26 April 2010

सुख की मेरे पहचान रे...

विगत कुछ दिनों से ब्लौग से एक अपरिभाषित-सी दूरी बन गयी है। मोह-भंग, कुछ अपनी व्यस्ततायें, वादी में गर्माता माहौल, ब्लौग-जगत की अजीबो-गरीब लीलायें...तमाम वजहें हैं, लेकिन वो कहते हैं ना कि शो मस्ट गो ऑन तो इसी कहन के हवाले से पेश है एक गीत। पिछले साल नवगीत की पाठशाला के लिये लिखा था मैंने इसे। वहाँ इस गीत पर चर्चा करते हुये गुरूजनों और विशारदों की आलोचनात्मक टिप्पणियों से ज्ञात हुआ कि गीत स्पष्ट नहीं कर रहा कि आखिर ये किससे संबोधित है। अब आपसब के समक्ष है। जरा पढ़ के बताइये कि क्या सचमुच इतना अस्पष्ट है कि किससे मुखातिब है ये रचना:-

सुख की मेरे पहचान रे !
तेरी सहज मुस्कान रे !

कहता है तू
तुझको नहीं
अब पूछता मैं इक जरा
इतना तो कह
है कौन फिर
इन धड़कनों में अब बसा

ले, सुन ले तू भी आज ये
तू ही मेरा अभिमान रे !

हर राग में
तू है रचा
सब छंद तुझसे ही सजे
सा-रे-ग से
धा-नी तलक
सुर में मेरे तू ही बसे

निकले जो सप्‍तक तार से
तू ही वो पंचम तान रे !

आया जो तू,
लौ्टे हैं अब
जीवन में सारे सुख के दिन
कैसे कहूँ
कैसे कटे
ये सब महीने तेरे बिन

हर पल रहे तू साथ में
अब इतना ही अभियान रे !



....मुख्यतया ग़ज़ल-वाला हूँ तो गीत और कविता अपने सामर्थ्य की बात नहीं लगती। ये गीत भी उर्दू की एक बहर(बहरे-रज़ज) पर ही लिखा गया है। इस बहर पर बशीर बद्र की लिखी हुई एक बहुत ही प्यारी ग़ज़ल है जिसे जगजीत-चित्रा के सम्मिलित स्वर ने नया ही आयाम दिया- "सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा-सुना कुछ भी नहीं"। एक इब्ने इंशा की भी लिखी हुई ग़ज़ल याद आती है इस बहर पर- "कल चौदवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा"। ...और चलते-चलते यशुदास का गाया हुआ एक बहुत ही प्यारा गीत याद आ गया, जो इसी बहरो-वजन पे है- "माना हो तुम बेहद हसीं, ऐसे बुरे हम भी नहीं"।

फिलहाल इतना ही।

05 April 2010

जुगलबंदी - दर्पण और अर्श की

कुछ अनूठे और आधुनिक बिम्बों का अपनी कविता, त्रिवेणी, क्षणिका और इन दिनों अपनी कहानी में भी इस्तेमाल कर, दर्पण ने कम समय में ही अपना एक बहुत ही खास स्थान बना लिया है हिंदी ब्लौग-जगत में। वहीं दूसरी तरफ अपने इश्किया शेरों और नाज़ुक ग़ज़लों को लेकर अर्श की पहचान किसी परिचय की मोहताज नहीं रह गयी है। आज प्रस्तुत है दोनों की जुगलबंदी- जहाँ दर्पण की एक प्यारी-सी ग़ज़ल को एक बहुत ही खूबसूरत धुन और अपनी दिलकश आवाज़ से सँवारा है अर्श ने।

दिल्ली में हाल ही में संपन्न हुये विश्व पुस्तक मेला के एक भ्रमण के बाद जमी बैठकी में ये जुगलबंदी साकार हुई, जहाँ सम्मोहित-सा बैठा मैं कुछ यादें चुराता रहा अपने कैमरे में और अपनी एक छोटे से आडियो-रिकार्डर में। पेश है ये खास जुगलबंदी:-






मुस्कुराते रहे दिल लुभाते रहे
बात कुछ और थी, तुम छुपाते रहे

दर्द जैसा मुसलसल ग़ज़ल हो कोई
लोग सदियों इसे गुनगुनाते रहे

इस कदर मुफ़लिसी का चढ़ा है जुनूं
अपने अहसास भी हम लुटाते रहे

एक शोखी नयी, इक नया-सा सुकूं
इस भरम में ही पीते-पिलाते रहे

खैर दुनिया तो हमने भी देखी नहीं
हाँ, मगर एक दुनिया बनाते रहे

जिंदगी रूठ जाने की हद हो गयी
जिंदगी भर तुझे हम मनाते रहे

तुम चले भी गये औ’ गये भी नहीं
होंठ में स्वाद से याद आते रहे

आज जाकर मुकम्मल हुई इक ग़ज़ल
आज अपना ही लिक्खा मिटाते रहे


...ग़ज़ल तो खैर खूबसूरत है ही, इस लाजवाब धुन ने और मोहक आवाज ने इसकी खूबसूरती और बढ़ा दी है। कहीं-कहीं जो अर्श गाते हुये अटक रहे हैं, तो दोष दर्पण की लिखावट का है। बहरो-वजन को तौलते हुये तुरत-फुरत धुन बना कर गा देना, अर्श के ही सामर्थ्य की बात थी। इस बहरो-वजन का जिक्र पहले ही कर चुका हूँ मैं, इसी जमीन पर लिखी मेरी एक ग़ज़ल को जब आप सब के साथ साझा किया था।

फिलहाल इतना ही। अगली पोस्ट पर मिलता हूँ जल्द ही...