17 April 2012

नहीं मंजिलों में है दिलकशी, मुझे फिर सफर की तलाश है...

नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार  दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों जा रहे हो फिर से? अभी तो आए हो?? सबको ढाई-तीन साल के बाद वापस जाना होता है, तुम्हें ही क्यों ये चार महीने बाद ही??? रोज उठते इन सवालों का जवाब दे पाना कश्मीर के उन सीधे-खड़े पहाड़ों पे दिन-दिन रात-रात ठिठुरते हुये गुजारने से कहीं ज्यादा मुश्किल जान पड़ता है|


...  छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये,  तनया चार साल की हुई है और पीटर पार्कर उसका पापा है और वो अपने पापा की  मे डे पार्कर :-)
....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो अहले-सुबह अपने पीटर को बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी मम्मी की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे प्रकाश सहित व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का:-  विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी


  ...सच तो! कितना मुश्किल है इस उसूल की व्याख्या और वो भी प्रकाश सहित इस दौर में, जब  फेसबुक पे लहराते हुये स्टेटस ही शायद फलसफे बन गए हैं मायने जीये जाने के और जिसका छुटकी मे डे को जरा भी भान नहीं | आयेगी वो भी कुछ सालों बाद इसी फलसफे को नए मायने देने-शर्तिया| लेकिन क्या जान पाएगी वो कि  ग्रीन गोबलिन या डा० आक्टोपस के करतूतों की फिक्र इन तमाम फेसबुकिये स्टेटसों को नहीं? क्या समझ पायेगी वो कि ऐसे तमाम गोबलिन और आक्टोपस के लिए कितने पीटरों को अपनी मे डे को छोड़ कर जाना ही पड़ता है? क्या समझ पायेगी वो कि ये तमाम संवेदनायें जो स्टेटस में शब्द-जाल उड़ेलते रहते हैं, वो महज चंद लाइक और कुछ कमेंट्स इकट्ठा करने के लिए होते हैं या फिर ग्रेटर पावर अर्जित करने की कामना में कथित ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी का चोगा भर होते हैं ...और कुछ नहीं| शायद समझे वो....शायद न भी! उसकी समझ या नासमझ वक़्त रहते खुद-ब-खुद आयेगी, लेकिन माँ की उमड़ती हिचकियों को कैसे समझाये पीटर कि उसका फिर से जाना उसके खुद के लिए जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बड़ी होती मे डे के लिए भी है जो बाद-वक़्त अपने पीटर पे घमंड करते हुये फेसबुकीये स्टेटसों में सिमट आये जीने के मायने को अपना उसूल देगी|


है न मे? बस इसलिए तो ....मुझे फिर सफर की तलाश है :-)