30 October 2017

दुनिया में चंद लोग होते हैं जादूगर...

[ कथादेश के सितम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का सातवाँ पन्ना ]

सरहद की दुनिया...वो दुनिया जिसके बाशिंदे बंकरों और मोर्चों में बसते हैं...एक अजब-गजब सी ही दुनिया है । यहाँ कहकहों का बाँकपन बर्फ़़ीली हवाओं की रगों में गर्मी भरता है | यहाँ के बाशिंदों की वर्दी के हरे-भूरे छापे सर्द मौसमों के सूखे पत्तों को भी हरा करते हैं | यहाँ के रहने वाले इस व्हाट्सएप और फेसबुक की बौरायी रीत से परे अंतर्देशीय और लिफाफों में ख़त लिखते हैं अपने महबूब को और थैले भर-भर के ख़त पाते भी हैं । हफ़्ते पुराने अख़बारों पर यहाँ के बाशिंदें अपनी जानकारी ताज़ा रखते हैं और महीनों तक ताज़ा सब्जी की झलक बिना भी इन बाशिंदों का ख़ून हर लम्हा अपने उफ़ान पर रहता है ।

यहाँ के बाशिंदों द्वारा ख़ुदा के जानिब उछाले गए बेतरतीब बोसों से आसमान में सितारे टूटते हैं और इन्हीं टूटते सितारों पर दुआएँ माँगी जाती हैं नीचे सतह की शेष दुनिया के लोगों द्वारा ।

सरहद की इस दुनिया में उदासी को परमानेंट वीजा नहीं मिलता । ये ठहाकों की दुनिया है...गट्स और ग्लोरी इन ठहाकों के आगोश में सिमट कर यहाँ के मुकम्मल और स्थायी निवासी बन चुके हैं । किन्तु, इन तमाम बातों को अक्सर ही नज़रअंदाज़ कर अनवरत साजिशें बुनी जाती हैं इस दुनिया के मुकम्मल और स्थायी निवासियों को हर चंद रुसवा किये जाने की | कुछ दिन पहले की एक ऐसी ही साजिश की कहानी जब खुली, तो हैरत भी हैरान हुए बैठी रही अनंत काल तक के लिए...

...सुस्त सी धूप में कुनमुनाती हुई अलसाई सी सुबह थी वो | कश्मीर की एक आम सी सुबह, जो अपनी समाप्ति का ऐलान करते-करते दोपहर तक एक बदनाम सुबह में तब्दील हो जानी थी | उस नौजवान मेजर ने शहर के ठीक मध्य में अवस्थित विशाल और दुर्जेय सी प्रतीत होने वाली टावर-पोस्ट की कमान संभाल ली थी नींद खुलते ही हर सुबह की तरह...लेकिन इस सुबह की नियति से बिलकुल अनजान | वो टावर-पोस्ट ख़ास था बहुत...उसकी बनावट, शहर के मुख्य चौराहे पर उसका होना और चारों ओर दूर तक खुला अवलोकन उपलब्ध कराती हुईं उस टावर की खिड़कियाँ...सब मिल कर उसे एक विकट और एक बहुत ही मजबूत सैन्य-चौकी का रुतबा देते थे | उस टावर-पोस्ट का वहाँ होना सेना के आने-जाने वाले काफ़िले और अन्य सैन्य-प्रक्रियाओं के लिए एक आश्वस्ती सा देता हुआ माहौल प्रदान करता था | किन्तु इन्हीं सब ख़ास बातों को और अपनी इन्हीं खसूसियतों को लेकर, वो टावर-पोस्ट स्थानीय लोगों के एक ख़ास तबके की आँखों की किरकिरी भी बना हुआ था |

बीती दोपहर को एक अफ़वाह उड़ी थी सेना के एक जवान द्वारा किसी स्थानीय लड़की के साथ छेड़खानी की, जो कि बाद में ख़ुद ही अपने गढ़े जाने की पोल खोल गयी थी जब लड़की ने पुलिस को दिए गए बयान में सेना के उस जवान की तारीफ़ की थी | लेकिन वो बाद की बात थी...फिलहाल वो नौजवान मेजर तनिक परेशान था इस अफ़वाह से | अपनी परेशानी में भी कहीं-ना-कहीं थोड़ी सी निश्चिंतता ढूंढ रहा था वो कि उसे भरोसा था सत्य की शक्ति में | इन तमाम अफ़वाहों का इकलौता मुद्दा... स्थानीय लोगों को भड़काना और सेना की छवि को बिगाड़ना...मेजर सोच रहा था...आतंकवाद के शुरुआती दौर ने इन इलाकों में चंद सैनिकों द्वारा ज़रूर कुछ गलत हरकतों को होते देखा है...लेकिन विगत दस-बारह सालों से किसी सैनिक द्वारा की हुई ऐसी कोई गलत हरकत स्मृति-पटल पर नहीं कौंधती | इन गुज़िश्ता सालों में, सेना ने अपनी इमेज सुधारी है और नब्बे के दशक के पूर्वार्ध की शुरुआती गलतियों से सबक लेते हुए ऐसी किसी भी गलत हरकतों में लिप्त सैन्य-कर्मियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आयी है | मेजर इन्हीं सब ख्यालों पर मन-ही-मन विमर्श कर रहा था इस अभी-अभी उडी अफवाह के पार्श्व में, जब अचानक से उसकी सोचों में एकदम से हड़कंप मचता है | टावर-पोस्ट के ठीक सामने से आती सड़क पर इकट्ठी होती स्थानीय लोगों की भीड़ एक झटके में आराम से बैठी उस सुबह को चौकन्ना कर गयी थी |

इतने सालों का प्रशिक्षण और इस आतंकवादग्रस्त इलाके का अनुभव...दोनों मिलकर नौजवान मेजर की छठी इंद्रीय को चेतावनी देते हैं | कई दफ़ा देख चुका है वो कि यहाँ भीड़ किस तरह पलक झपकते ही विकराल अवतार धर लेती है | उसके द्वारा लोकल पुलिस को संदेशा देते ही, अपनी फिल्मी अवधारणाओं के विपरीत, पुलिस वक़्त पर पहुँचती है और अब तक लगभग अनियंत्रित हो चुकी भीड़ पर अश्रु-गैस का पहला राउंड फायर करती है | सुबह की नियति...राउंड का खाली शेल भीड़ में एक व्यक्ति के सिर पर गिरता है और उसकी मौत हो जाती है | उस व्यक्ति का शव भीड़ के उन्माद को टावर-पोस्ट की तरफ मोड़ देता है | मेजर हैरत भरी आँखों से देखता है जलते हुये पेट्रोल भरे एक बोतल को भीड़ की तरफ से उड़ कर अपने पोस्ट पर गिरते हुए और उस बोतल के पीछे-पीछे आती हुई पत्थरों की बारिश | टावर-पोस्ट का एक कोना आग पकड़ चुका था...एक और पेट्रोल बम का उस जानिब आना मेजर की सहनशीलता के सामर्थ्य में नहीं था | लाउड स्पीकर पर तीन बार चेतावनी देने के बावजूद जब भीड़ का उन्माद थमता नहीं दिखता है और दूसरा पेट्रोल बम क्षणांश में नज़दीक ही आकर फटता है तो भीड़ का नेतृत्व कर रहे शख़्स की तरफ़ लक्षित करके मेज़र उसके पैरों पर एक गोली मारने का आदेश अपने सैनिक को देता है | सुबह की नियति...गोली की आवाज़ पर हड़बड़ायी भीड़ में लड़खड़ाया हुआ शख़्स पैरों की बजाय गोली अपने सिर पर लेता है |

मेजर अपने सामने उपस्थित समस्त विकल्पों को तौलता है | कुछ और लोगों की गोलीबारी में मौत की क़ीमत पर या अपने साथियों के साथ ज़िंदा जला दिये जाने की क़ीमत पर टावर-पोस्ट की रक्षा में डटा रहे या फिर...| निर्णय ने अपनी सूरत दिखाने में तनिक भी विलंब भी नहीं किया | नौजवान मेजर अपने जवानों के साथ टावर-पोस्ट को तज कर बस थोड़ा ही पीछे स्थित अपने बेस-कैम्प की सुरक्षित चारदीवारी में प्रवेश कर जाता है...प्रार्थना करता हुआ कि किसी ने पूरे घटनाक्रम की वीडियो बनाई हो |

उसे यक़ीन था कि उस पर हत्या का केस दायर होगा | वो तैयार कर रहा था ख़ुद को इन्क्वायरी-दल के सवालों का जवाब देने के लिए और साथ ही दुआ कर रहा था कि उसके चरित्र को जज़ करने वाले कोई भी हो लेकिन कम-से-कम वो लोग ना हों, जिन्हें अपने घर की परिधि में सुरक्षित बैठ कर फेसबुक-व्हाट्सएप पर न्यायाधीश बनने का शौक़ चर्राया हुआ है | सत्य को तोड़ते-मरोड़ते और अपनी कुंठा-वमन करते हुये ख़बरों की हेडलाइन कल के अख़बार में देखने से ख़ुद को बचाना चाहता था वो | लेकिन इतना तो तय था...नौजवान मेजर सोचता है... कि "सेना की फायरिंग में दो लोगों की मौत" एक बेहतर हेडलाइन ध्वनित होती है किसी भी वक़्त, बनिस्पत "उग्र भीड़ ने सेना के एक ऑफिसर और पाँच जवानों को ज़िंदा जलाया" !

...और मुझे वो नौजवान मेजर और ऐसा हर सिपाही किसी जादूगर से कम प्रतीत नहीं होता, जब भी सुनता हूँ ऐसी कोई कहानी...

कहती है ये नज़र
कब क्या हो, क्या ख़बर
दुनिया में चंद लोग होते हैं जादूगर !


---x---

16 October 2017

सैलाब

"कैसे हो, गुरनाम सिंह ?"

"कुछ तो बोलो गुरनाम !"

"तुम्हारी बीवी मिलने आई है तुमसे गुरनाम !"

...मिलेट्री हॉस्पिटल का वो आईसीयू का चैम्बर विगत कुछ दिनों से लगभग इन्हीं पुकारों से लगातार गूंजायमान हो रखा था । आतंकवादियों के साथ एक मुठभेड़ के दौरान सिपाही गुरनाम सिंह के बुलेटप्रूफ पटके को किनारे से छूती हुई एक गोली उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर अटक गई थी । एक अंतहीन-सी प्रतीत हो रही सर्जरी के बाद डाक्टरों ने मस्तिष्क के रहस्यमयी गलियारों में गुमशुदा उस गोली को तो निकाल लिया था...लेकिन सर्जरी के तुरंत बाद ही गुरनाम कोमा में चला गया था ।

अभी कुछ दिन पहले ही होश आया उसे, किंतु अभी ना तो वो किसी को पहचान पा रहा था और ना ही कोई बात कर पा रहा था । उस घातक मुठभेड़ के पश्चात गुरनाम का जहाँ जीवित बचा रह जाना ही अपने-आप में किसी चमत्कार से कम नहीं था...वहीं अभी-अभी आये कमबख़्त होश को जैसे ज़िद पड़ी थी कि उसे भी एक चमत्कार चाहिये ।

पंजाब के सुदूर गाँव से आये उसके माता-पिता और नवेली दुल्हन उस मिलेट्री हॉस्पिटल की भव्यता और डाक्टरों-नर्सों के चमकते यूनीफ़ॉर्म के मिले-जुले रौब के साये में सकुचाये से ज़ियादा कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे । पतली-सी, दुबली-सी नई दुल्हन सिर पर दुपट्टा ओढ़े बस चुपचाप बैठी रहती गुरनाम के बेड के साथ...मुँह झुकाये टपटप आँसुओं की बारिश करते हुये ।

उधर दो दिन पहले एक और मुठभेड़ में आतंकवादियों की गोलियों से घायल हुये और इसी आईसीयू में भर्ती हुये, गुरनाम के बगल वाले बेड पर लेटे हुये लेफ्टिनेंट कर्नल साब इस बात से आशंकित थे कि दुश्मन की गोलियों से तो बच गये...लेकिन इस पतली-सी, दुबली-सी दुल्हन की आँखों से बरसता आँसुओं का ये सैलाब ज़रूर इस आईसीयू चैंबर में लेटे सारे फ़ौजियों को डूबो कर मारेगा ।

गुरनाम को कोमा से बाहर आये और उसकी गुमी हुई याददाश्त की उम्र अपने पाँचवें रोज़ पर थी, जब जम्मू से लेफ्टिनेंट कर्नल साब के बाल-सखा, एक कोई खन्ना जी, आये थे मिलने । नाटे से खन्ना जी को अपने बुलंद कहकहों और पंजाबी कल्चर पर बड़ा ही गुमान था । आम हिंदुस्तानी की तरह खन्ना जी को भी बेड पर घायल दोस्त से ज़ियादा पड़ोसियों की कहानी में दिलचस्पी थी । गुरनाम का पूरा ब्यौरा मिलते ही, जाने तो किस रौ में उठे खन्ना जी और शुरू हो गये अपनी ठेठ पंजाबी में...

"होर भारा, तेरा नाम की है ?"

चंद छोटे-छोटे कहकहों के साथ खन्ना जी ज़ारी रहे...

"ओय गुरनामsss किद्दा हो ?" हह हह हह ...यार तू कुछ बोलदा क्यों नहीं...कुछ तो बोल तुस्सी  हह हह हह !”

...और अचानक जैसे देववाणी-सी उतरी कोई स्वर्ग से । बेड पर लेटे गुरनाम के होंठों में जुम्बिश हुई...

"मेरा नाम सिपाही गुरनाम सिंह है, ते तुस्सी कौन हो...होर किथों आये हो ?"

आईसीयू के उस आठ बेड वाले चैम्बर में जैसे ख़ुशी ख़ुद ही साक्षात उतर कर कार्ट-व्हील और समर-साल्ट करने लगी थी उस वक़्त । गुरनाम को तुरत-फुरत घेर लिये डाक्टरों की टोली बस इसी निष्कर्ष पर पहुँची कि चमत्कार की प्रतिक्षा में अटकी पड़ी वो ज़िद्दी नीम-सी होशी को दरअसल गुरनाम के मातृभाषा वाले करेंट की दरकार थी ।

...उधर बगल के बेड पर लेटे लेफ्टिनेंट कर्नल साब का वो सैलाब में डूब मरने का भय एकदम से अपने चरम पर पहुँच गया था कि उस पतली-सी, दुबली-सी नवेली दुल्हन की हिचकियाँ अब तो अरसे से भरे पड़े बादलों की तरह आँसुओं की मूसलाधार बारिश करवा रही थीं ।


[photo curtsey menxp.com]


"वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता" 

---x---


09 October 2017

उड़ी बाज़ू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा

बंधा धागे से था फिर भी वो बेचारा मचल उट्ठा
उड़ी बाज़ू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा

हवा का ज़ोर था ऐसा...रिबन करता तो करता क्या
मनाया लाख ज़ुल्फ़ों ने, वो दोबारा मचल उट्ठा

उठाया सुब्‍ह ने पर्दा, तो ली खिड़की ने अंगड़ाई
गली के पार अधलेटा-सा ओसारा मचल उट्ठा

बजी घंटी, दुपट्टे खिलखिलाते क्लास से निकले
अचानक सूने-से कॉलिज का गलियारा मचल उट्ठा

बस इक उँगली छुयी थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
न जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा

पुराना ख़त निकल आया, पुरानी फाइलों से जब
उठी ख़ुश्बू कि ऑफिस यक-ब-यक सारा मचल उट्ठा

छबीले चाँद ने बादल के चिलमन को उठाया यूँ
फ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा मचल उट्ठा

अकेली रात थी आधी, बुझा था बल्ब कमरे का

सुलगती याद यूँ चमकी कि अँधियारा मचल उट्ठा

[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]

03 October 2017

करुणा में हमेशा एक निजी इतिहास होता है

[ कथादेश के अगस्त 2017 अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का छठा पन्ना ]

रातों को जैसे खत्म ना होने की लत लग गयी है इन दिनों...बर्फ क्या पिघली, जाते-जाते कमबख़्त ने जैसे रातों को खींच कर तान दिया है | इतनी लम्बी रातें कि सुबह होने तक पूरी उम्र ही बीत जाये ! "रोमियो चार्ली फॉर टाइगर...ऑल ओके ! ओवर !" छोटे वायरलेस सेट पर की ये “ऑल ओके” की धुन इन लम्बी रातों में गुलज़ार की नज़्मों और ग़ालिब के शेरों से भी ज़्यादा सूदिंग लगती है | बंकर के कोने में उदास पड़े सफेद लम्बे भारी भरकम स्नो-बूट्स के तस्मों से अभी भी चिपके हुये दो-एक बुरादे बर्फ के, फुसफुसाते हुये किस्सागोई करते सुने जा सकते हैं...  उन सुकून भरी बर्फ़ीली रातों की किस्सागोई, जब जेहाद के आसेबों को भी सर्दी लगती थी |

...और इन लम्बी-लम्बी रातों में आकार बदलते चाँद से ही गुफ्तगू होती है अक्सर | मगर ये कमीना चाँद इतनी जल्दी-जल्दी क्यों अमावस की तरफ भागता है ? बर्फ़ पिघल जाने के बाद तो इस मुए चाँद की रौशनी की ही तो दरकार है सरहद पर चौकस निगह-बानी की ख़ातिर | इन लम्बी रातों वाले मौसम तलक भूल नहीं सकता है क्या ये बदमाश अपनी फेज-शिफ्टिंग के आसमानी हुक्म को ?

कल रात बड़ी देर तक ठिठका रहा था वो आधा से कुछ ज्यादा चाँद अपनी ठुड्ढी उठाए सरहद के उस पार पहाड़ी पर बने छोटे से बंकर की छत पर | अज़ब-गज़ब सी रात थी...सुबह से लेकर देर शाम तक लरज़ते बादलों की टोलियाँ अचानक से लापता हो गईं रात के जवान होते ही | उस आधे से कुछ ज्यादा वाले चाँद का ही तिलिस्म था ऐसा या फिर दिन भर लदे-फदे बादल थक गए थे आसमान की तानाशाही से...जो भी था, सब मिल-जुल कर एक विचित्र-सा प्रतिरोध पैदा कर रहे थे | ....प्रतिरोध ? हाँ, प्रतिरोध ही तो कि दिन के उजाले में उस पार पहाड़ी पर बना यही बंकर सख़्त नजरों से घूरता रहता है इस ज़ानिब राइफल की नली सामने किए हुये और रात के अंधेरे में अब उसी के छत से कमबख़्त चाँद घूर रहा था |  न बस घूर रहा था...एक किसी गोल चेहरे की बेतरह याद भी दिला रहा था बदमाश...

सोचा था...हाँ, सोचा तो था बताऊंगा उसको आयेगा जब फोन कि उठी थी हूक-सी इक याद उस सरहद पार वाले बंकर की छत पर ठुड्ढी उठाए चाँद को ठिठका देख कर | गश्त की थकान लेकिन तपते तलवों से उठकर ज़ुबान तक आ गई थी और
कह पाया कुछ भी तो नहीं...| सोच रहा हूँ, अब के जो दिखा बदमाश यूँ ही घूरता हुआ...उठा लाऊँगा उस पार से और रख लूँगा तपते तलवों पर स्लीपिंग बैग के भीतर | अभी जो उस गोल चेहरे वाली का फोन आये तो पूछूँ उससे...तेरी इस हूक-सी याद का उठना कुफ़्र तो नहीं चाँद को देखकर कि जब जा बसा हो वो मुआ चाँद दुश्मनों के ख़ेमे में ?

...और ये आँखें जाने क्यों नम हो आयी हैं ?

विगत हजार...दस हजार सालों से
, जब से ये हरी वर्दी शरीर का हिस्सा बनी है, इन आँखों ने आँसु बहाने के कुछ अजब कायदे ढ़ूंढ़ निकाले हैं । किसी खूबसूरत कविता पे रो उठने वाली ये आँखें, कहानी-उपन्यासों में पलकें नम कर लेने वाली ये आँखें, किसी फिल्म के भावुक दृश्‍यों पे डबडबा जाने वाली ये आँखें, मुल्क के इस सुदूर कोने में फोन पर अपनी दूर-निवासी प्रेयसी की बातें सुन कर भीग जाने वाली आँखें, हर छुट्टी से वापस ड्‍यूटी पर आते समय माँ के आँसुओं का मुँह फेर कर साथ निभाने वाली ये आँखें...आश्‍चर्यजनक रूप से किसी मौत पर आँसु नहीं बहाती हैं । अभी हफ्ते भर पहले भी नहीं रोयीं, जब नीचे जंगल में वो नौजवान मेजर सीने में तेरह गोलियाँ समोये अपने से ज्यादा फ़िक्र अपने गिरे हुये जवान की जान बचाने के लिये करता हुआ शहीद हो गया । ट्रिगर दबने के बाद दो हजार तीन सौ पचास फिट प्रति सेकेंड की रफ़्तार से एके-47 के बैरल से निकली हुई गोली जब शरीर में पैबस्त करती है तो ठीक उस वक़्त शरीर को आभास तक नहीं होता और जब तक होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | दरअसल शौर्य दुश्मन पर गोली चलाने या गोली खाने में नहीं है...शौर्य तो उस इरादे में है, जो ये जानते-बूझते भी कि वहाँ मौत छुपी है मगर फिर भी वो इरादे डिगते नहीं, जाते हैं उसी जानिब मौत से दो-दो हाथ करने |

शौर्य ने एक नया नाम लिया खुद के लिये...मेजर सतीश का नाम । उम्र के 27वें पायदान पर खड़ा पड़ोस के नुक्कड़ पर रहने वाला बिल्कुल एक आम नौजवान...फर्क बस इतना कि जहाँ उसके साथी आई.आई.टी., मेडिकल्स, कैट के लिये प्रयत्नशील थे, उसने अपने मुल्क के लिये हरी वर्दी पहनने की ठानी । ...और उसका ये मुल्क जब सात समन्दर पार खेल रही अपनी क्रिकेट-टीम की हार पर शोक मना रहा था, वो जाबांज बगैर किसी चियरिंग के एक अनाम-सी लड़ाई लड़ रहा था । आनेवाले स्वतंत्रता-दिवस पर यही उसका ये मुल्क उसको एक तमगा पकड़ा देगा । इस मुल्क की विडंबना ही है कि आप तब तक बहादुर नहीं हैं, जब तक आप शहीद नहीं हो जाते । कई दिनों से ये "शहीद" शब्द मुझे जाने क्यों मुँह चिढ़ाता-सा नजर आ रहा है...!!!

इस ऊँचे बर्फ़ीले पहाड़ों के नीचे, मध्य कश्मीर के राजवाड़ और हफ़रुदा के जंगलों में खड़े ख़ामोश चीड़-देवदार के दरख़्त जाने कितनी अनदेखी-अनसुनी शौर्य गाथाओं के साक्षी हैं...भारतीय सेना के अनगिनत मेजर सतीशों की शौर्य गाथायें ! बर्फ़ की बिछी हुई विस्तृत सफ़ेद चादर के मध्य सिर उठाये सिहरते ख़ामोश खड़े इन चीड़ और देवदार के गिरे हुए पत्ते और टूटी हुई टहनियों ने विगत तीन दशकों से ज़्यादा के समयांतराल में मेजर सतीश सरीखे कितने ही सैनिकों के लहूलुहान जिस्म को अपनी गोद में सम्हाला दिया है | चीड़-देवदार के ये ख़ामोश दरख़्त, जंगल से सटे गाँवों में जिहाद के नाम पर उस पार से आने वाले सरफिरों की ख़ातिरदारी में इन गाँव के बाशिंदों द्वारा अपनी बेज़ुबान रोटियों और बेटियों को परोसते भी देखते हैं...बेज़ुबान रोटियों के टूटते कौर को इनका ख़ुदा नहीं देखता और चुप सहमी बेटियों का ज़िक्र किसी फेमिनिस्ट की कविताओं या कहानियों में जगह नहीं बना पाता ! लेकिन ये मेजर सतीश सब देखते हैं ! ये सतीश जैसे युवा आराम से अपनी सैन्य-चौकी पर बैठे रह सकते हैं इन तमाम तमाशों को देखने के बावजूद कि इन सतीशों को फिर भी उनकी तनख्वाह तो मिलनी ही है...लेकिन इन सतीशों की वर्दी के कन्धों पर सितारे सजने से पहले ली गयी शपथ उन्हें बैठने नहीं देती अपने सैन्य-चौकियों की सकून भरी गर्माहट में और उठ कर चल पड़ते हैं ये बाँकुरे इन जंगलों में शौर्य की नयी परिभाषा रचने ! उधर रोटी के साथ अपनी बेटी परोसने वालों की जहालत यहीं ख़त्म नहीं होती...इनकी जहालत तो ज़ख़्मी सतीशों को अस्पताल ले जाने वाली एम्बुलेंस पर बरसती है पत्थरों की बारिश बन कर | उकता कर इन सतीशों की रूहें इनके जिस्म को छोड़ चली जाती हैं ऊपर कि उस चुप बैठे ख़ुदा से गुज़ारिश कर सके हफ़रुदा और राजवाड़ की बेज़ुबान रोटियों और बेटियों के वास्ते ! जाने ख़ुदा इन सतीशों की सुनता भी है कि नहीं ! चालीस साल तो होने जा रहे...गुजारिशों की सुनवाई की कुछ ख़बर नहीं फिलहाल !

इधर यूँ ही एक आवारा सा ख़याल अपना सर उठाता है कि...उस पार वाले बंकर के नुमाइंदों को किसी की याद आती होगी कि नहीं चाँद को अपने बंकर के ऊपर यूँ ठिठका देखकर ?  दिलचस्प होगा ये जानना... ! गीत चतुर्वेदी की एक कविता की पंक्तियाँ याद आती है-

भूख में होती है तपस्या
पानी में बहुत सारी अतृप्ति
उपकार में कई आरोप
व्याख्या में थोड़ी-सी बदनीयती
और
करुणा में हमेशा
एक निजी इतिहास होता है

---x---