गणतंत्र-दिवस के विहंगम परेड के दौरान बँटे विभिन्न पुरूस्कारों को देखते हुये मन में कई भाव उठे। तमाम पुरूस्कार विजेताओं की बहादुरी पर कोई शक नहीं। किंतु यहाँ अपने मुल्क़ में शौर्य, वीरता, दुश्मनों से भिड़ना-अपनी जान की परवाह किये बगैर, अपने साथियों की जान बचाने के लिये खुद को गोलियों के समक्ष बेझिझक ले आना---इन तमाम बातों के अलावा ये भी जरूरी है कि आप ये सब कारनामा कहाँ दिखा रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि "जगह" ज्यादा महत्वपूर्ण है।
खैर...एक और अपनी गज़ल आप सब के समक्ष रख रहा हूँ इस्लाह के लिये। त्रुटियाँ,कमियाँ बताकर अनुग्रहित करें।
4 X 22 के वजन पर बिठाने का प्रयास है:-
उनका हर एक बयान हुआ
दंगे का सब सामान हुआ
नक्शे पर जो शह्र खड़ा है
देख जमीं पे बियाबान हुआ
झोंपड़ ही तो चंद जले हैं
ऐसा भी क्या तूफ़ान हुआ
कातिल का जब से भेद खुला
हाकिम क्यूं मेहरबान हुआ
कोना-कोना घर का चमके
है जब से वो मेहमान हुआ
आँखों में सनम की देख जरा
कत्ल का मेरे उन्वान हुआ
एक हरी वर्दी जो पहनी
दिल मेरा हिन्दुस्तान हुआ
....विदा,अगली मुलाकात तक के लिये !!!
30 January 2009
एक हरी वर्दी जो पहनी, दिल मेरा हिन्दुस्तान हुआ...
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
बहरे मुतदारिक
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
19 January 2009
झगड़ा है कैसा आखिर,जब दिल्ली-सा लाहौर बना है...
आप सबों को गणतंत्र-दिवस की सहस्त्रों मुबारकबाद। आप सब का दिल से आभारी हूँ,मेरी इस गज़ल की दाद देने के लिये। कुछ कमी थी बहरो-वज़न और रिदम में। शुक्रगुजार हूँ खास तौर पर अज़ीज़ मानोशी जी, आदरणीय योगेन्द्र जी, आदरणीय मुफ़लिस जी और बगैर तक्ख्ल्लुस वाले मनु जी का जिन्होंने बड़ी विनम्रता से कमियों की तरफ इंगित किया। और शुक्रगुजार हूँ परम आदरणीय श्री महावीर जी का जिन्होंने इस गज़ल के जरिये छंद का नया सबक सिखाया। किंतु ये गज़ल के रूप में अब आयी है तो बस श्रद्धेय गुरूजी श्री पंकज सुबीर जी की सड़ाक-सड़ाक पड़ती बेंतों और उसमें छुपे आशिर्वादों से।
अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे,जो
आज तिरा सिरमौर बना है
चांद को रोटी कह कर घर में
फिर खाना दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाजे
ये हम सब का ठौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर किस्सा इक और बना है
इसकूलों में आये जवानी
बचपन का ये तौर बना है
झगड़ा है कैसा आखिर,जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
यूं ही हौसला बढ़ाते रहिये और सिखाते रहिये मुझे....शुक्रिया !!!
(मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित)
अब के ऐसा दौर बना है
हर ग़म काबिले-गौर बना है
उसके कल की पूछ मुझे,जो
आज तिरा सिरमौर बना है
चांद को रोटी कह कर घर में
फिर खाना दो कौर बना है
बंद न कर दिल के दरवाजे
ये हम सब का ठौर बना है
तेरी-मेरी बात छिड़ी तो
फिर किस्सा इक और बना है
इसकूलों में आये जवानी
बचपन का ये तौर बना है
झगड़ा है कैसा आखिर,जब
दिल्ली-सा लाहौर बना है
यूं ही हौसला बढ़ाते रहिये और सिखाते रहिये मुझे....शुक्रिया !!!
(मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
बहरे मुतदारिक,
मासिक वर्तमान साहित्य
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
02 January 2009
प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी...
नव वर्ष की आप सब को शुभकामनायें.प्रस्तुत है पिछले साल वाली पूरी गज़ल.श्रद्धेय गुरू पंकज सुबीर जी के सतत स्नेह और आदरणीय सतपाल जी के सुझावों से कहने लायक हो सकी है.२२२२-२२२२-२२२२-२२२ के मीटर पर बाँधी गयी,पेश है :-
दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को
प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को
साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक्त गंवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को
हुस्नो-इश्क पुरानी बातें,कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लायी सोती रूह जगाने को
पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गयी जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी भी आये तो गरमाने को
टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भींचेंगे हम,हाथ मिले याराने को
साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को
अपने हाथों की रेखायें कर ले तू अपने वश में
तेरी रूठी किस्मत ’गौतम’,आये कौन मनाने को
(त्रैमासिक पत्रिका "लफ़्ज़" के सितम्बर-नवंबर 09 अंक में प्रकाशित)
दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को
प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को
साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक्त गंवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को
हुस्नो-इश्क पुरानी बातें,कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लायी सोती रूह जगाने को
पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गयी जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी भी आये तो गरमाने को
टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भींचेंगे हम,हाथ मिले याराने को
साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को
अपने हाथों की रेखायें कर ले तू अपने वश में
तेरी रूठी किस्मत ’गौतम’,आये कौन मनाने को
(त्रैमासिक पत्रिका "लफ़्ज़" के सितम्बर-नवंबर 09 अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
त्रैमासिक लफ़्ज़
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
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