09 April 2018

क़िस्सागोई करती आँखें

ग़ज़ल जैसी विधा के साथ जिस तरह का सौतेला सलूक होता आया है इस हिन्दी-साहित्य में, उस बिना पर किसी युवा रचनाकार द्वारा इस विधा को अपनाने के निर्णय पर कई सवाल उठते हैं मन में | पाठकों, लेखको और आलोचकों द्वारा समवेत...सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली विधा, सबसे ज्यादा गुनी जाने वाली विधा जाने क्यों हिन्दी साहित्य के पन्नों पर हाशिये पर ही रखी जाती है तमाम विमर्शों में, सारी चर्चाओं में, समस्त समीक्षाओं में | ऐसे में कविता की छंद-मुक्त आसानी को छोड़ कर ग़ज़ल की अनुशासित मुश्किल ज़मीन पर पाँव बढ़ाने का निर्णय लेते हुये जब कोई प्रदीप कान्त जैसा रचनाकार दिखता है, तो प्रथम दृष्टि में ऐसे रचनाकार के लिए एक सहानुभूति सी उपजती है…लेकिन फिर ग़ज़ल का विचक्राफ्ट ही कुछ ऐसा है कि वो सहानुभूति एकदम से कब सम्मान में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता | साल भर से प्रदीप की ये ग़ज़लों की किताब "क़िस्सागोई करती आँखें" मेरे हाथों में है...अपने मुखतलीफ़ मिसरों के जरिये मुझसे क़िस्सागोई करती हुयी |

प्रदीप छोटी बहर वाले बड़े शायर होने की संभावना लिए हुये दिखते हैं अपनी ग़ज़लों में | ख़ुद टूटे-फूटे शेर कह लेता हूँ तो जानता हूँ कि छोटी बहर में शेर बुनना कितना दुश्वार होता है | कुल 67 ग़ज़लों की ये किताब प्रदीप के अंदर के कुलबुलाते कवि की महज एक छोटी-सी झलकी दिखाती है...जैसा कि प्रसिद्ध गीतकार यश मालवीय जी किताब की भूमिका में लिखते हैं “समकालीन कविता के सारे तकाजे पूरे करता प्रदीप के भीतर का कवि इस कठिन और मुश्किल समय की आँखों में आँखें डालकर बोलता-बतियाता है” | “कबीरा” रदीफ़ को लेकर हज़ारों ग़ज़लें कही गई होंगी अब तक, लेकिन प्रदीप एकदम अलग से खड़े दिखते हैं जब इस रदीफ़ को चस्पाँ कर बुनते हैं वो मिसरे अपनी ग़ज़ल के लिये और यही वो ग़ज़ल थी जिसे बहुत पहले किसी पत्रिका में पढ़ने के बाद प्रदीप कान्त का नाम भी मेरे ज़ेहन में उनकी रदीफ़ की तरह चस्पाँ रह गया था...

गुज़र रही है उमर कबीरा
हुआ नहीं कुछ मगर कबीरा
बड़ा वक़्त का सच है लेकिन
छोटी तेरी बहर कबीरा
आती-जाती रहती तट पर
कब रुकती है लहर कबीरा

अपने मिसरों के टटकेपन से, कहन की फ्रेशनेस से और क़ाफ़ियों के चुनाव से प्रदीप कई बार शॉक सा देते हैं मुझ जैसे पाठकों को | उनका लिखा ये दो शेर तो जाने कितनी दफ़ा कोट कर चुका हूँ मैं...

बुरे वक़्त में दिलासों की तरह
यादें कुछ रहीं कुहासों की तरह
राज़ उनका भी सुन लिया हमने
तमाम दूसरे खुलासों की तरह

“पेट है, पीठ है, सर भी है / और उसूलों की फिकर भी है” या फिर ”कौन गया है रखकर इतने / आँखें दो हैं, मंज़र इतने” या...या फिर “थोड़े अपने हिस्से हम / बाकी उनके किस्से हम” जैसे शेर बुनकर प्रदीप हठात खुद भी चौंकते होंगे कि अरे ये तो बड़ा-सा शेर हो गया | हम पाठक तो चौंकते ही हैं...पढ़कर एक उफ़ सी निकालते हुये | “क़िस्सागोई करती आँखें” के सफ़े-दर-सफ़े पर उड़ते हुये आप अचानक से होवर करने लगते हैं किसी ख़ास शेर पर और या तो फिर उस शेर को अपनी ज़ुबान पर उसी वक़्त रट्टा मारा कर सहेज लेते हैं या थोड़ी मेहनत करके उतार लेते हैं अपनी छोटी-सी डायरी में | एक रचनाकर के लिये इस से बड़ा ईनाम भला और क्या हो सकता है कि उसका पाठक उसके लिखे को कहीं और सहेज ले | ऐसे कितने ही शेरों पर धूल उड़ाते हेलीकॉप्टर की तरह होवर करते हुये (जहाँ होवर करते हुये हेली के रोटर्स धूल उड़ाते हैं, एक पाठक के ज़ेहन में रचनाकार का लिखा विचारों की धूल उड़ाता है) जब आप ठिठके रहते हैं एक किसी ख़ास मिसरे पर...वज़ह बेशक कुछ भी हो...प्रदीप के संदर्भ में वो कोई सेलेक्टेड क़ाफ़िया हो सकता है, कहन हो सकती है, शेर की बुनावट हो सकती है ...एक बात एकदम से कौंधती है कि जैसे शायर ने सचमुच इन बातों को जीया है, महसूस किया है | ऐसे ही होवर करता मेरा पाठक-मन जिन चंद शेरों को उठा कर अपनी हर जगह साथ ले जाने वाली डायरी में सहेज लेता है, उनमें से कुछ की बानगी...

फ़िक्र अगर हो रोटी की तो
ख़्वाब चुभेगा बिस्तर में फिर

जितने हुये साकार, बहुत हैं
यूँ तो ख़्वाब फ़लक भर आये

मोड़ के आगे मोड़ बहुत
रही उम्र भर दौड़ बहुत

काम न आये ग़ज़लों के
भूले-बिसरे मिसरे हम

जग के दुख में खोया फिर से
देख कबीरा रोया फिर से
रहा जमूरा भूखा-प्यासा
मस्त मदारी सोया फिर से

कहाँ हमारा हाल नया है
कहने को ही साल नया है
नहीं सहेगा मार दुबारा
गाँधी जी का गाल नया है

प्रदीप के इन तमाम अच्छी-अच्छी बातों से परे, जब हम ग़ज़ल की बात कर रहे होते हैं, तो साथ में कायदे-क़ानून, डिसिप्लीन और ग्रामर की भी बात कर रहे होते हैं | साहित्य की तमाम विधाओं में बस ग़ज़ल ही वो एक विधा है जो डिसिप्लीन के नाम पर आपको टस से मस नहीं होने देती और इसी डिसिप्लीन के दायरे में “क़िस्सागोई करती आँखें” तनिक कमज़ोर नज़र आती है | काफ़ियों का भटकाव, बहर का घुमाव, रदीफ़ का अलगाव...ये सब अलग-अलग और कई बार एक साथ मिलकर प्रदीप की कुछ ग़ज़लों को ग़ज़ल कहलवाने की अनुमति नहीं देता | दो-एक बार झुंझलाहट भी होती है कि क्यों किया कवि ने ऐसा | नहीं, ऐसा तो नहीं है कि उसे मालूम नहीं है...एक तरह की जल्दबाज़ी-सी दिखती है या फिर किसी दो-एक शेर के प्रति उभरा हुआ अतिरिक्त मोह दिखता है जो प्रदीप को किताब में नहीं रखने की हिम्मत नहीं दे पाता | व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि प्रदीप ने थोड़ी-सी शीघ्रता दिखाई है किताब प्रकाशित करने में |

बोधि प्रकाशन से निकली हुयी ये किताब अपनी छपाई और अपने आवरण और बाइंडिंग से मन मोह लेती है | वैसे इन दो-एक सालों में बोधि प्रकाशन ने एक तरह की क्रान्ति का आगाज़ किया है प्रकाशन की दुनिया में अपनी अच्छी छपाई के बावजूद किताब का दाम कम-से-कम रखकर | इस किताब का दाम भी महज चालीस रुपये है | पेपर-बैक में इतने अच्छे पन्नों और और इतनी शानदार प्रिंटिंग के साथ इतना कम दाम रखने लिये तमाम बोधि प्रकाशन की टीम को एक कड़क सैल्यूट |



प्रदीप कान्त को समस्त शुभकामनाओं के साथ उनको इस ख़ास शेर के लिये शुक्रिया :-

तमाम शहर की हँसी कम थी
एक बच्चा अगर उदास रहा

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