17 May 2013

हिन्दी कविता की लॉन्ग नाईन्टीज : एक पाठकीय प्रतिक्रिया


ये एक रफ-ड्राफ्ट सा कुछ प्रतिक्रिया के तौर पर...वागर्थ के विगत कुछ अंकों को पढ़ने के बाद-

अपनी ही लिखी कविताओं के मोह में उलझे महाकवियों के वर्तमान दौर में कायम उनके लीन-पैच के नाम...

लॉन्ग नाईन्टीज या नर्वस नाईन्टीज...?

...की तब जब कविता हर सफे, हर वरक पर असहाय कराहती नजर आ रही थी, आत्म-मुग्ध कवियों की एक टीम बाकायदा बैंड-बाजे के साथ सामने आती है और एक दशक-विशेष पर चर्चा के बहाने अपने नामों और अपनी ही कविताओं का फिर-फिर से ढ़ोल बजाती है |

...मुझे लेकर “तू कौन बे?” की तर्ज पर असंख्य भृकुटियाँ टेढ़ी होकर उठेंगी इन्हीं बड़े नामों की....तो मैं तुम सब का पाठक, मेरे प्रबुद्ध कविवरों, जो तुम्हारी कविताओं की किताबें अपने खून-पसीने की कमाई से खरीदता है और पढ़ता है...और हाँ, ये कोई क्लिशे नहीं, सचमुच के बहाये गए खून और माइनस जीरो डिग्री में भी निकाले गए पसीने की कमाई की बात कर रहा हूँ | ...तो एक तरह का हक समझ बैठता हूँ तुम्हारी इस आत्म-मुग्धता पर कुछ कहने का, मेरे महाकवियों |

...बड़े सलीके से एक प्रश्नावली बुनी जाती है और फिर उतने ही सलीके से चयनीत नामों की एक फ़ेहरिश्त को वो प्रश्नावली भेजी जाती है... कभी सुना था कि नई-कहानी नामक तथा-कथित आंदोलन के पार्श्व में कहानिकारों की एक तिकड़ी ने सुनियोजित साज़िश रच कर एक सिरे से हिन्दी-कहानी के तमाम शेषों-अशेषों-विशेषों को नकारने की ख़तरनाक सुपाड़ी उठाई थी | कुछ वैसा ही प्रयास हुआ है इस लॉन्ग नाईन्टीज विमर्श के बजरीये |  सलीके की बुनावट इस कदर कि कोई नाराज़ भी न हो, कोई विवाद भी ना उठे...लेकिन पाठकों द्वारा नकारी हुई अपनी कविताओं पर चर्चा भी हो जाये | काश कि इतना ही सलीका तुमने अपने शिल्प और कविता की कविताई पर भी दिखाया होता...!!!

टीम-चयन के दौरान पहले तो एक कवि-विशेष को पूर्व-पीढ़ी का अंतिम कवि कहते हुये खारिज कर दिया जाता है और फिर तुरत ही उस कवि-विशेष द्वारा एतराज जताने पर उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रथम कवि मान लिया जाता है...हाय रेsss , इतनी उलझन तो भारतीय क्रिकेट-टीम के चयनकर्ताओं के दरम्यान भी नहीं हुई होगी टीम चुनते समय |

पहले सफाई दी जाती है कि “कविता या साहित्य में दशकवाद घातक है...किसी दौर की रचना पर दशक के अनुसार विमर्श उचित नहीं” और फिर तुरत ही अपनी दुदुंभी बजाने की उत्कंठा में ऐलान किया जाता है कि “किन्तु लॉन्ग नाईन्टीज समय का प्रस्थान बिन्दु है”... जिसे पढ़कर कविताई-आतंक से खौफ़ खाये हम पाठक मुस्कुराने लगते हैं इस शातिरपने पर |

कैसी कविता, कहाँ की कविता कि जिसके सत्यापन के लिए एक पत्रिका के तीन से चार अंकों में जाने कितने पन्ने काले कर दिये गये तुमने, मेरे श्रद्धेय कविवरों...हम कविताशिक पाठक जो तुम्हारे गद्य के अनुच्छेदों की ऊपर-नीचे कर दी गई पंक्तियों को तुम्हारे द्वारा कविता कह दिये जाने पर आँख मूँद भरोसा कर लेते हैं और पढ़ते जाते हैं कि एक जुमले में ही सही, कहीं तो कविता का कवितापन दिख जाये...मगर हाय रे हतभाग ! निराला के “मुक्त-छंद” के आह्वान को कब तुमने चुपके-चुपके “छंद-मुक्त” बना दिया और बैठ गये विमर्श भी करने उस पर | कितना अच्छा होता कि इतने सारे व्यतीत पन्नों पर अपनी कवितायें ही दे देते, कम-से-कम ये मोहभंग की स्थिति तो नहीं आती...उधर, पश्चिम में, जानते तो होना मेरे कविवरों कि वो “फ्री-वर्स” ही है अब तलक...किसी ने “वर्स-फ्री” बनाने की हिमाकत नहीं की है | लेकिन हम तो तुम्हारे पाठक हैं...तुम्हारी इस हिमाकत पर भी पढे जाएँगे तुमको, गुने जाएँगे तुमको...

तट पर खड़े होकर भी तटस्थ ना दिखते लॉन्ग नाईन्टीज की ये पीढ़ी- हमारे प्यारे-दुलारे कवियों की ये पीढ़ी, गर्दन तक किस कदर बहती धार में डूबी लहरों के साथ बही जा रही है, इसका आभास इनकी कविताओं से जो अब तक हो ना पाया था, इस कथित विमर्श से अवश्य हो गया | नवाज़िश करम शुक्रिया मेहरबानी...

-एक बौखलाया कविताशिक 

03 May 2013

चंद अनर्गल-सी कॉन्सपिरेसी थ्योरीज...

१.
देर तक फब्तियाँ कसता रहा था आईना
खूब देर तक...
बढ़ी हुई दाढ़ी जँचती नहीं अब
कि पक गए हैं बाल सारे

इस चिलबिलाती सर्दी में 
रोज़-रोज़ शेविंग की जोहमत...

हाय ! ये कॉन्सपिरेसी
उम्र और रेजर की

२.
खुल जानी थी सड़कें 
पिघल जानी थी बर्फ कुछ तो
अब तक

ताजे गोभी ताजे आलू 
आ जाने चाहिये थे
लंगर में 

कच्चे प्याज को सूंघे भी 
हो गए अब तो महीने

स्टोर में शेष पड़े 
टिंड राशनों की कहीं ये
कोई कॉन्सपिरेसी तो नहीं...?

३.
कि तब जब गेल के बरसाती छक्कों से
सराबोर हो रहा था बंगलोर
और होने ही वाली थी पूरी 
आई॰पी॰एल॰ की फास्टेस्ट सेंचुरी

गिरी थी बिजली बंकर की छत पर
टेलीफोन-लाइन और लैप-टॉप के साथ ही
फुंक गया था इकलौता जेनरेटर भी

सुलझे नहीं सुलझी है
ये अजब-सी कॉन्सपिरेसी

४.
फिर से बढ़ी कीमत इस बार भी 
बजट में

पुराने स्टॉक की आख़िरी डिब्बी
विल्स क्लासिक की 
देर से घूरे जा रही है 
टेबल पर रक्खी

केरो-हीटर से निकलता है
धुआँ कसैला-सा

एश-ट्रे ने बुनी है फिर से
नई कोई कॉन्सपिरेसी

५.
थमती नहीं है बर्फबारी

आठ जोड़े मोजे
और चार जोड़े इनर्स भी
कम पड़ गये हैं कैसे तो कैसे

सूखे नहीं गर कमबख़्त कल तक
रद्द करनी पड़ेगी
तयशुदा वो गश्त फिर से

मौसम और कपड़ों के साथ मिलकर
ये अनूठी कॉन्सपिरेसी
दुश्मनों ने ही रची क्या