्ग 1ए पर एक अद्भुत प्रेम-कविता दृष्टि-गोचर थी| सफेद स्कौर्पियो का पूरे रास्ते लाल...ओहो, मरून लोगान की खूबसूरत-सी "बैकसाइड" के साथ चिपके हुये चलना, इस पूरे सदी की हिन्दी-साहित्य में लिखी गई तमाम प्रेम-कविताओं की जननी{mother of all the love-poems ever written in Hindi literature, as they say in English} की उपमा दिये जाने के काबिल था| यकीनन!

लगभग पचीस किलोमीटर की दूरी, जो उस सफेद स्कौर्पियो और उस स्कौर्पियो-चालक के लिए हमेशा पंद्रह मिनट से ज्यादा की नहीं होती थी, उस रोज़ चालीस मिनट ले गयी| कोई ट्रांस-सी, कोई मंत्रमुग्ध-सी अवस्था में डूबे थे दोनों ही- चालक भी और वो सफेद स्कौर्पियो भी| ...और जब अचानक से उस मरून लोगान ने राजमार्ग को छोड़ते हुये एक बाँयें की तरफ वाली सड़क को थाम लिया, तो वो प्रेम-कविता सदी की शायद सबसे उदास कविता में परिवर्तित हो गई| उदास कौन था ज्यादा- स्कौर्पियो या चालक, ये भी जानना रोचक होगा|

देर रात गए उस स्कौर्पियो-चालक की डायरी का दिनों बाद खुला एक पन्ना:-

मेरे प्यारे डायरी,
बड़े दिनों बाद तुझसे मुखातिब हूँ आज| कैसा है तू? व्यस्त हैं दिन| व्यस्त हूँ मैं| बहुत-बहुत| मिस किया मुझे? मैंने नहीं| विश्वास करेगा? आज पंथा-चौक से अवन्तिपूरा तक मैंने एक घंटे लिए ड्राइव करने में| can you believe this, यार मेरे? वजह... हम्म! thats an interesting question!! अपने स्कौर्पियो को इश्क हो गया था रास्ते में- love at first sight! सच्ची| ओह, कम ऑन! मुझे नहीं!! सच कह रहा हूँ!!! तुझसे क्या झूठ बोलना? मैं तो बस सम्मान दे रहा था उस लोगान को| हा! हा!! धर्मवीर भारती की एक कविता याद आ रही है जाने क्यों इस वक्त| सुनेगा? सुन:-

तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो !

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन !
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !


...वैसे कविता के साथ-साथ याद तो पिछले जनम की वो उस भीगी-सी शाम वाली लोगान-राइड की भी आ रही है| लेकिन यूँ ही मन किया तुझे ये कविता सुनाऊँ| बहुत थक गया हूँ| चल, शुभ-रात्रि!



दिनो बाद खुले डायरी के उस पन्ने के बंद हो जाने के बाद... रात पूरी बीत जाने के बाद भी....जब करवटें, बिस्तर की सिलवटों में किसी भीगी शाम वाली एक लोगान पे की गई लांग ड्राइव को फिर जी रही हैं... और जब वो सफेद स्कॉर्पिओ, कोने के गैराज़ में चुपचाप खड़ा गुम है, दिन की उस चालीस मिनट की यादों में.... वो लाल लोगान, ओह सॉरी, मैरून लोगान, जाने कहाँ दूर किसी सभ्यता में पहुँच चुकी होगी....!!