05 December 2011

इक रतजगे की तासीर और सिलवटों में उलझे चंद सवाल...

रात के ढाई बजे (रात के? या सुबह के??...) दूर कहीं पटाखों के फूटने की आवाज़ें आती हैं और किसी अनिष्ट की आशंका से नींद खुलती है चौंक कर| हड़बड़ायी-सी नींद को बड़ा समय लगता है फिर आश्वस्त करने में कि ये कश्मीर नहीं है...छुट्टी चल रही है...घर है, जहाँ तू बेफ़िक्र हो सुकून के आगोश में ख़्वाबों से गुफ़्तगू करती रह सकती है| उचटी हुई नींद का अफ़साना, लेकिन, जाने किस धुन पे बजता रहता है रात भर...वक़्त की उलझनों से परे, समय की दुविधाओं से अलग| सुकून का आगोश फिर कहाँ कर पाता है ख़्वाबों से गुफ़्तगू| किसी असहनीय निष्क्रियता का अहसास जैसे उस आगोश में काँटे पिरो जाता हो...उफ़्फ़ ! अधकहे से मिसरे...अधबुने से जुमले रतजगों की तासीर लिखते रहते हैं करवटों के मुखतलिफ़ रंग से बिस्तर की सिलवटों के बावस्ता...कोई तो कह गया था वर्षों पहले फुसफुसा कर "कश्मीर ग्रोज इन्टू योर नर्व्स"....ओ यस ! इट डज !! इट सर्टेनली डज !!!

सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दीये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये

अहा...! सच में?

छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना

कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब...
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?

लेकिन ये जो एक सवाल है, उठता है बार-बार और पूछता है, पूछता ही रहता है कि...बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में? तुम्हें नहीं मालूम कि मुश्किलें कितनी होंगी तब, सबकुछ शुरू से शुरू करने में...फिर से...

...रतजगे की तासीर मुकम्मल नहीं होती और सुबह आ जाती है तकिये पर थपकी देती हुई| नींद को मिलता है वापस सुकून भरा आगोश| सुना है, सुबह में देखे हुये ख़्वाब सच हो जाते हैं...!


26 September 2011

चंद अटपटी ख्वाहिशें डूबते-उतराते ख़्वाबों की...

उथली रातों में डूबते-उतराते ख़्वाबों को कोई तिनका तक नहीं मिलता शब्दों का, पार लगने के लिए| मर्मांतक-सी पीड़ा कोई| चीखने का सऊर आया कहाँ है अभी इन ख़्वाबों को? ...और आ भी जाये तो सुनेगा कौन? हैरानी की बात तो ये है कि यही सारे ख़्वाब गहरी रातों में उड़ते फिरते हैं इत-उत| जाने क्या हो जाता है इन्हें उथली रातों के छिछले किनारों पर| छटपटाने की नियति ओढ़े हुये ये ख़्वाब, सारे ख़्वाब...कभी देवदारों की ऊंची फुनगियों पर चुकमुक बैठ पूरी घाटी को देखना चाहते हैं किसी उदासीन कवि की आँखों से...तो कभी झेलम की नीरवता में छिपी आहों को यमुना तक पहुँचाना चाहते हैं...और कभी सदियों से ठिठके इन बूढ़े पहाड़ों को डल झील की तलहट्टियों में धकेल कर नहलाना चाहते हैं|

...और भी जाने कितनी अटपटी-सी ख्वाहिशें पाले हुये हैं ये डूबते-उतराते ख़्वाब| उथली रातों के छिछले किनारों पर अटपटी-सी ख़्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिश्त अभी भी धँसी पड़ी है इन ख़्वाबों के रेत में| कश्यप था कोई ऋषि वो| देवताओं के संग आया था उड़नखटोले पर और सोने की बड़ी मूठ वाली एक जादुई छड़ी घूमा कर जल-मग्न धरती के इस हिस्से को किया था तब्दील पृथ्वी के स्वर्ग में| अटपटी ख्वाहिशों की ये फ़ेहरिश्त तभी से बननी शुरू हुई थी| ये बात शायद इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को नहीं मालूम| उथली रातों ने वैसे तो कई बार बताना चाहा...लेकिन पार लगने की उत्कंठा या डूब जाने का भय इन ख़्वाबों को बस अपनी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त बनाने में मशगूल रखता है|

...फिर ये उथली रातें हार कर बिनने लगती हैं इन ख़्वाबों की अटपटी ख़्वाहिशों को| ख्वाहिशें...पहाड़ी नालों में बेतरतीब तैरती बत्तखों की टोली में शामिल होकर उन्हें तरतीब देने की ख़्वाहिश...चिनारों के पत्तों को सर्दी के मौसम में टहनियो पर वापस चिपका देने की ख़्वाहिश...सिकुड़ते हुये वूलर को खींच कर विस्तार देने की ख़्वाहिश...इस पार उस पार में बाँटती सरफ़िरी सरहदी लकीर को अनदेखा करने की ख़्वाहिश...सारे मोहितों-संदीपों-आकाशों-सुरेशों को फिर से हँसते-गुनगुनाते देखने की ख़्वाहिश...और ऐसे ही जाने कितनी ख़्वाहिशों का अटपटापन हटाने की ख़्वाहिश|

...ऐसी तमाम ख़्वाहिशों को बिनती हुई रात देखते ही देखते गहरा जाती...और इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को मिल जाती है उनकी उड़ान वापिस|

11 July 2011

लौटना इक चौक के बचपने का...

उस चौक का बचपना लौट आया था| बचपन जो एक सदी से विकल था ...चौक जो कई युगों से वहीं-का-वहीं बैठा हुआ था बुढ़ाता हुआ| बहुत कुछ बदल गया था वैसे तो...सड़कें चौड़ी हो गई थीं और बारिश का पानी ज्यादा जमने लगा था, साइकिलों-रिक्शों की जगहें चरपहिये घेरने लगे थे और कीचड़ें ज्यादा उछलने लगीं थी
धोतियों-पैजामों पर, पान की दूकानें "जा झाड़ के" बजाय "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" बजाने लगी थीं और कैप्सटेन-पनामा के अलावा क्लासिक-ट्रिपल फाइव भी रखने लगी थीं, दो-तीन आइस-क्रीम पार्लर खुल गए थे और उनके पार्किंग स्पेस में स्कूटियों-बाइकों की दिलफ़रेब संगत टीस उठाने लगी थी सामने चाय वाले बाबा के पास जमने वाली शाम की चौपाल में| अब कायदे से इस बदलती रुत में बुढ़ाते चौक की जवानी लौटनी चाहिए थी, लेकिन लौटा कमबख्त बचपन|

हर चौक की तरह इसका कोई नाम नहीं था| बस चौक था वो| शहर तो खूब फैल गया था...बड़ी लाइन की ट्रेनें भी दिल्ली और अमृतसर से आने लगी थीं| कुछ नेताओं, कुछ शहीदों के नाम पर सड़कों तक का नामकरण हो गया था| लेकिन वो चौक बस चौक ही रहा| चौक- इसी पुकारे जाने में अपनी पूरी पहचान समेटे हुये| ...और उस रोज़ अचानक से उसका बुढ़ाना ठहर गया था| सालों बाद...नहीं, युगों बाद मिले थे वो चारों फिर से उसी चौक पर| कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था| बस एक संयोग बना| युगों पहले उसी चौक पर सपने देखते थे वो साथ-साथ| बड़े होने के सपने| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियों के सपने| दुनिया नहीं, बस अपने शहर को बदलने के सपने| साथ-साथ एक अख़बार निकालने के सपने| रणजी ट्राफी के ट्रायल के सपने| स्टेफी ग्राफ और गैब्रियला सबातीनी के सपने| ...और उन दिनों अपनी जवानी पर इतराता वो चौक, उनके सपनों में शामिल होता हर रोज़, दुआएँ करता उन सपनों के सच होने की| फिर एक दिन अपने सपनों की तलाश में वो जो अलग हुये, तब से चौक का बुढ़ाना बदस्तूर जारी था| इस बीच वो बड़े हो गए| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियाँ दो-तीन बच्चों वाली मम्मियाँ बन कर अपने अपने-अपने आँगनों में लापता हो गईं| दुनिया के साथ-साथ शहर भी खूब बदला और शहर से कई सारे अख़बार भी निकलने लगे| रणजी के ट्रायल सिफ़ारिशों की अर्ज़ियाँ तलाशने में जुट गए| स्टेफ़ी को अगासी ले गया और सबातीनी को उसकी अर्जेंटीनियन गर्ल-फ्रेंड|

...और उस शाम, युगों बाद उन चारों का मिलना चौक का बचपना ले आया वापस| जवानी नहीं, बचपना| ट्रिपल फाइव को आसानी से अफोर्ड कर पाने के बावजूद चौक पर फिर से कैपस्टेन ही सुलगा| "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" को दरकिनार कर चिल्लाते हुये "जा झाड़ के" गाया गया| आइस-क्रीम पार्लर के पार्किंग स्पेस में दिखती स्कूटियों और बाइकों के बहाने बायोलॉजी ग्रुप वाली तमाम नामों पे न सिर्फ विस्तृत चर्चा हुई, बल्कि नथूने फुलाए गए, भृकुटियाँ टेढ़ी की गईं और बाँहें भी चढ़ाई गईं| बाबा की चाय में लीफ की खुशबू मिली तो बाबा को ढ़ेर सारे उलाहने दिये गए| शहर के बदलने पे खुशी और अफसोस साथ-साथ जताए गए| अखबारों की स्तरियता पर मुट्ठियाँ लहराई गईं हवा में| रणजी ट्रायल की चर्चा पे पूरी क्रिकेट टीम को एक सिरे से गलियाया गया| किन्तु सबसे श्रेष्ठ गालियों का पिटारा आन्द्रे अगासी के लिए खोला गया जो उनकी दिलरुबा स्टेफ़ी को ले भागा था...और अंत में सबातीनी के लेस्बियन निकलने की खबर पर दो मिनट का मौन रखा गया|

चौक उस सामूहिक मातम में बाकायदा शामिल था अपने बुढ़ापे को बिसराए हुये, बच्चा बना हुआ|

शाम का समापन देर रात गए हुआ, उन्हीं पुराने शेरों को गुनगुनाते हुये:-

ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों, तो भीग जाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर

13 June 2011

एक स्कौर्पियो, एक लोगान और राष्ट्रीय-राजमार्ग पर एक प्रेम-कविता का ड्राफ्ट...


गर्मी की कोई तपती-सी दोपहर थी वो| ...तपती-सी? कश्मीर में?? ग्लोबल वार्मिंग की इंतहा! झेलम के साथ-साथ मंडराता हुआ राष्ट्रीय राजमार्ग 1A कुछ उफन-सा रहा था| मौसम की गर्मी से या फिर ट्रैफिक की अधिकता से- कहना मुश्किल था| सफेद रंग का एक स्कौर्पियो- सरकारी स्कौर्पियो, जून की तपिश से पिघलती सड़क और रेंगती ट्रैफिक के बावजूद किसी हिमालयन कार-रैली की स्पीड को भी मात करता हुआ अपने गंतव्य की ओर अग्रसर था, जब उसे एक लाल...इंगलिश में मरून कहना बेहतर होगा, रंग की लोगान ने सरसराते हुये ओवरटेक किया| दिल धड़का था जोर से- स्कौर्पियो का या फिर स्कौर्पियो के स्टेयरिंग-व्हील पे बैठे चालक का, जानना रोचक होगा| एक कविता या यूँ कहना बेहतर होगा कि एक प्रेम-कविता के ड्राफ्ट से भी ज्यादा कशिश थी उस जोर-से धड़कने में| दिल के|

अमूमन स्कौर्पियो के उस सरफ़िरे चालक को किसी भी गाड़ी द्वारा ओवरटेक किया जाना व्यक्तिगत अपमान से कम नहीं लगता था, लेकिन बात लोगान की थी और वो भी लाल...मरून रंग के लोगान की| आह...!!! अगले चालीस मिनट झेलम के संग-संग मंडराते-पिघलते राष्ट्रीय-राजमार्ग 1ए पर एक अद्भुत प्रेम-कविता दृष्टि-गोचर थी| सफेद स्कौर्पियो का पूरे रास्ते लाल...ओहो, मरून लोगान की खूबसूरत-सी "बैकसाइड" के साथ चिपके हुये चलना, इस पूरे सदी की हिन्दी-साहित्य में लिखी गई तमाम प्रेम-कविताओं की जननी{mother of all the love-poems ever written in Hindi literature, as they say in English} की उपमा दिये जाने के काबिल था| यकीनन!

लगभग पचीस किलोमीटर की दूरी, जो उस सफेद स्कौर्पियो और उस स्कौर्पियो-चालक के लिए हमेशा पंद्रह मिनट से ज्यादा की नहीं होती थी, उस रोज़ चालीस मिनट ले गयी| कोई ट्रांस-सी, कोई मंत्रमुग्ध-सी अवस्था में डूबे थे दोनों ही- चालक भी और वो सफेद स्कौर्पियो भी| ...और जब अचानक से उस मरून लोगान ने राजमार्ग को छोड़ते हुये एक बाँयें की तरफ वाली सड़क को थाम लिया, तो वो प्रेम-कविता सदी की शायद सबसे उदास कविता में परिवर्तित हो गई| उदास कौन था ज्यादा- स्कौर्पियो या चालक, ये भी जानना रोचक होगा|

देर रात गए उस स्कौर्पियो-चालक की डायरी का दिनों बाद खुला एक पन्ना:-

मेरे प्यारे डायरी,
बड़े दिनों बाद तुझसे मुखातिब हूँ आज| कैसा है तू? व्यस्त हैं दिन| व्यस्त हूँ मैं| बहुत-बहुत| मिस किया मुझे? मैंने नहीं| विश्वास करेगा? आज पंथा-चौक से अवन्तिपूरा तक मैंने एक घंटे लिए ड्राइव करने में| can you believe this, यार मेरे? वजह... हम्म! thats an interesting question!! अपने स्कौर्पियो को इश्क हो गया था रास्ते में- love at first sight! सच्ची| ओह, कम ऑन! मुझे नहीं!! सच कह रहा हूँ!!! तुझसे क्या झूठ बोलना? मैं तो बस सम्मान दे रहा था उस लोगान को| हा! हा!! धर्मवीर भारती की एक कविता याद आ रही है जाने क्यों इस वक्त| सुनेगा? सुन:-

तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो !

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन !
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !


...वैसे कविता के साथ-साथ याद तो पिछले जनम की वो उस भीगी-सी शाम वाली लोगान-राइड की भी आ रही है| लेकिन यूँ ही मन किया तुझे ये कविता सुनाऊँ| बहुत थक गया हूँ| चल, शुभ-रात्रि!



दिनो बाद खुले डायरी के उस पन्ने के बंद हो जाने के बाद... रात पूरी बीत जाने के बाद भी....जब करवटें, बिस्तर की सिलवटों में किसी भीगी शाम वाली एक लोगान पे की गई लांग ड्राइव को फिर जी रही हैं... और जब वो सफेद स्कॉर्पिओ, कोने के गैराज़ में चुपचाप खड़ा गुम है, दिन की उस चालीस मिनट की यादों में.... वो लाल लोगान, ओह सॉरी, मैरून लोगान, जाने कहाँ दूर किसी सभ्यता में पहुँच चुकी होगी....!!

09 May 2011

अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा...

लम्हा था कोई बहता हुआ जो अचानक ठिठक गया...लम्स था इक ठिठका हुआ, जो निर्बाध बह चला| नहीं, कुछ उल्टा सा हुआ था इसके लम्हा ठिठका हुआ था...लम्स बह रहा था| ऐसा ही कुछ था| बीती सदी की बात थी वो, तब वक्त देखने के लिए घड़ियाँ नहीं बनी थीं और छूने के लिए हाथ का होना जरूरी नहीं था| फिर भी समझ इतनी तो वयस्क हो ही गई थी कि लम्हे का ठिठकना या बह चलना और लम्स का बहना या ठिठक जाना, भांप लिया करती थी| बचपना तो इस मुई समझ का अभी अभी लौटा है...अभी के अभी, आधी रात गए| अब, रात को आधी कहने के वास्ते घड़ी की ओर देखना पड़ता है और छूने को महसूस करने की खातिर हाथ बढ़ाना पड़ता है

...समझ तब वयस्क थी या अब हुई है ?

दूर कहीं उस लम्हे की यादों से परे, उस लम्स के अहसासों से अलग...कोई आक्रोश उफनता है, एक वजूद को जलाता हुआ| कोई बेबसी उमड़ती है, एक वजूद को भिगोती हुई| सच को विवश कराहते देखते हैं दोनों मगर - आक्रोश भी, बेबसी भी| अपने-अपने दायरों में सिमटे, उलझे...गड्ड मड्ड|

...समझ का बचपना लौट आया है या कभी गया ही नहीं था ??

उस उफनते आक्रोश के सिवा, इस उमड़ती बेबसी के बिना और सबकुछ बेमानी हो जाता| सच तो यही है| कितना एकाकी-सा अपने पर विलाप करता हुआ सच| विवश कराहता हुआ, किन्तु उस लम्हे से भी बड़ा...उस लम्स से भी गहरा|

...समझ की वाकई कोई उम्र होती है क्या ???

जाने किस लम्हे, लम्स और सच में उलझे हुए उस पगले शायर ने कहा होगा कि

अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा
मगर मुद्दत से इक गौतम मेरे साये में बैठा है

16 March 2011

जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ उसकी खुल गयी...

कई दिन हो गए थे ब्लौग पर अपनी कोई ग़ज़ल लगाए हुये, तो एक पुरानी ग़ज़ल पेश है|

जब तौलिये से कसमसाकर ज़ुल्फ उसकी खुल गयी
फिर बालकोनी में हमारे झूम कर बारिश गिरी

करवट बदल कर सो गया था बिस्तरा फिर नींद में
बस आह भरती रह गयी प्याली अकेली चाय की

इक गुनगुनी-सी सुब्ह शावर में नहा कर देर तक
बाहर जब आई, सुगबुगा कर धूप छत पर जग उठी

उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ
सिगरेट के कश ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी

इक फोन टेबल पर रखा बजता रहा, बजता रहा
उट्ठी नहीं वो 'दोपहर' बैठी रही बस ऊँघती

लौटा नहीं है दिन अभी तक आज आफिस से, इधर
बैठी हुई है शाम ड्योढ़ी पर ज़रा बेचैन-सी

क्यूँ खिलखिला कर हँस पड़ा झूला भला वो लॉन का
आई ज़रा जब झूलने को एक नन्ही-सी परी


...रज़ज की इस बहर पर कई प्यारी धुनें हैं| कुछ ग़ज़ल जो इस वक्त याद आ रही हैं मुझे ... एक तो इब्ने इंशा की "कल चौदवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा" , दूसरी बशीर बद्र साब का ही "सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं" और तीसरी मोहसिन साब की "ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी"....

फिलहाल विदा!

15 February 2011

तीन ख्वाब, दो फोन-काल्स और एक रुकी हुई घड़ी...

तस्वीरें देखते हुये सोया था तो ख्वाब दस्तक देते रहे नींद में, नींद भर। जलसा-सा कुछ था जैसे। बड़ा-सा आँगन...एक पतली-सी गली। गली खास थी। ख्वाब का सबसे खास हिस्सा उस गली का दिखना था। ख्वाबों का हिसाब रखना यूँ तो आदत में शुमार नहीं, फिर भी ये याद रखना कोई बड़ी बात नहीं थी कि जिंदगी का ये बस तीसरा ही ख्वाब तो था। इतनी फैली-सी, लंबी-सी जिंदगी और ख्वाब बस तीन...? ख्वाब में गली और आँगन के अलावा एक चाँद था और थी एक चमकती-सी धूप। चाँद उस गली होकर तनिक सकुचाते-सहमते हुये आया था धूप के आँगन में। धूप खुद को रोकते-रोकते भी खिलखिला कर हँस उठी थी। जलसा ठिठक गया था पल भर को धूप की खिलखिलाहट पर और चाँद...? चाँद तो खुद ही जलसा बन गया था उस खिलखिलाती धूप को देखकर। धूप ने एक बार फिर से चाँद के दोनों गालों को पकड़ हिला दिया। बहती हवा नज़्म बन कर फैल गयी फ़िजा में और नींद भर चला ख्वाब हड़बड़ाकर जग उठा। बगल में पड़ा हुआ मोबाइल एक अनजाने से नंबर को फ्लैश करता हुआ बजे जा रहा था। मिचमिचायी खुली आँखों के सामने न चाँद था, न ही वो चमकीली धूप। नज़्म बनी हुई हवा जरूर तैर रही थी मोबाइल के रिंग-टोन के साथ। टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी पर नजर पड़ी तो वो तीन बजा रही थी। कौन कर सकता है सुबह के तीन बजे यूँ फोन...और अचानक से याद आया कि घड़ी तो जाने कब से बंद पड़ी हुई है। दूसरे ख्वाब वाली बीती सदी की गर्मी की एक दोपहर से बंद पड़ी थी घड़ी।

मोबाइल पर एक बहुत ही दिलकश-सी अपरिचित आवाज थी। नींद से भरी और ख्वाब से भर्राई आवाज को भरसक सहेजता हुआ...

"हैलो...!"
"हैलो, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?"
"नहीं, आप कौन बोल रही रही हैं?"
"यूं ही हूँ कोई। नाम क्या कीजियेगा जानकर।"
"........."
"लेम्बरेटा...ठिठकी शाम, आपकी कहानी अभी-अभी पढ़ा है हंस में। आपने ही लिखी है ना?"
"जी, मैंने ही लिखी है"
"आपने अपने पाठकों के साथ अन्याय किया है।"
"???????"
"कहानी अधुरी छोड़कर"
"लेकिन कहानी तो मुकम्मल है।"
"मुझे सच-सच बता दीजिये प्लीज?"
"क्या बताऊँ????"
"आखिर में वो एसएमएस आया कि नहीं?"
"मैम, वो कहानी पूरी तरह काल्पनिक है।"
"बताइये ना प्लीज, वो शाम अब भी ठिठकी हुई है?"
"हा! हा!! मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मानता हूँ कि आपको ये सच जैसा कुछ लगा।"
"सब बड़बोलापन है ये आप लेखकों का।"
"ओह, कम आन मैम! वो सब एक कहानी है बस।"
"ओके बाय...!"
"अरे, अपना नाम तो बता दीजिये!!!"

...फोन कट चुका था। सुबह के सात बजने वाले थे। नींद की खुमारी अब भी आँखों में विराजमान थी। कमरे में तैरती नज़्म अब भी अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी और चाँद विकल हो रहा था धूप के आँगन में वापस जाने को। टेबल पर लुढकी हुई कलाई-घड़ी अब भी तीन ही बजा रही थी मगर। वो दूसरा ख्वाब था। पिछली सदी की वो गर्म-सी दोपहर थी कोई, जब चाँद उतरा था फिर से धूप के आँगन में। आँगन में उतरने से चंद लम्हे पहले ईश्वर से गुज़ारिश की थी उसने वक्त को आज थोड़ी देर रोक लेने के लिये। दोपहर बीत जाने के बाद...धुंधलायी शाम के आने का एलान हो चुकने के बाद धूप ने ही इशारा किया था कि चाँद की घड़ी अब भी दोपहर के तीन ही बजा रही है। ईश्वर के उस मजाक पर चाँद सदियों बाद तक मुस्कुराता रहा। ...और नज़्म अचानक से फिर मचल उठी। मोबाइल पर वही नंबर फिर से फ्लैश कर रहा था।

"हैलोssss...!!!"
"वो शाम अब भी ठिठकी हुई है क्या सच में?"
"मैम, वो बस एक कहानी है...यकीन मानें।"
"आप सिगरेट पीते हैं?"
"हाँ, पीता हूँ।"
"मैं जानती थी। एसएमएस आया कि नहीं बाद में?"
"हद हो गयी ये तो..."
"ओके, बाय!"
"हैलो...हैलो..."

...फोन कट चुका था। नींद अब पूरी तरह उड़ चुकी थी। टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी बदस्तुर तीन बजाये जा रही थी। नज़्म बनी हुई हवा मगर अब भी टंगी हुई थी कमरे में। और पहला ख्वाब....? वो कहानी फिर कभी!

17 January 2011

हाय तेरी रूमालाssss...

तमाम शोर-शराबे, हर्षोल्लास के पश्चात एकदम से थमक कर संभला हुआ ये दो हजार ग्यारह ढ़र्रे पर आ गया लगता है अब और फिलहाल अपने दैत्याकार में खड़ा मुँह-सा चिढ़ा रहा है। अभी कल ही की तो बात थी जैसे...टीन-एज की ड्योढ़ी पर बैठा मैं घड़ी की सुई को तेज-तेज घुमा कर, कैलेंडर के पन्नों को जल्दी-जल्दी पलटा कर देख लेना चाहता था खुद को इस नये दशक में। देखना चाहता था कि क्या हूँ मैं, क्या कुछ है जमा मेरे वास्ते और जब देख चुका तो वापस उसी ड्योढ़ी पर जाकर बैठ जाना चाहता हूँ। नहीं, उससे पहले एक बार फिर से घड़ी की सुई को तेज घुमा कर देख लेना चाहता हूँ अगले साल को...अगले दशक को। काश कि ये संभव हो पाता...!!!

चिल्ले-कलाँ अपने समापन पर है और वादी अपने धवल-श्वेत लिबास में किसी योगी की भाँति तपस्या में तल्लीन-सी। देर रात गये चिनार की शाखों और बिजली के तारों पर झूलते बर्फ धम-धम की आवाज के साथ टीन के छप्पर पर गिरते हैं और मेरी नींद स्लिपिंग-बैग में कुनमुनायी-सी, मन की तमाम आशंकाओं के साथ गश्त लगाती फिरती है सब रतजगों की चौकसी में। कितने अफ़साने हैं इन ठिठुरते रतजगों के जो लिखे नहीं जा सकते...! कितनी कहानियाँ हैं इन उचटी नींदों की जो सुनाई नहीं जा सकती...!! गश्त करता आशंकित मन पोस्ट-दर-पोस्ट खड़े प्रहरियों के बारे में सोचता है और रतजगे की कुनमुनाहट मुस्कान में बदल जाती है...ये मुस्कान एकदम से बढ़ जाती है जब मन ठिठक कर महेश पर आ रुकता है।

दूर उस टावर वाले पोस्ट पर महेश खड़ा है...लांस नायक महेश सिंह। पिथौड़ागढ़ का। पिथौड़ागढ़- कुमाऊँ का अपना पिट्सबर्ग :-)। महेश...दिखता तो मासूम-सा है, लेकिन है बड़ा ही सख्त और मजबूत...और उतनी ही सुरीली आवाज पायी है कमबख्त ने। एक टीस-सी उठा देता है जब तन्मय होकर गाता है वो। उसी ने तो सिखाया था मुझे ये प्यारा-सा कुमाऊँनी गीत:-

हाय तेरी रुमालाsssss
हाय तेरी रूमाला गुलाबी मुखड़ी

के भली छजी रे नके की नथुली

गवे गवे बंदा हाथ की धौगुली
छम छमे छमकी रे ख्वारे की बिंदुली
हाय तेरी रूमालाssss...


...और जब से उसे पता चला कि मुझे मो० रफ़ी के गीत खास पसंद हैं, तो अब तो हर मौके पर रफ़ी साब छाये रहते हैं महेश के होठों पर। थोड़ा-सा आगे की तरफ झुक कर शरीर का बोझ तनिक ज्यादा आगे वाले दाँये पाँव पर डाले हुये और दोनों हाथ पीछे बाँध कर जब वो "दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, यादों को तेरी मैं दुल्हन बना कर..." गाना शुरू करता है तो आप आराम से अपनी आँखें बंद कर प्यानो पर बैठे शम्मी कपूर को सोच सकते हैं, कानों में रफ़ी की ही आवाज आयेगी। सोचता हूँ, उसे अगली बार इंडियन आइडल के लिये भिजवाऊँ।

...उधर ज्यों ही रात भर रात पर झुंझलाती हुई बर्फ की परतों को सुबह की झलकी मिलती है, इधर त्यों ही रतजगे को सकून भरी नींद !!!