30 August 2010

दबी होती है चिंगारी, धुँआ जब तक भी उठता है

रमजान के पवित्र महीने की मुबारकबाद आपसब को। कश्मीर में हालात थोड़े सुधरे हैं। पत्थरबाजी इधर तो कम हुई है, किंतु ब्लौगजगत में अभी भी यत्र-तत्र जारी है और ऐसे तमाम पत्थरों से इतना ही कहना है बस कि किसी की विनम्रता को उसकी कमजोरी कदापि न समझा जाये। खैर, बहुत दिन हो गये थे अपनी कोई ग़ज़ल सुनाये हुये ब्लौग पर।...तो एक अदनी-सी ग़ज़ल प्रस्तुत है, जिसे मुफ़लिस जी ने कहने लायक बना दिया है:-

न समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी, धुँआ जब तक भी उठता है

बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है

गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है

बता ऐ आस्मां कुछ तो कि करने चाँद को रौशन*
तपिश दिन भर लिये सूरज भला क्यूं रोज़ जलता है {*ये शेर खास तौर पर लोकप्रिय कवि लाल्टू को समर्पित है}

बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है

चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है

वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है

कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है

किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ये किस्से जेह्‍न में माजी के रह-रह कौन पढ़ता है

कई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
कि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है
{त्रैमासिक ’कथन’ के अप्रैल-जून 2010 अंक में प्रकाशित}


...और हमेशा की तरह इस ग़ज़ल की बहरो-वजन पर चर्चित गीतों और ग़ज़लों का जिक्र। मेरा बहुत ही पसंदीदा गीत है एक महेन्द्र कपूर साब का गाया हुआ "किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है" वाला और उन्हीं का गाया एक और गीत याद आता है इसी बहर पर "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हमदोनों"।


फिलहाल इतना ही।

07 August 2010

रूल्स आफ इंगेजमेन्ट

पत्थर तो बड़ी तबियत से उछाले जा रहे हैं लेकिन आसमान में सूराख नहीं हो रहा। वर्दियों के सर फूट रहे हैं, कंधे चटख रहे हैं, घुटने खिसक रहे हैं...लेकिन आसमान में छेद नहीं हो रहा और हो भी कैसे, जब दुष्यंत तबियत से पत्थर उछालने का आह्‍वान कर गये थे तो उसमें सच्चाई की ताकत वाली बात छुपी हुई थी। यहाँ झूठ के परत में लिपटे हुये पत्थर भले ही कितनी ही तबियत से उछाले जा रहे हों उनकी औकात सर-कंधों-घुटनों तक ही सीमित रहने वाली है, आसमान में छेद करने की बिसात नहीं है इनकी।

इन बरसते पत्थरों से मन उतना विचलित नहीं होता जितना झेलम की उदासीनता से। जी करता है इस मौन-शांत प्रवाह में रमी झेलम को झिंझोड़ कर कहूँ कि तू इतनी निर्विकार कैसे रह सकती है जब तेरे किनारे खेलने-कूदने वाले बच्चे राह भटक रहे हैं चंद सरफ़िरों के इशारे पर।

इन "भारतीय कुत्तों वापस जाओ" के नारों से मन उतना खिन्न नहीं होता जितना चिनारों के बदस्तूर खिलखिलाने से। मन करता है वादी के एक-एक चिनार को झकझोड़ कर पूछूँ कि तुम इतना खिलखिला कैसे सकते हो जब तुम्हारी छाया में पले-बढ़े नौनिहाल तुम्हारे अपने ही मुल्क को गंदी गालियाँ निकाल रहे हों।

इन आजादी की बेतुकी माँगों से से मन उतना उदास नहीं होता जितना बगीचों में ललियाते रस लुटाते सेबों को देखकर होता है। दिल करता है कि...

जी करता है...मन करता है...दिल करता है...बस यूँ ही करता रहता है। कर कुछ नहीं पाता हक़ीकत में। ऐसे में निराश मन जब अखबारों, चैनलों और ब्लौग पर नजर दौड़ाता है तो वहाँ से भी उसे दुत्कार मिलती ही दिखती है। हर तरफ...हर ओर। निष्पक्ष मिडिया, ईमानदार ब्लौगर बंधु कश्मीर के जख्मी लोगों की तस्वीर तो दिखाते हैं लेकिन उनके कैमरे के लैंस, उनकी कलम की स्याही जाने कैसे फूटे सर वाले पुलिसकर्मी, टूटे कंधों वाले सीआरपीएफ़ के जवान और लंगड़ाते सुरक्षाबलों की टुकड़ी को नजरंदाज कर जाते हैं। इन टूटे-फूटे सुरक्षाकर्मियों की तस्वीर टीआरपी रेटिंग जो नहीं बढ़ाती...इन लंगड़ाते-कराहते पुलिसवालों का जिक्र ब्लौग पे बहस जो नहीं बढ़ाता।

तहसीलदार के कार्यालय को जलाने में लिप्त चंद सरफ़िरे युवाओं में से कुछ की मौत उसी कार्यालय में उन्हीं के द्वारा लगायी आग से फटे गैस के सिलेंडर से होती है और इल्जाम वर्दीवालों पर जाता है। कई दिनों से अस्पताल में भर्ती एक बीमार बुजूर्ग दम तोड़ते हैं और जब उनका जनाजा घर आता है तो अफवाह उड़ायी जाती है गली-कूचों में कि पुलिस के डंडों से मर गये हैं और पत्थरों की बारिश कहर बन कर टूटती है सुरक्षाकर्मियों पर। एक आठ साल का बच्चा दौड़ते हुये गिर पड़ता है और उसके तमाम भाई-बंधु उसे अकेला छोड़ कर भाग जाते हैं तो सुरक्षाबलों की टुकड़ी में हरियाणा के एक जवान को उस गिरे बच्चे को देखकर दूर गाँव में अपने बेटे की याद आती है, वो उसे अपनी गोद में उठाकर पानी पिलाता है, अपनी गाड़ी में अस्पताल छोड़ कर आता है और जब उस बच्चे की मौत हो जाती है अस्पताल में तो उसी बच्चे को बर्बरतापूर्वक कत्ल कर देने का इल्जाम भी अपने सर पर लेता है।

यक़ीन जानिये, अपने मुख पर "indian dogs go back" के नारे को सुनकर संयम बरतना बड़ा ही जिगर वाला काम है। एक सरफ़िरा नौजवान एक वर्दीवाले के पास आकर उसके युनिफार्म का कालर पकड़ उसके चेहरे पर चिल्ला कर कहता है बकायदा अँग्रेजी झाड़ते हुये "you bloody indian dog go back" और बदले में वो वर्दीवाला मुस्कुराता है और सरफ़िरे नौजवान को भींच कर गले से लगा लेता...पूरी भीड़ हक्की-बक्की रह जाती है और वो वर्दीवाला अपने संयम को मन-ही-मन हजारों गालियाँ देता हुआ आगे बढ़ जाता है।

एक इलाके के एसपी साब का सर बड़े पत्थर से फूट चुका है...वर्दी पूरी तरह रक्त-रंजित हो चुकी है किंतु वो महज एक हैंडीप्लास्ट लगाकर भीड़ के सामने खड़े रहते हैं अपने मातहतों को सख्त आदेश देते हुये कि कोई भी भीड़ पर चार्ज नहीं करेगा। दूसरे दिन चिकित्सकों की टोली सर पर लगे चोट की वजह से उनके एक कान को निष्क्रिय घोषित कर देती है।

अपने ट्रेनिंग एकेडमी के दिनों में सिखाये गये सबक की याद आती है..."rumour-mongering is one of the biggest enemies in the times of war"...नहीं, ये war तो कदापि नहीं है लेकिन ये तनाव के क्षण उससे कहीं कम भी नहीं हैं। कश्मीर को इन क्षणों में पूरे मुल्क के विश्वास की जरूरत है, अफवाहों की नहीं। अभी कल ही अपनी अदनी-सी टिप्पणियों से एक भरोसा जीता है मैंने, शायद ये पोस्ट कुछ और भरोसों को जीतने में कामयाबी दे मुझे...आमीन !!!