30 January 2018

छबीला रंगबाज़ का शहर

इक शहर खुलता है अपने पूरे विस्तार में...पन्नों पर बिखरे काले हर्फ़ों से निकल कर अपने चंद अजब-ग़ज़ब से किरदारों को संभाले, जो कतई तौर पर उस शहर से संभाले नहीं संभल रहे होते,...और इन तमाम असंभाल ‘संभालों’ के दरम्यान हमें मिलता है एक युवा क़िस्सागो की करिश्माई क़िस्सागोई का निशान ! प्रवीण कुमार की किताब “छबीला रंगबाज़ का शहर” दो सौ बीस पन्ने में फैली हुई चार कहानियाँ सुनाती है हम पाठकों को...और किस अदा से सुनाती है, उफ़ !

इन कहानियों से गुज़रते हुए एक अपरिभाषित किस्म का सुकून हासिल होता है...एक तरह का आश्वासन जैसा कुछ कि लिखने वालों की हर रोज़ उमड़ती जा रही भीड़ में भी क़िस्सागोई की कला गुम नहीं हुई है...कि प्रवीण जैसे कुछ युवा भी हैं इस भीड़ में जो अपने हट-कर-के शिल्प, अपनी सम्मोहक शैली और अपने-बिलकुल ख़ास अपने- ‘विट’ से एक आम सी लगने वाली कहानी को भी कितना विशिष्ट बना देते हैं |

किताब की पहली कहानी, जो कि शीर्षक कहानी भी है, अपेक्षाकृत लम्बी है और अपने फैलाव में उपन्यास का विस्तार समेटे हुए है | कथ्य कुछ इस कदर से बुना है लेखक ने कि शहर का नाम कहीं ना आते हुए भी पाठक के ज़ेहन में वो मुल्क के नक़्शे वाला असली शहर आकर बैठ जाता है...चाहे वो जैन धर्म के अवशेषों की चर्चा मात्र से हो या फिर अमर सेनानी कुंवर साब के ज़िक्र से | यूँ कहानी बुने जाने के क्रम में पत्रकार अरूप का किरदार मुख्य किरदार से कहीं ज्यादा वृहत हो गया है....जाने ये लेखक का सायास प्रयास था या फिर उसकी विलक्षण क़िस्सागोई की ही असंख्य अदाओं में एक और अदा ! दूसरी कहानी “लादेन ओझा का संसार” तनिक प्रेडिक्टेबल होते हुए भी अपनी कसी हुई बुनावट और चंद अनूठे किरदारों के लिए याद रखी जाने वाली कहानी है | “नया ज़फरनामा” मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर सम्मोहक सटायर करते हुए जाने कैसी तो टीस उठाती है पढ़ते वक़्त सीने की अनंत गहराईयों में | किताब की चौथी और आख़िरी कहानी “चिल्लैक्स लीलाधारी” हास्य और करुण रस का ऐसा बेजोड़ कॉकटेल है कि पाठक-मन बस उह-आह करते रह जाता है लेखक की लेखकीय बाज़ीगरी पर |

“छबीला रंगबाज़ का शहर” अपने किताबी अवतार में मनमोहक है और क़िस्सागोई की लुप्त होती कला को एक अलग ही आयाम देती है | प्रवीण कुमार का क़िस्सागो बड़ी चतुराई से कथ्य में नयेपन की कमी का अपनी लेखनी के गुदगुदाते विट, अपनी भाषा की दमकती सुन्दरता और अपने शिल्प की चटकती ताज़गी से आभास तक नहीं होने देते | यही इस किताब की ख़ूबसूरती है | राजपाल की बाइंडिंग, प्रिंटिंग और पन्नों की क्वालिटी क़ाबिले-तारीफ़ है | कवर का डिजाइन, किताब के अंदर बने हुए स्केच और कहानियों के शीर्षक का आकर्षक फौंट में दिया जाना...सब मिलकर जुलकर जैसे लेखक के जुदा से शिल्प को कॉम्प्लीमेंट से करते नज़र आते हैं |

बस दो सौ पचीस रुपये की क़ीमत पर उपलब्ध ये किताब ख़रीदे जाने और ख़रीद कर अपनी आलमारी में संजोये जाने की ज़िद करती है | किताब के ऑन-लाइन ऑर्डर के लिए अमेजन के इस लिंक का इस्तेमाल किया जा सकता है :-

अमेजन 



...और अंत में प्रवीण कुमार को टोकरी भर-भर कर धन्यवाद इन लाजवाब कहानियों के लिए और समस्त शुभकामनाएँ उनके लम्बी लेखकीय पारी के लिए जिसकी शुरूआत ही इतनी धमाकेदार हुई है !

22 January 2018

डोलते कलेंडर की ऐ उदास तारीख़ो !

[ कथादेश के जनवरी 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का ग्यारहवाँ पन्ना ]


नयी तारीख़ें अब उदास करती हैं | पहले नहीं करती थीं | तब...उन गुज़र चुके स्वप्न सरीखे बचपने में घड़ी की सुईयों को तेज़-तेज़ घुमा कर, कलेंडर के पन्नों को जल्दी-जल्दी पलट कर देख लेना चाहता था कि क्या-कुछ रख रक्खा है अपने बही-खाते में भविष्य के आनेवाले बरस और सालों ने और अब...जाने क्यों नए वर्ष की आमद एक अपरिभाषित सी मायूसी से भर देती है | इस गगनचुम्बी पर्वत-श्रृंखला, जहाँ जाने कितनी सदियों से मैं सरहद की निगरानी में बैठा हूँ, से भी ज़्यादा ऊँचा और विशाल दिखता ये दो हज़ार अठारह का साल एक अनाम सी बेचैनी से भर रहा पूरे वजूद को | अपने आगमन पर फिलहाल इठलाता...अपने होने पर किलकारियाँ मारता ये नया साल क्या अपने आख़िर तक भी यूँ ही इठलाता और किलकारियाँ मारता नज़र आएगा ?

नीचे सभ्यता में नए वर्ष का उल्लास पूरी उमंग से मनाया जा रहा | बधाई के लिए आ रहे कॉल्स और व्हाट्सएप मैसेजेज क्षुब्ध कर रहे मन को | फेसबुक पर चस्पां होती दोस्तों की बधाईयाँ और तस्वीरें ख़ुशी कम, टीस ज़्यादा दे रही हैं | हाँ, सरहद पार से अच्छा-ख़ासा सरप्राइज मिला | उस पार से बधाई और शुभकामनाएँ प्रेषित करने के लिए उनका ऑफिसर आया था उनकी सामने वाली पोस्ट पर | अमूमन तो उनकी सेना के ऑफिसर रहते नहीं हैं हमारी तरह इन फॉरवर्ड पोस्ट पर...तो एक तरह का ‘सरप्राइज’ ही था मेरे लिए, जब संदेशा मिला | चिल्ला कर बधाई दे रहा था वो लम्बा-छरहरा सा गोरा-गोरा मेजर | नाम पूछा तो बताया नहीं कमबख्त़ ने | कह रहा था कि “सर, आवर कमान्डिंग ऑफिसर सेंड्स हिज रिगार्ड्स एंड बेस्ट विशेज टू यू एंड योर एंटायर बटालियन” | मैंने पूछा कि वो ख़ुद क्यों नहीं आये तो उस लम्बे-छरहरे गोरे-गोरे से मेजर का तनिक सकुचाया सा जवाब था कि “ही इज अ बिट बीजी, सर” | उसकी सकुचाहट अच्छी लगी | कहीं-ना-कहीं से सरहद पार वाले मेजर की ये सकुचाहट प्रतीत करा रही थी कि हमारी सेना के ऑफिसरों का अपने जवानों के साथ हर जगह कंधे-से-कंधा मिलाकर साथ रहना और उनकी सेना के ऑफिसरों का फ्रंट-लाइन से बहुत पीछे रहना, हमारी सेना को एक ‘एडेड एडवांटेज’ देता है | बगल में स्नाइपर लिए कैमोफ्लाज्ड बैठा हुआ लान्स नायक महिपाल सिंह फुसफुसा कर पूछता है इसी बीच...”साब, टपका दूँ इस मेजर को ?” | महिपाल के इस मासूम से पूछे गए सवाल पर मेरा ठहाके लगा कर “चुप बे” कहना पोस्ट के जवानों की पहली जनवरी को तनिक कम उल्लासमय कर गया, जिसकी भरपायी मुझे फिर बाद में उनके साथ ढ़ोलक और हारमोनियम पर संगत देकर करनी पड़ी | लंगर में तयशुदा ‘बड़ाखाना’ कश्मीरी पुलाव और पूरियों के साथ-साथ पोस्ट के जवानों का फेवरिट पोर्टर इरशाद अहमद वाणी के हाथों का पकाया रिसता, वाज़वान और गुश्तावा भी लपेटे हुए था | अहा...इन कश्मीरियों के सब-के-सब हाथों ने अगर एके सैंतालिस की जगह इन्हीं वाज़वान और गुश्तावे की नुमाईश की होती तो आज धरती का ये कथित जन्नत दुनिया के सर्वोत्तम फूड-टूरीज़म की सरदारी करता नज़र आता !

खैर, उस लजीज़ बड़ेखाने के बाद यूँ हुआ कि जवानों की फ़रमाइश पर अपनी लिखी कविता सुनाने की तत्परता में अपना लिखा कुछ याद ही नहीं आया और तात्कालिक रूप से फेसबुक पर एक बहुत ही प्यारे से दोस्त की एक कविता मेरी गुमशुदा याददाश्त को उबारने के लिए उपस्थित हो गयी मोबाइल के स्क्रीन पर | तू भी सुन ले डायरी डियर, नीरज द्विवेदी की ये सच्ची-सी मुच्ची कविता...   

जिस वक़्त संविधान को खीसे में डाल और
लोकतंत्र के चबूतरे पर बैठ
नेतागण सब दे रहे होंगे लम्बे-लम्बे भाषण
मार्क्स और लेनिन के लड़ाके
कर रहे होंगे काग़ज़ों पर क्रांतियाँ
मूंछों पर ताव देते फेसबुकिये कवि
लिख रहे होंगे टूटही रचनाएँ

मैं, एक सिपाही...
आठ बाय आठ के तम्बू में बैठ कर
ढूँढ रहा होऊंगा
तुम्हारे प्रेम में डूबी
अपनी एक-बटा-चार कविताओं का नया अर्थ
और
जोड़ रहा होऊंगा अपने जीवन का हासिल 

इधर कविता सुन कर सारे के सारे अपने-अपने महबूब की स्मृतियों में गुम हो गए और उधर कंपनी-पोस्ट के नीचे...ठीक नीचे सड़क के परली तरफ़, सरसराती-बलखाती बहती हुई, अपने सकुचाये सिमटे साहिलों के बीच में सिकुड़ी हुई झेलम एक अजीब तल्ख़ी से अम्बर को निहारती पूछ रही है...चिल्ले-कलाँ* तो शुरू हो गया, अब कब बरसाओगे बर्फ़ के फाहे ? अम्बर का विस्तार उसकी रहस्यमयी ख़ामोशी को तनिक और तिलिस्मी बना रहा है और पूरी वादी झुंझलायी-सी चिहुँक रही है अम्बर की इस अकड़ी ऐंठ पर | अम्बर ऐंठा है कि कमबख़्त बादलों को तो फ़ुरसत ही नहीं, फिर उसे क्या पड़ी है | सूरज संग चुहलबाज़ी में उलझे बादलों की नज़र न वादी की झुंझलाहट भरी चिहुँक पर है और न ही सिमटी झेलम की तल्ख़ी पर | मसला अम्बर और बादलों के अंह-टकराव का है और दोष दिया जा रहा है ग्लोबल वार्मिंग को इस साल-दर-साल वादी में विलंबित होती बर्फ़बारी का | पिछले साल तो अब तक दो बार बर्फ़ गिर चुकी थी | ये विलंबित बर्फ़बारी जहाँ नीचे वादी में फ़सलों की उपज और सेबों की लालिमाओं पर असर डालेगी, वहीं जेहादियों द्वारा घुसपैठ के प्रयासों की फ्रीक्वेंसी भी तो प्रभावित होगी |
 
अब कर भी दो बर्फ़बारी ओ मौसम के ख़ुदाओं...कि केसर की ख़ुशबू से डल और वुलर का पानी सही वक़्त पर महके...कि सेब के टपकते रस से झेलम और किशनगंगा के साहिल सुबहो-शाम वुजू कर सके...कि हर लम्हा मुस्तैद इन सीमा-प्रहरियों को तनिक सुकून की नींद लेने वाली रातें हासिल हो...कि तुम्हारे ख़ुदा होने पर यक़ीन बरक़रार रहे, हाँ वही यक़ीन जो अभी-अभी इस बीते साल में वैसे भी अपना वजूद खोते-खोते रह गया है !

इन सब बातों से परे मेरे बंकर में नए साल के उपलक्ष्य पर कैसी तो नयी रौनक और गर्माहट आ गयी है दीपिका पादुकोण की हज़ार वाट वाली हँसी से | दीपिका को लेकर मशहूर मेरी दीवानगी का आलम कुछ यूँ फैला है कि छुट्टी से लौटा ‘यंगस्टर’ मेरे लिए नए साल का ख़ूबसूरत सा कलेंडर ले आया, जिसमें हर महीने के पन्ने पर दीपिका अपना दिलकश पोज लिए भिन्न-भिन्न अदाओं में अवतरित होती है | कितना बड़ा कॉन्ट्रास्ट है ना...नए साल की मायूस करती तारीख़ों संग दीपिका की दमकती हँसी ! एक ग़ज़ल के कुछ शेर हुए हैं अभी-अभी...

छू लिया जो उसने तो सनसनी उठी जैसे
धुन की गिटार की नस-नस में अभी-अभी जैसे

जैसे-तैसे गुज़रा दिन, रात की न पूछो कुछ
शाम से ही आ धमकी, सुबह तक रही जैसे

तुम चले गए हो तो वुसअतें सिमट आयीं
ये बदन समन्दर था, अब हुआ नदी जैसे 

डोलते कलेंडर की ऐ उदास तारीख़ो !
रौनकें मेरे कमरे की हैं तुमसे ही जैसे

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[ *चिल्ले-कलाँ = कश्मीर की सर्दी का चालीस दिनों वाला सबसे सर्द हिस्सा, जो अमूमन 20 या 21 दिसम्बर को शुरू होकर 30 या 31 जनवरी को संपन्न होता है ]