26 September 2011

चंद अटपटी ख्वाहिशें डूबते-उतराते ख़्वाबों की...

उथली रातों में डूबते-उतराते ख़्वाबों को कोई तिनका तक नहीं मिलता शब्दों का, पार लगने के लिए| मर्मांतक-सी पीड़ा कोई| चीखने का सऊर आया कहाँ है अभी इन ख़्वाबों को? ...और आ भी जाये तो सुनेगा कौन? हैरानी की बात तो ये है कि यही सारे ख़्वाब गहरी रातों में उड़ते फिरते हैं इत-उत| जाने क्या हो जाता है इन्हें उथली रातों के छिछले किनारों पर| छटपटाने की नियति ओढ़े हुये ये ख़्वाब, सारे ख़्वाब...कभी देवदारों की ऊंची फुनगियों पर चुकमुक बैठ पूरी घाटी को देखना चाहते हैं किसी उदासीन कवि की आँखों से...तो कभी झेलम की नीरवता में छिपी आहों को यमुना तक पहुँचाना चाहते हैं...और कभी सदियों से ठिठके इन बूढ़े पहाड़ों को डल झील की तलहट्टियों में धकेल कर नहलाना चाहते हैं|

...और भी जाने कितनी अटपटी-सी ख्वाहिशें पाले हुये हैं ये डूबते-उतराते ख़्वाब| उथली रातों के छिछले किनारों पर अटपटी-सी ख़्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिश्त अभी भी धँसी पड़ी है इन ख़्वाबों के रेत में| कश्यप था कोई ऋषि वो| देवताओं के संग आया था उड़नखटोले पर और सोने की बड़ी मूठ वाली एक जादुई छड़ी घूमा कर जल-मग्न धरती के इस हिस्से को किया था तब्दील पृथ्वी के स्वर्ग में| अटपटी ख्वाहिशों की ये फ़ेहरिश्त तभी से बननी शुरू हुई थी| ये बात शायद इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को नहीं मालूम| उथली रातों ने वैसे तो कई बार बताना चाहा...लेकिन पार लगने की उत्कंठा या डूब जाने का भय इन ख़्वाबों को बस अपनी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त बनाने में मशगूल रखता है|

...फिर ये उथली रातें हार कर बिनने लगती हैं इन ख़्वाबों की अटपटी ख़्वाहिशों को| ख्वाहिशें...पहाड़ी नालों में बेतरतीब तैरती बत्तखों की टोली में शामिल होकर उन्हें तरतीब देने की ख़्वाहिश...चिनारों के पत्तों को सर्दी के मौसम में टहनियो पर वापस चिपका देने की ख़्वाहिश...सिकुड़ते हुये वूलर को खींच कर विस्तार देने की ख़्वाहिश...इस पार उस पार में बाँटती सरफ़िरी सरहदी लकीर को अनदेखा करने की ख़्वाहिश...सारे मोहितों-संदीपों-आकाशों-सुरेशों को फिर से हँसते-गुनगुनाते देखने की ख़्वाहिश...और ऐसे ही जाने कितनी ख़्वाहिशों का अटपटापन हटाने की ख़्वाहिश|

...ऐसी तमाम ख़्वाहिशों को बिनती हुई रात देखते ही देखते गहरा जाती...और इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को मिल जाती है उनकी उड़ान वापिस|