17 January 2012

रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में कुछ छुटे हुये पैग पुराने...

     हमेशा से...हमेशा ही से अटका रह जाता है "पुराना" साथ में...जेब में, आस्तीन में, गिरेबान में, स्मृति में, स्पर्श में, स्वाद में, आँखों में, यादों में...मन में| 


     ग़ालिब की छुटी शराब के मानिंद ही रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में इस "पुराने" का छोटा-बडा पैग बनता रहताहै...इत-उत...जब-तब| 


बहुत भाता है पुराना 
कब से जाने

तब से ही तो...

तीन, तीस या तीन सौ...? 
लम्हे, दिन, महीने या साल ...?? 
कितनी पुरानी हो गई हो तुम...??? 
इतराती हो फिर भी  
है ना ? 
कि रोज़ ही नयी-नयी सी लगती हो मुझे... 


रफ़ी के उन सब गानों की तरह 
सुनता हूँ जिन्हें हर सुबह 
हर बार नए के जैसे 


या वही वेनिला फ्लेवर वाली आइस-क्रीम का ऑर्डर हर बार 
कि बटर-स्कॉच या स्ट्रबेरी को ट्राय कर 
कोई रिस्क नहीं लेना...


लॉयेलिटी का भी कोई पैमाना होता है क्या? 
तुम्ही कहो... 


तुम भी तो लगाती हो वही काजल 
रोज़-रोज़ अल-सुबह 
उसी पुरानी डिब्बी से
तेरा वो देखना तो फिर भी 
नया ही रहता है हरदम 


 ...और वो जो मरून टॉप है न तेरा 
जिद चले जो मेरी तो रोज ही पहने तू वही 
अभी चार साल ही तो हुए उसे खरीदे 
अच्छी लगती हो उसमें अब भी 
सच कहूँ, तो सबसे अच्छी 


सुनो तो, 
ग़ालिब के शेरों से नया कोई शेर कहेगा क्या 
हर बार तो कमबख़्त नए मानी निकाल लाते हैं 
जब भी कहो 
जब भी पढ़ो 


बहुत भाता है बेशक पुराना मुझको 
अच्छा लगे है मगर 
तेरा ये रोज़-रोज़ नया दिखना...





         नए साल का छप्पर लगे दो हफ़्ते गुज़र गये, मगर बीता साल है कि अब भी टपक रहा है कई-कई जगहों से बारिश की बूंदों के जैसे| बीस-बारह{2012} की ये पहाड़-सी ऊँचाई शायद घिस-घिस कर कम लगने लगे इसी पुराने के टपकते रहने से| आमीन...!!!