06 March 2021

चुप गली और घुप खिडकी

एक गली थी चुप-चुप सी 
इक खिड़की थी घुप्पी-घुप्पी 
इक रोज़ गली को रोक ज़रा 
घुप खिड़की से आवाज़ उठी

चलती-चलती थम सी गयी 
वो दूर तलक वो देर तलक
पग-पग घायल डग भर पागल
दुबली-पतली वो चुप-सी गली

घुप खिड़की ने फिर उस से कहा

सुन री बुद्धू  
सुन सुन पगली

आवारगी के जूतों पर 
नहीं कसते उदासी के तसमें
नहीं फ़बता इश्क़ की आँखों पर
चश्मा ऊनींदे ख़्वाबों का

हिज्र के रूँधे मौसम को 
कब आया सलीक़ा रोने का
कब क़दमों ने कुछ समझा है
दुख तेरे रौंदे जाने का

मैं जानूँ हूँ मेरी ख़ातिर तू मोड़-मोड़ पर रुकती है
मैं समझूँ हूँ तू पैर-पैर बस मेरे लिये ठिठकती है

हर टूटे चप्पल का फ़ीता
इक क़िस्सा है, अफ़साना है
सायकिल की उतरी चेन में भी
इक थमता-रुकता गाना है
सिगरेट के इक-इक कस में उफ़
वो जो जलता है... दीवाना है 

तू रहने दे...रहने भी दे
जो रोता है 
जो टूटा है 
जो रुकता है 
जो जलता है 
दीवाना है 
दीवानों का
बस इतना ही अफ़साना है 

कितनी हैं बंदिश मुझ पर 
हैं कितने पहरें सुबहो-शाम 
दीवाने यूँ ही आयेंगे 
तेरा है चलना एक ही काम 

चुप गली खड़ी चुपचाप रही
 
चप्पल के टूटे फ़ीते थे
सायकिल के घूमते पहिये थे
जूतों के उलझे तस्मों में
कुछ सहमे से दीवाने थे 
कुछ सस्ती सी सिगरेटें  थीं
कुछ ग़ज़लें थी, कुछ नज्में थीं 

चुप गली ने सबको देख-देख 
घुप खिड़की को फिर दुलराया 
फिर शाम सजी 
फिर रात उठी
और धूम से इश्क़ की
बात उठी  

घुप खिड़की की मदहोश हँसी
चुप गली ने डग-डग बिखराई  
 
 
 ~ गौतम राजऋषि