[ कथादेश के सितम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का सातवाँ पन्ना ]
सरहद की दुनिया...वो दुनिया जिसके बाशिंदे
बंकरों और मोर्चों में बसते हैं...एक अजब-गजब सी ही दुनिया है । यहाँ कहकहों का
बाँकपन बर्फ़़ीली हवाओं की रगों में गर्मी भरता है | यहाँ के बाशिंदों की वर्दी के
हरे-भूरे छापे सर्द मौसमों के सूखे पत्तों को भी हरा करते हैं | यहाँ के रहने वाले
इस व्हाट्सएप और फेसबुक की बौरायी रीत से परे अंतर्देशीय और लिफाफों में ख़त लिखते
हैं अपने महबूब को और थैले भर-भर के ख़त पाते भी हैं । हफ़्ते पुराने अख़बारों पर
यहाँ के बाशिंदें अपनी जानकारी ताज़ा रखते हैं और महीनों तक ताज़ा सब्जी की झलक
बिना भी इन बाशिंदों का ख़ून हर लम्हा अपने उफ़ान पर रहता है ।
यहाँ के बाशिंदों द्वारा ख़ुदा के जानिब
उछाले गए बेतरतीब बोसों से आसमान में सितारे टूटते हैं और इन्हीं टूटते सितारों पर
दुआएँ माँगी जाती हैं नीचे सतह की शेष दुनिया के लोगों द्वारा ।
सरहद की इस दुनिया में उदासी को परमानेंट
वीजा नहीं मिलता । ये ठहाकों की दुनिया है...गट्स और ग्लोरी इन ठहाकों के आगोश में
सिमट कर यहाँ के मुकम्मल और स्थायी निवासी बन चुके हैं । किन्तु, इन तमाम बातों को
अक्सर ही नज़रअंदाज़ कर अनवरत साजिशें बुनी जाती हैं इस दुनिया के मुकम्मल और स्थायी
निवासियों को हर चंद रुसवा किये जाने की | कुछ दिन पहले की एक ऐसी ही साजिश की
कहानी जब खुली, तो हैरत भी हैरान हुए बैठी रही अनंत काल तक के लिए...
...सुस्त सी धूप में कुनमुनाती हुई अलसाई
सी सुबह थी वो | कश्मीर की एक आम सी सुबह, जो अपनी समाप्ति का ऐलान
करते-करते
दोपहर तक एक बदनाम सुबह में तब्दील हो जानी थी | उस
नौजवान मेजर ने शहर के ठीक मध्य में अवस्थित विशाल और दुर्जेय सी प्रतीत होने वाली
टावर-पोस्ट की कमान संभाल ली थी नींद खुलते ही हर सुबह की तरह...लेकिन इस सुबह की
नियति से बिलकुल अनजान |
वो टावर-पोस्ट ख़ास था बहुत...उसकी बनावट, शहर
के मुख्य चौराहे पर उसका होना और चारों ओर दूर तक खुला अवलोकन उपलब्ध कराती हुईं
उस टावर की खिड़कियाँ...सब मिल कर उसे एक विकट और एक बहुत ही मजबूत सैन्य-चौकी का
रुतबा देते थे |
उस टावर-पोस्ट का वहाँ होना सेना के आने-जाने वाले काफ़िले
और अन्य सैन्य-प्रक्रियाओं के लिए एक आश्वस्ती सा देता हुआ माहौल प्रदान करता था |
किन्तु इन्हीं सब ख़ास बातों को और अपनी इन्हीं खसूसियतों को लेकर, वो
टावर-पोस्ट स्थानीय लोगों के एक ख़ास तबके की आँखों की किरकिरी भी बना हुआ था |
बीती दोपहर को एक अफ़वाह उड़ी थी सेना के एक
जवान द्वारा किसी स्थानीय लड़की के साथ छेड़खानी की, जो कि बाद में ख़ुद ही अपने गढ़े
जाने की पोल खोल गयी थी जब लड़की ने पुलिस को दिए गए बयान में सेना के उस जवान की
तारीफ़ की थी |
लेकिन वो बाद की बात थी...फिलहाल वो नौजवान मेजर तनिक
परेशान था इस अफ़वाह से | अपनी परेशानी में भी कहीं-ना-कहीं थोड़ी सी निश्चिंतता ढूंढ
रहा था वो कि उसे भरोसा था सत्य की शक्ति में | इन तमाम अफ़वाहों का इकलौता
मुद्दा... स्थानीय लोगों को भड़काना और सेना की छवि को बिगाड़ना...मेजर सोच रहा
था...आतंकवाद के शुरुआती दौर ने इन इलाकों में चंद सैनिकों द्वारा ज़रूर कुछ गलत
हरकतों को होते देखा है...लेकिन विगत दस-बारह सालों से किसी सैनिक द्वारा की हुई ऐसी
कोई गलत हरकत स्मृति-पटल पर नहीं कौंधती | इन गुज़िश्ता सालों में, सेना
ने अपनी इमेज सुधारी है और नब्बे के दशक के पूर्वार्ध की शुरुआती गलतियों से सबक
लेते हुए ऐसी किसी भी गलत हरकतों में लिप्त सैन्य-कर्मियों के साथ बहुत सख्ती से
पेश आयी है | मेजर इन्हीं सब ख्यालों पर मन-ही-मन विमर्श कर रहा था इस अभी-अभी उडी
अफवाह के पार्श्व में, जब अचानक से उसकी सोचों में एकदम से हड़कंप मचता है | टावर-पोस्ट के ठीक सामने से आती सड़क पर इकट्ठी होती स्थानीय लोगों की भीड़ एक
झटके में आराम से बैठी उस सुबह को चौकन्ना कर गयी थी |
इतने सालों का प्रशिक्षण और इस
आतंकवादग्रस्त इलाके का अनुभव...दोनों मिलकर नौजवान मेजर की छठी इंद्रीय को
चेतावनी देते हैं |
कई दफ़ा देख चुका है वो कि यहाँ भीड़ किस तरह पलक झपकते ही
विकराल अवतार धर लेती है | उसके द्वारा लोकल पुलिस को संदेशा देते ही, अपनी फिल्मी अवधारणाओं
के विपरीत, पुलिस वक़्त पर पहुँचती है और अब तक लगभग अनियंत्रित हो चुकी भीड़ पर अश्रु-गैस
का पहला राउंड फायर करती है | सुबह की नियति...राउंड का खाली शेल भीड़
में एक व्यक्ति के सिर पर गिरता है और उसकी मौत हो जाती है | उस
व्यक्ति का शव भीड़ के उन्माद को टावर-पोस्ट की तरफ मोड़ देता है | मेजर
हैरत भरी आँखों से देखता है जलते हुये पेट्रोल भरे एक बोतल को भीड़ की तरफ से उड़ कर
अपने पोस्ट पर गिरते हुए और उस बोतल के पीछे-पीछे आती हुई पत्थरों की बारिश | टावर-पोस्ट
का एक कोना आग पकड़ चुका था...एक और पेट्रोल बम का उस जानिब आना मेजर की सहनशीलता
के सामर्थ्य में नहीं था |
लाउड स्पीकर पर तीन बार चेतावनी देने के बावजूद जब भीड़ का
उन्माद थमता नहीं दिखता है और दूसरा पेट्रोल बम क्षणांश में नज़दीक ही आकर फटता है
तो भीड़ का नेतृत्व कर रहे शख़्स की तरफ़ लक्षित करके मेज़र उसके पैरों पर एक गोली
मारने का आदेश अपने सैनिक को देता है | सुबह की नियति...गोली की आवाज़
पर हड़बड़ायी भीड़ में लड़खड़ाया हुआ शख़्स पैरों की बजाय गोली अपने सिर पर लेता है |
मेजर अपने सामने उपस्थित समस्त विकल्पों
को तौलता है | कुछ और लोगों की गोलीबारी में मौत की क़ीमत पर या अपने साथियों के
साथ ज़िंदा जला दिये जाने की क़ीमत पर टावर-पोस्ट की रक्षा में डटा रहे या फिर...| निर्णय
ने अपनी सूरत दिखाने में तनिक भी विलंब भी नहीं किया | नौजवान
मेजर अपने जवानों के साथ टावर-पोस्ट को तज कर बस थोड़ा ही पीछे स्थित अपने
बेस-कैम्प की सुरक्षित चारदीवारी में प्रवेश कर जाता है...प्रार्थना करता हुआ कि
किसी ने पूरे घटनाक्रम की वीडियो बनाई हो |
उसे यक़ीन था कि उस पर हत्या का केस दायर
होगा | वो तैयार कर रहा था ख़ुद को इन्क्वायरी-दल के सवालों का जवाब देने के लिए और
साथ ही दुआ कर रहा था कि उसके चरित्र को जज़ करने वाले कोई भी हो लेकिन कम-से-कम वो
लोग ना हों, जिन्हें अपने घर की परिधि में सुरक्षित बैठ कर फेसबुक-व्हाट्सएप पर न्यायाधीश
बनने का शौक़ चर्राया हुआ है | सत्य को तोड़ते-मरोड़ते और अपनी कुंठा-वमन
करते हुये ख़बरों की हेडलाइन कल के अख़बार में देखने से ख़ुद को बचाना चाहता था वो | लेकिन
इतना तो तय था...नौजवान मेजर सोचता है... कि "सेना की फायरिंग में दो लोगों
की मौत" एक बेहतर हेडलाइन ध्वनित होती है किसी भी वक़्त, बनिस्पत
"उग्र भीड़ ने सेना के एक ऑफिसर और पाँच जवानों को ज़िंदा जलाया" !
...और मुझे वो नौजवान मेजर और ऐसा हर
सिपाही किसी जादूगर से कम प्रतीत नहीं होता, जब भी सुनता हूँ ऐसी कोई कहानी...
कहती है ये नज़र
कब क्या हो, क्या ख़बर
दुनिया में चंद लोग होते हैं जादूगर !
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