26 October 2009

खुद से ही बाजी लगी है, हाय कैसी जिंदगी है

उधर इलाहा्बाद में वो ब्लौगर-संगोष्ठी क्या संपन्न हुयी, विवादों के नये पिटारे खुल गये हैं। समझ में नहीं आता कि हम सबलोगों ने हर चीज का सकारात्मक पहलु देखना बंद क्यों कर दिया है। एक व्यर्थ की तना-तनी के लिये सब कोई कमर कसे तैयार बैठे रहते हैं। एक पहल हुई है, एक प्रशंसनीय शुरूआत है...उसकी सराहना करने के बजाय हम सब जुटे हुये हैं उसके तमाम कमजोर पहलुओं को बेवजह का मुद्दा बनाने में।

खैर, ...अपनी एक ग़ज़ल पेश करता हूँ फिलहाल, इस प्रार्थना से साथ कि अपने इस दुलारे हिंदी ब्लौग-जगत में सौहार्द का माहौल कायम रहे सदा-सदा के लिये।

खुद से ही बाजी लगी है
हाय कैसी जिंदगी है

जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है

करवटों में बीती रातें
इश्क ने दी पेशगी है

रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है

अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है

दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है

कत्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है
{मासिक पत्रिका ’वर्तमान साहित्य’ के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित}
...बहरे रमल की इस दो रूक्नी मीटर{मुरब्बा सालिम} पर अपने ब्लौग-जगत में बिखरे चंद ग़ज़ल रूपी हीरे-मोती-पन्ने ढ़ूंढ़ने की कोशिश में कुछ लाजवाब ग़ज़लें पढ़ने को मिलीं। श्रद्धेय प्राण साब की इसी बहरो-वजन पर एक बेहतरीन ग़ज़ल पढिये नीरज जी के ब्लौग पर यहाँ। आदरणीय सर्वत जमाल साब की दो लाजवाब ग़ज़लें इसी बहरो-वजन पर पढ़िये यहाँ और यहाँदीपक गुप्ता जी की एक नायाब ग़ज़ल इसी बहर में पढ़ें यहाँ। युवा शायर अंकित सफ़र की एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल जो इसी बहरो-वजन पे बुनी गयी है को पढ़ने के लिये यहाँ क्लीक करें।...और चलते-चलते वीनस केसरी का कमाल देखिये इस बहर पे लिखी हुई सबसे छोटे मीटर{एक रूकनी} वाली ग़ज़ल यहाँ

पुनःश्‍च :-
हास्पिटल के सफेद-नीले लिबास से निजात पाये तीन दिन हो चुके हैं। काफी सुधार है। हाथ में कुछ अजीब सी पट्टियाँ बाँधे रखने का आदेश दिया है डाक्टरों ने और डेढ़ महीने बाद वापस बुलाया है। अभी फिलहाल अपने बेस हेड-क्वार्टर में हूँ और पाँच दिनों बाद जा रहा हूँ चार हफ़्ते के अवकाश पर।...तो अगली पोस्ट कोसी-तीरे बसे बिहार के एक सुदूर गाँव से।

...अरे हाँ, इन सब बातों में डाक्टर अनुराग तो रह ही गये! नहीं, उन्होंने मना किया है इस खासम-खास मुलाकात पर कुछ भी लिखने से।

श्रीनगर की उस शाम-विशेष के लिये ढ़ेरम-ढ़ेर शुक्रिया डाक्टर साब...!!!

19 October 2009

ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली

उम्र के इस पायदान पर भी अंदर का बचपन किलकारियाँ मार उठता है छोटी-छोटी खुशियों पर भी। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि दीपावली की शाम को एक स्नेहिल नर्स द्वारा चुपके से आकर कैडबरिज का फ्रूट एंड नट वाला बड़ा-सा पैकेट पकड़ा देना। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि एक दूर-निवासी दोस्त की तरफ से खूब अच्छे से पैक किया हुआ पार्सल का मिलना, जो मेरी पसंदीदा फिल्मों की ढ़ेर सारी डीवीडी से भरा हुआ होता है। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि भारतीय भाषा परिषद की कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ के इस अक्टूबर वाले अंक में अपनी दो ग़ज़लों को छपा देखना...!!! अब वो कैडबरिज या डीवीडी तो आपलोगों के साथ शेयर नहीं कर सकता, हाँ, वागर्थ में छपी अपनी दो ग़ज़लों में से एक जरूर शेयर करूँगा। तो पेश है, मुलाहिजा फरमायें:-

ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली

कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली

जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली

भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली

बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली

दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली

लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली

बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्‍र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
{त्रैमासिक पत्रिका लफ़्ज़ के दिसम्बर10-फरवरी 11 वाले अंक में भी प्रकाशित}

...ग़ज़ल यदि कहने लायक और जरा भी दाद के काबिल बनी है तो गुरूदेव के इस्लाह और डंडे से। इस बहरो-वजन पर बेशुमार गज़लें और गाने लिखे और गाये गये हैं। चंदेक जो अभी याद आ रहे हैं...चचा गालिब की "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले" और फिर जगजीत सिंह की गायी वो प्यारी-सी ग़ज़ल तो आप सब ने सुनी ही होगी "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता"...। इसी मीटर पर रफ़ी साब का गाया गाना याद आ रहा है जो मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ "खुदा भी आस्मां से जब जमीं पर देखता होगा..."। इस बहर पर एक और रफ़ी साब का बहुत ही पुराना युगल गीत चलते-चलते याद आ गया। मेरे ख्याल से "भाभी" फिल्म का है और मुझे बहुत पसंद है- "छुपा कर मेरी आँखों को..."। चलिये ये गाना सुनाता हूँ आपसब को:-



इसी बहर पर अंकित सफ़र की एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़िये यहाँ और उनके ब्लौग पर जाकर इस नौजवां शायर की हौसलाअफ़जाई कीजिये।

15 October 2009

हेडलाइन टूडे के रिपोर्टर गौरव सावंत के नाम

अमूमन हफ़्ते में एक ही पोस्ट लगाता हूँ मैं, लेकिन आज इस पोस्ट को लगाने की एक खास वजह है। विगत तीन दिनों से मन की विचलित हालत सबकुछ अस्त-व्यस्त किये हुये थी। ...और मन की ये विचलित हालत थी इस एक रिपोर्ट की बिना पर। गौरव सावंत एक बहुत ही सम्मानित और भरोसेमंद रिपोर्टर हैं इंडिया टूडे ग्रुप के और मैंने हमेशा उनकी रिपोर्टिंग फौलो की है। विशेष कर उनकी लिखी डेटलाइन कारगिल का मैं फैन रहा हूँ।

इंडिया टूडे ग्रुप की ही चर्चित हेडलाइन टूडे का अपना एक ब्लौग है Hawk Eye जिसके मुख्य कंट्रीब्युटर हैं हेडलाइन टूडे के स्टार कौरेस्पांडेन्ट गौरव सावंत । इसी ब्लौग पर उनकी 25 सितम्बर की प्रविष्टि है, जिसके बारे में मुझे जानकारी बस परसों ही मिली थी। किंतु उनकी ये प्रविष्टि बेसिर पैर की और इधर-उधर की सुनी-सुनाई बातों पर है। अब जिस घटना पर गौरव साब ने इतना कुछ लिखा है, उस घटना को मुझसे ज्यादा करीब से तो किसी ने देखा ही नहीं होगा। खुद वो सृष्टि-निर्माता सर्वशक्तिमान ने भी नहीं । ...और अब जो मैं अपने कमेंट के तौर पर इस स्टार रिपोर्टर की कथित सनसनिखेज प्रविष्टि पर कुछ लिखता हूँ उनके कमेंट बक्से में जाकर तो वो छपता ही नहीं। अपनी सैन्य नजदीकीयों और पारिवारिक पृष्ठ-भूमि का फायदा उठा कर सेना से जुड़े चंदेक खास शब्दों और टर्मिनौलोजी का इस्तेमाल कर लेने से रिपोर्टिंग भारी-भरकम और आकर्षक तो जरूर बन जाती है, लेकिन सत्य से परे होना कई लोगों के लिये दुख और पीड़ा का कारण बन जाती है- इस बात से गौरव साब को क्या मतलब हो सकता है भला।

मुझे नहीं लगता की मेजर सुरेश की दिवंगत आत्मा या पल्लवी या मुझे और मेरे संगी-साथियों को इस गलत और बेबुनियाद रिपोर्टिंग से पहुँचे कष्ट और व्यथा की खबर तक पहुँचेगी गौरव साब को। हिंदी कहाँ पढ़ते होंगे श्रीमान जी???...और मेरी इंगलिश में लिखी टिप्पणियों को उनका ब्लौग स्वीकार नहीं कर रहा। वैसे लिखने को तो ऐसी कई प्रविष्टियाँ मैं इंगलिश में भी लिख सकता हूँ और गौरव साब से कहीं बेहतर इंगलिश में, लेकिन न तो इतना समय है मेरे पास और न ही इच्छा-शक्ति।

चलते-चलते, गौरव साब से बस इतनी-सी इल्तजा है कि get your facts and figures straight sir before writing such reports. for you it may be just the matter of sensationalisation and increased TRP...whereas for others it may be pride-honour as well as pain & death !

05 October 2009

सुरेश की स्मृति में...

आज की शाम तय थी वैसे तो एक बर्थ-डे बैश के लिये, किंतु नियती ने कुछ और ही तय कर रखा था।

वो इकतीस का होता आज। अभी उस 22 सितम्बर की सुबह तक तो हमने आज के इस शाम की बातें की थी...एक खास डांस-स्टेप की बात, जो उसे सिखना था...जो मुझे सिखाना था। मिलेट्री हास्पिटल के इस बेड पर लेटा अब सोच रहा हूँ कि जब मैं ठीक हो जाऊँगा तो क्या अपना वो सिगनेचर स्टेप फिर कभी कहीं डांस करते हुये कर पाऊँगा...? सोच तो ये भी रहा हूँ कि क्या सहज हो कर डांस भी कर पाऊँगा अब मैं कभी...??

मार्च की वो कोई शुरूआती तारीख थी। देहरादून की एक अलसायी दोपहर। एक दिन पहले ही मेरा पोस्टिंग-आर्डर आया था इधर कश्मीर वादी के लिये। मेरा मोबाईल बजा। एक अनजाना-सा नंबर स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था। मेरे हैलो कहते ही उधर से एक गर्मजोशी भरी आवाज आयी थी-" हाय सर! मेजर सुरेश सूरी दिस साइड..." और लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद मुझे इस अनदेखे यंगस्टर के प्रति एक त्वरित लगाव पैदा हो गया था। फिर अपने नये प्लेस आफ ड्यूटी पे रिपोर्ट करने तक सुरेश हर रोज मुझसे रिलिजियसली बात करता रहा और 25 मार्च को हम पहली बार मिले जब वो मुझे रिसिव करने के लिये आया था।

कितनी बातें, कितनी यादें इन विगत छः महीनों की... उसकी हँसी, वो हरेक बात पे उसका "बढ़िया है, सरssss" कहना और कहते हुये "सर" को लंबा खिंचना, उसकी गज़ब की सिंसियेरिटि, उसके वो हैरान कर देने वाले जुगाड़, वो जलन पैदा करने वाला डिवोशन, हर शुक्रवार को रखा जाने वाला उसका व्रत और इस व्रत को लेकर कितनी दफ़ा मेरे द्वारा उड़ाया गया उसका मजाक, वो साथ-साथ लंच करते हुये सैकड़ों बार चंद हैदराबादी रेसिपिज का उसका विस्तृत वर्णन, पार्टियों के दौरान उसके बनाये गये मौकटेल्स और कौकटेल्स, मेरी छुट्टी के दौरान हर रोज उसका वो फोन करके मुझे वैली का अपडेट्स देना और अभी-अभी तो आया था वो खुद ही एक महीने की छुट्टी से वापस पल्लवी को साथ लेकर...

...और इन सबके दरम्यान जाने कहाँ से आ टपकी ये तारीख बाइस सितम्बर वाली। ईद के ठीक बाद वाली तारीख। फिर उसकी तमाम स्मृतियों को भुलाती हुई उसकी वो आखिरी पलों वाली जिद याद आती है अब। बस वो जिद। सोचता हूँ, उन आखिरी क्षणों में उसने जो वो जिद न की होती तो क्या मैं ये पोस्ट लिख रहा होता...? सब कुछ तो प्लान के मुताबिक ही चला था। सब कुछ...??? हमारी ट्रेनिंग के दौरान राइफल की नली से निकलने वाली बुलेट की रफ़्तार, उसका प्रति मिनट कितने चक्कर लगाना, उसकी ट्रेजेक्टरी, उसका इमपैक्ट, उसका इफैक्ट ये सब तो विस्तार से बताया-सिखाया-पढ़ाया जाता है...किंतु प्रारब्ध की रफ़्तार और इसकी ट्रेजेक्टरी के बारे में तो कोई नहीं बताता, कोई नहीं सिखाता है। उसकी सिखलाई OJT होती है- on the job training...उसे वो सर्वशक्तिमान खुद अपने अंदाज़ में सिखाता है।

...बहुत कुछ सुना था, पढ़ा था जिंदगी के आखिरी क्षणों के बारे में कि ये होता है, वो होता है। कोई दिव्य-ग्यान जैसा कुछ होता है। सच कहूँ तो सितम्बर की इस बाइस तारीख को सीखा मैंने कि जिंदगी का कोई क्षण आखिरी नहीं होता। प्रारब्ध जब किसी के होने के लिये किसी और का न होना तय करता है, तो सारी जिंदगी बेमानी नजर आने लगती है...फिर क्या अव्वल, क्या दरम्यां और क्या आखिरी??? बस शेष रह जाते हैं कुछ पल्लवियों के आँसु और शेष रह जाती हैं चंद तस्वीरें :-











I salute you BOY for everything you were...!!!


पुनःश्च :-
आप सब के स्नेह, चिंता, दुआओं, शुभकामनाओं से अभिभूत हूँ। फिलहाल एक सुदूर मिलेट्री हास्पिटल के सफेद-नीले लिबास में लिपटा आप सब के असीम प्यार में डूबा अपनी कर्म-भूमि में वापस लौट जाने के दिन गिन रहा हूँ। जल्द ही ठीक हो जाऊँगा। कभी सोचा भी नहीं था कि अपने इस अभासी दुनिया के रिश्तों से इतना प्यार और स्नेह मिलेगा। ’शुक्रिया’ जैसे किसी शब्द से इसका अपमान नहीं कर सकता...