25 October 2010

जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से

व्यस्तता अपने चरम पर है। कुछ-कुछ ऐसा कि जैसे बोर्ड परिक्षाओं वाले दिन वापस आ गये हों। दिसम्बर मध्य तक यही स्थिति कायम रहने वाली है मेरे संग। जितना कश्मीर को मिस कर रहा हूँ, उतना ही आपसब को भी। भला हो डा० अनुराग की इस अद्‍भुत चर्चा का, जिसे पढ़ने के लिये तनिक समय चुरा कर निकाला तो ख्याल आया कि लगे हाथों एक पोस्ट भी ठेल दूँ। एक पुरानी ग़ज़ल...लगभग दो साल पहले की लिखी हुई, किंतु ब्लौग के लिये नयी। सुनिये:-

उठी इक हूक जो इन मौसमों की आवाजाही से
बना जाये है इक तस्वीर यादों की सियाही से


कि होती जीत सच की बात ये अब तो पुरानी है
दिखे है रोज सर इसका कटा झूठी गवाही से

नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से


किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से

जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से

अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से


घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
{त्रैमासिक अभिनव प्रयास के जुलाई-सितम्बर,2010 अंक में प्रकाशित}



...फिलहाल इतना ही। जल्द ही लौटूँगा आपसब के ब्लौग पर। कुछ बंधुगण मेरे मोबाइल पर मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहे होंगे, तो दिसम्बर मध्य तक उस नंबर पर उपलब्ध नहीं हूँ मैं। उस नंबर-विशेष की आवश्यकता कुछ अपरिहार्य कारणों से उधर मेरी कर्मभूमि में ज्यादा थी। आपसब को दीपावली की अग्रीम शुभकामनायें...!!!