16 March 2011

जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ उसकी खुल गयी...

कई दिन हो गए थे ब्लौग पर अपनी कोई ग़ज़ल लगाए हुये, तो एक पुरानी ग़ज़ल पेश है|

जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ उसकी खुल गयी
फिर बालकोनी में हमारे झूम कर बारिश गिरी

करवट बदल कर सो गया था बिस्तरा फिर नींद में
बस आह भरती रह गयी प्याली अकेली चाय की

इक गुनगुनी-सी सुब्ह शावर में नहा कर देर तक
बाहर जब आई, सुगबुगा कर धूप छत पर जग उठी

उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ
सिगरेट के कश ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी

इक फोन टेबल पर रखा बजता रहा, बजता रहा
उट्ठी नहीं वो 'दोपहर' बैठी रही बस ऊँघती

लौटा नहीं है दिन अभी तक आज आफिस से, इधर
बैठी हुई है शाम ड्योढ़ी पर ज़रा बेचैन-सी

क्यूँ खिलखिला कर हँस पड़ा झूला भला वो लॉन का
आई ज़रा जब झूलने को एक नन्ही-सी परी


...रज़ज की इस बहर पर कई प्यारी धुनें हैं| कुछ ग़ज़ल जो इस वक्त याद आ रही हैं मुझे ... एक तो इब्ने इंशा की "कल चौदवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा" , दूसरी बशीर बद्र साब का ही "सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं" और तीसरी मोहसिन साब की "ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी"....

फिलहाल विदा!