20 May 2010

एक असैनिक व्यथा...

दोस्त मेरे !

अच्छे लगते हो
अपनी आवाज बुलंद करते हुये
मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर
जब-तब, अक्सर ही
कि
शब्द तुम्हारे गुलाम हैं
कि
कलम तुम्हारी है कनीज़

बहुत भाते हो तुम
ओ कामरेड मेरे !
कवायद करते हुये
सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध

बुरे तब भी नहीं लगते,
यकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को
और तब भी नहीं
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर

बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को

पसंद आता है
ये पैनापन तुम्हारी
नजरों का
कि
प्रेरित होता हूँ मैं इनसे
इन्हीं की तर्ज पर
पूरे दिल्लीवालों को
बलात्कारी कहने के लिये

नहीं, मैं नहीं कहता,
आँकड़े कहते हैं
"मुल्क की राजधानी में होते हैं
सबसे अधिक बलात्कार"
तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर
पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना
फिर अनुचित तो नहीं...?

कुछ इरोम शर्मिलाओं संग
एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा
की गयी नाइंसाफी का तोहमत
तुम भी तो जड़ते हो
पूरे कुनबे पर

सफर में हुई चंद बदतमिजियों
की तोहमतें
तुम भी तो लगाते हो
तमाम तबके पर

...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे

...तो क्या हुआ
कि उन चंद बदतमिजों के
हजारों अन्य संगी-साथी
तुम्हारे पसीने से ज्यादा
अपना खून बहाते हैं
हर रोज

तुम्हें भान नहीं
मित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का

सच कहता हूँ
जरा भी बुरे नहीं लगते तुम
हमसाये मेरे
कि
तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में

तुम्हीं कहो
कैसे नहीं अच्छे लगोगे
फिर तुम,
ऐ दोस्त मेरे...


फुट-नोट्स:-

नहीं, इसे कविता कहने की औकात नहीं है मेरी। बस कुछ अहसास हैं जो पैदा हुये हिंदी-युग्म के वार्षिक-सम्मेलन के दौरान मेरी एक सामान्य-सी टिप्पणी को हिन्दी-साहित्य के वरिष्ट विख्यात आलोचक श्री आनंद प्रकाश जी द्वारा खुद पर व्यक्तिगत रूप से ले लेने की बदौलत और बदले में पूरी सेना के खिलाफ़ उपजी उनकी प्रतिक्रिया की वजह से...और इन अहसासों की पूर्णाहुति हुई कंचन के आखिरी पोस्ट पर पनिहारन की अद्यतन टिप्पणी को पढ़ने के बाद।





17 May 2010

एक हीरो की शहादत...एक सैनिक की मनोव्यथा

पिछले दो हफ़्ते मिले-जुले रंग वाले रहे। कुछ बड़ी सफ़लताओं वाले हर्षोल्लास के रंग तो कुछ शहादत के उदास रंग...जहाँ ढ़ेर सारे सरफिरों को दोज़ख तक का छोटा रस्ता इन दो हफ़्तों ने दिखाया, वहीं दूसरी तरफ इन्हीं दो हफ़्तों ने कुछ साथियों की शहादत से "हीरो" शब्द को नया आयाम दिया। ऐसा ही एक हीरो था अपना यंगस्टर- राजबर...योगेन्द्र राजबर...कैप्टेन योगेन्द्र राजबर। उम्र के छब्बीसवें पायदान पे खड़ा अपना ये यंगस्टर चार मई की उस काली रात में हीरोइज्म का नया अध्याय लिख कर पीछे छोड़ गया है कई उदास मन, ढ़ेर सारी यादें और चंद तस्वीरें...












...अभी इससे ज्यादा और कुछ न लिखा जायेगा यहाँ। एक कविता सुनवाता हूँ आपसब को जिसे लिखा है श्रीप्रकाश शुक्ल जी ने। शुक्ल जी रिटायर्ड एयर-फोर्स आफिसर हैं और फिलहाल लंदन में रह रहे हैं। सैनिक के मनोभावों को बड़ी खूबसूरती से उकेरते शब्दों में गुंथी ये कविता निश्चित रूप से अनगिनत पाठकों तक पहुँचने का हक माँगती है:-


सैनिक की मनोव्यथा

सोचा, गीत लिखूं इक मधुरिम,भरे सरसता, कोमल मन की

चातक की प्यास, आस बाला की, गुंजन हो, नूपुर ध्वनि की

घूंघट का पट, सूना पनघट, नटखट चितवन, प्यास पथिक की

कुंतल लट की झटक लटपटी,नाविक गीत, कूक कोयल की

साँसों की सिसकन, सजल नयन,उलझन,तड़पन विछड़ी विरहिन की

यौवन की पीड़ा, आस मिलन की,आशाएं अनगिन दुल्हन की


पर ये मंजुल भाव रुपहले,अंकुरित हुये थे जो यौवन में

बिन पनपे ही, भेंट चढ गये, मातृभूमि को दिये वचन में

जीवन के व्यवधान अनेकों,घ्रणा,क्रोध,प्रतिशोध बो गए

कारुण्य, कल्पना, कृति, संवेदन,अनजाने ही व्यर्थ खो गये

आज तूलि, आतुर, अधीर,पर चित्र बनें धूमिल मन में

शब्द नहीं बन पाती संज्ञा,सोये पड़े भाव पलकन में



a big salute to you Yogendra...rest in peace, Boy !!!