28 January 2010

एरिक सिगल की स्मृति में...

"love means not ever having to say you are sorry"...हम जैसे कितने ही आशिकों के लिये परम-सत्य बन चुकी इस पंक्ति के लेखक एरिक सिगल की मृत्य हो गयी इस 17 जनवरी को और मुझे इस बात का पता चला बस कल ही। यहाँ कश्मीर वादी के इस सुदूर इलाके में राष्ट्रीय अखबार वैसे ही एक दिन
विलंब से आते हैं और विगत कुछ दिनों से छब्बीस जनवरी के मद्देनजर से बढ़ी हुई चौकसी की वजह से अखबारों पे नजर नहीं फेर पा रहा था।...अचानक से कल निगाह पड़ी इस खबर पर तो धक्क से रह गयी धड़कनें एकदम से।

वर्ष 1993 की बात थी। सितम्बर या अक्टूबर का महीना। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में मेरा पहला सत्र। हम सभी कैडेटों को एक-एक प्रोजेक्ट मिला था करने को। मेरे प्रोजेक्ट का विषय था "20th Century's Best-sellers"...और अपने उसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में मेरा वास्ता पड़ा LOVE STORY से। उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़...!!! जेनिफर और ओलिवर की इस अद्‍भुत प्रेम-कहानी ने मुझे मेरे पूरे वज़ूद को तरह-तरह से छुआ था और जाने कितनी बार पढ़ गया था मैं इस सौ पृष्ठ वाले उपन्यास को। उपन्यास की पहली ही पंक्ति में लेखक नायिका को मार देता है और
फिर इस ट्रेजिक प्रेम-कहानी का ताना-बाना कुछ इतनी खूबसूरती से बुना गया है...विशेष कर जेनिफर-ओलिवर के बीच के संवाद इतने मजेदार हैं कि आह...और अचानक से जो पता चला कि एरिक सिगल नहीं रहे तो दुखी मन मेरा ये पोस्ट लिखने बैठ गया। लव-स्टोरी की वो पहली पंक्ति याद आती है:-

What can you say about a twenty five year old girl who died?...that she was beautiful. And brilliant.That she loved Mozart and Bach.And the Beatles.And me

...बाद में इसी किताब पर आधारित इसी नाम से बनी फिल्म भी देखने का मौका मिला था। हलाँकि किताब वाला जादू फिल्म जगा नहीं पायी थी। इधर दो-एक साल पहले हिंदी में भी एक फिल्म आयी थी "ख्वाहिश" नाम की, जो मल्लिका शेरावत द्वारा दिये गये अनगिनत चुंबन-दृश्यों की वजह से सुर्खियों में रही थी। वो इसी किताब पर आधारित थी, यहाँ तक कि सारे डायलाग तक हिंदी में अनुवाद कर लिये गये थे। खैर, विषय से न भटकते हुये...वो वर्ष 93 का सितम्बर-अक्टूबर वाला महीना था, जब मेरा पहला परिचय हुआ था एरिक सिगल से और लव-स्टोरी पढ़ लेने के पश्चात बावरा हुआ मन उनकी सारी कृतियाँ खरीद लाया अपने संकलन के लिये। चाहे वो "Doctors" हो या फिर "Class" हो या फिर "Man,Woman and Child" ...या...या फिर लव-स्टोरी का ही सिक्वेल "Oliver's Story" हो। एक बार जब वो शेखर कपूर निर्देशित "मासूम" देखने का मौका मिला तो पता चला कि ये "Man,Woman and Child" पर ही आधारित है। वैसे अभी हाल ही में आयी "जाने तू या जाने ना" का प्लाट भी सच पूछिये तो बहुत कुछ "Doctors" पर ही आधारित है।

पिछले कुछेक सालों से मेरा ये प्रिय लेखक पार्किंसन से ग्रस्त था और तिहत्तर साल की उम्र में चला गया वो। यकीनन उधर ऊपर भी वो ईश्वर को अपनी "लव-स्टोरी" सुना रहा होगा। उनकी दिवंगत आत्मा को मेरा एक कड़क सैल्युट और श्रद्धांजलि...

25 January 2010

कुमार विनोद : ग़ज़ल-गाँव का नया दुष्यंत

हिंदी-साहित्य की समस्त विधाओं में चाहे वो कहानी हो, कविता हो, गीत-नवगीत हो, उपन्यास हो, लेख, यात्रा-संस्मरण या आलोचना आदि हो...इन समस्त विधाओं में ग़ज़ल हमेशा से हाशिये पर ही खड़ी नजर आती है। आप कोई भी साहित्यिक पत्रिका उठा कर देख लीजिये...हफ़्ते, पखवारे, महीने या वर्ष के अंत में होने वाले किसी भी साहित्यिक लेखे-जोखे में आप कभी भी किसी ग़ज़लकार, शायर या ग़ज़ल-संग्रह का जिक्र नहीं पायेंगे। कभी भी नहीं। हर पत्रिका में जब भी उसके अगले महीने निकलने वाले अंक का जिक्र होता है, आप हमेशा पायेंगे "फलां-फलां की कहानियाँ और अमुक-अमुक की कवितायें अगले अंक का विशेष आकर्षण" किंतु आप कभी नहीं लिखा पायेंगे फलां-फलां या अमुक-अमुक की ग़ज़लें, चाहे दो से चार ग़ज़लें नियमित रुप से छपती हों उस पत्रिका में हर महीने। इस सौतेले व्यवहार के लिये जितना दोष इन कथित साहित्य-प्लेटफार्मों{?} का बनता है, उससे कहीं अधिक दोष एकदम से उमड़ आयी हम जैसे शायरों की उस पूरी फौज का भी बनता है जो ग़ज़ल के नाम पर बगैर उसका व्याकरण जाने शेर पे शेर जोड़े जाते हैं। किंतु उसी हाशिये पर- ग़ज़लकारों की हम जैसी अधकचरी जमात से परे- चंद राजेश रेड्डियों, आलोक श्रीवास्तवों, अशोक अंजुमों, पंकज सुबीरों, विनय मिश्रों, द्विजेन्द्र द्विजों, सर्वत जमालों, कुमार विनोदों, आदि जैसे नाम जब अपनी कलम लेकर आते हैं तो फिर हाशिये को धता बताते हुये ग़ज़ल के लिये पूरे पन्ने को भी कम पड़ने का अहसास दिला जाते हैं...और इसी अहसास की बदौलत ग़ज़ल अब तलक कविता की भाँति "अ-ग़ज़ल" या "बहर-मुक्त(छंदमुक्त की तर्ज पर)ग़ज़ल" नहीं हुई है...वो सिर्फ और सिर्फ ग़ज़ल ही है।

हिंदी-साहित्य में जब भी ग़ज़ल की बात उठेगी तो दुष्यंत कुमार का नाम आना स्वभाविक है। सच पूछिये तो ट्रेड-मार्क बन गये हैं दुष्यंत। ...तो कोई भी नया शायर जब अपनी ग़ज़लों से पहचान बनाने लगता है, खासकर अपने अशआरों के तेवर से तो लोग तुरत उसकी तुलना दुष्यंत से करने लगते हैं। अभी कुछ दिनों पहले किसी पत्रिका में छपी एक ग़ज़ल पढ़ रहा था मैं...पत्रिका शायद "आधारशिला" थी या "वर्तमान साहित्य", याद नहीं आ रहा। एक ग़ज़ल के शेर ने एकदम से ध्यान खींचा। शेर कुछ यूं था:-

देखकर बाजार की कातिल अदा
ख्वाहिशों को सर उठाना आ गया


...शेर की तिलमिलाहट दिल में घर कर गयी और साथ ही शायर के नाम ने। जगह-जगह शेर को quote करने लगा मैं। कुछ शायर मित्रों को भी जब सुनाया तो एक-दो लोगों का उद्‍गार निकला कि "अरे, ये तो कुमार विनोद का शेर है"...बिंगो! हमने सोचा कि जनाब के हमारी तरह और भी चाहने वाले हैं।...तो साहित्यिक पत्रिकाओं पे नजर फेरने वालों मित्रों से और उन सब पाठक बंधुओं से जो ग़ज़ल को भी साहित्य की एक सशक्त विधा मानते हैं, कुमार विनोद का नाम अब अपरिचित नहीं रहा होगा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर, कुमार विनोद साब हैरान करते हैं अपनी ग़ज़लों से। एक गणितज्ञ जब शायरी करेगा तो यकीनन सब कुछ नपा-तुला होगा। वो इंगलिश का शब्द है ना precise...बिल्कुल वही। उनके चुने काफ़िये लाजवाब करते हैं तो तनिक हटकर के लिये गये रदीफ़ अचंभित। हर शेर पढकर लगे कि उफ़्फ़्फ़! ये मैंने क्यों नहीं लिखा!! इन सब अनुभवों से गुजरने के लिये आपसब को उनकी सद्यःप्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" से रुबरु होना पड़ेगा। फिलहाल उनकी इसी ग़ज़ल-संग्रह से मैं आपसब को उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाता हूँ:-

लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं

उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं(*shopping mall)

काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं

एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं

एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं

वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं

...है ना एक अजीब-सी तिलमिलाहट लिये ये अशआर सारे-के-सारे? उनकी कुछ रचनायें आप यहाँ और यहाँ क्लीक करके भी पढ़ सकते हैं। समस्त ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाने के लिये और उनकी किताब के लिये कुमार साब को फोन घुमाइये। नंबर है- 09416137196| गज़ब के सौम्य-स्वभाव वाले और मृदुभाषी कुमार विनोद साब से बात करने का भी एक अलग ही मजा है। मैं जब-तब समय निकाल कर अपने ब्लौग पर आपसब को उनकी ग़ज़लों से मिलवाता रहूँगा। फिलहाल विदा दें और कुमार साब की ग़ज़ल पसंद आयी हो तो उन्हें फोन करके बताइये। अरे हाँ, मैं कुमार विनोद जैसे शेर कहने की कूबत भले ही न रखूँ, लेकिन जन्म-दिन उनके साथ ही साझा करता हूँ। सुन रहे हैं, विनोद सर...??? :-)

पुनश्चः
आधार प्रकाशन से प्रकाशित ये ग़ज़ल-संग्रह महज सौ रुपये में उपलब्ध है और किताब मँगवाने के लिये 9417267004 पर संपर्क किया जा सकता है।

18 January 2010

घर में सूबेदारनी के क्या दिवाली फाग क्या

कई दिनों से अपनी कोई ग़ज़ल नहीं लगायी थी मैंने ब्लौग पर, तो आज मूड-सा बना ग़ज़ल का। पुरानी ग़ज़ल है, जिसे शायद कुछ सुधि पाठकों ने कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ के अक्टूबर 09 वाले अंक में पढ़ा होगा और कुछ पाठकों ने साहित्य-शिल्पी पर भी पढ़ा होगा। एक बचपन से मुझे हिंदी-साहित्य के कुछ कहानिकारों ने अजब मोह-पाश में बाँध रखा है। कुछ नाम जैसे कि गुलेरी, मोहन राकेश, कमलेश्रर, मंटो, मन्नु भंडारी, अमृता प्रीतम और प्रेमचंद...उनके रचे चरित्र अजीबो-गरीब ढ़ंग से जुड़ आते थे(हैं) मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में। दो साल पहले इन्हीं कुछ चरित्रों को लेकर ग़ज़ल के कुछ अशआर बुनने शुरु किये, जो बाद में गुरुजी के आशिर्वाद से मुक्कमल हुई। पेश है वही ग़ज़ल:-

जल गई है फ़स्‍ल सारी पूछती अब आग क्या
राख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या

ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्‍र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या

खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या

चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या

क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’

किरणों के रथ से उतर क्या आयेगा कोई कुँवर
सोचती है "निर्मला", देहरी पे कुचड़े काग क्या

जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या

...कुछ गुरुजन लोग आपत्ति उठायेंगे ग़ज़ल के चौथे और पाँचवें शेर के काफ़ियों पर। कायदे से इन दोनों काफ़ियों को नुक्ते के साथ आने चाहिये और इस लिहाज से ये अशआर खारिज हो जाते हैं। गुरुजनों की तमाम आपत्तियाँ सर-आँखों पर, किंतु इन काफ़ियों को प्रचलित हिन्दुस्तानी उच्चारणों को ध्यान में रखकर अशआर बुने गये हैं।

इस बहरो-वजन पे खूब प्यारी ग़ज़लों और गीतों को लिखा गया है बड़े-बड़े शायरों और कवियों द्वारा। मेरे इस ब्लौग के नाम के लिये प्रयुक्त हुआ फ़िराक गोरखपुरी का ये शेर "पाल ले इक रोग नादां..." इसी बहर में है। इस बहर पे कुछ अन्य लोकप्रिय ग़ज़लें जो याद आ रही हैं "चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है" और "होश वालों को खबर क्या जिंदगी क्या चीज है" या फिर "हमको किस के ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही" और एक-दो फिल्मी गीत जो इसी बहरो-वजन पर लिखे गये हैं और जो मुझे इस वक्त याद आ रहे हैं...लता दी का गाया "आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे" और किशोर दा का युगल-गीत "आपकी आँखों में कुछ महके हुये से राज हैं" और फिर रफ़ी साब का गाया "दर्दे-दिल दर्दे ज़िगर दिल में जगाया आपने"...।

फिलहाल इतना ही...जल्द ही मिलता हूँ अपनी अगली पोस्ट के संग।

(हंस के मार्च २०१० अंक में भी प्रकाशित)

14 January 2010

शार्दुला नोगजा- छंदबद्ध रचनाओं की एक सशक्त हस्ताक्षर

छंदबद्ध और छंदमुक्त...? बहस शायद अनंत-काल तक चलती रहे। पिछली दो पोस्टों के जरिये कुछ विज्ञजनों के अप्रतिम विचारों ने मेरे गिने-चुने ज्ञानतंतुओं को खूब हिलाया-डूलाया। आप सब का आभार। इन बहसों से परे आईये मिलते हैं छंद की एक सशक्त हस्ताक्षर से। अंतरजाल पर फैले कविता के अथाह समंदर में डूबकी लगाने वाले शार्दुला नोगजा के नाम से भली-भाँति परिचित होंगे। मुझे उन्हें दीदी कहने का सौभाग्य प्राप्त है...नहीं महज इसलिये नहीं कि वो भी मिथिलांचल से हैं, मैं भी "झा" हूँ और विवाह-पूर्व वो भी "झा" थीं। पिछले साल उस सितम्बर महीने में की मुझे वो गोली लगने वाली घटना यूँ तो दुर्भाग्यपूर्ण थी, किंतु उसी बहाने कुछ बेहद ही अज़ीज नये रिश्तों का आगाज हुआ। शार्दुला दी का वो चिंतित, परेशान इ-मेल और फिर ये "दीदी" और "प्यारेलाल" का
ये प्यारा-सा रिश्ता। जी हाँ, वो मुझे प्यारेलाल कह कर पुकारती हैं उधर उतनी दूर सात समंदर पार सिंगापुर से...। इसी क्रम में उनकी कविताओं और गीतों को पढ़ने का मौका मिला तो हैरत से मैं शब्दों के इस जादुई संगम में डूबता-उतराता उन्हें अपना ब्लौग बनाने की जिद करने लगा। किंतु वो नहीं मानीं...ब्लौग का माहौल, व्यर्थ के उभरते विवाद उन्हें रास नहीं आ रहे। फिर मैंने सोचा कि उनकी कवितायें "पाल ले इक रोग नादां..." के नियमित पाठकों और अपने मित्रों के हवाले करुँ और आप सब से अनुग्रह करुँ कि शार्दुला दी को ये बताया जाये कि ब्लौग का माहौल इतना भी दुषित नहीं हुआ है। चलिये, देखते हैं पहले उनकी एक सामयिक रचना...एक अनूठी कविता जो कुछ अद्‍भुत प्रतिकों के जरिये अभी हाल ही में संपन्न हुई विवादास्पद Copenhagen Summit पे क्या कुछ कह जाती है:-

एक सपना टूटता है

आज चुप्पी मूढ़ता है
एक सपना टूटता है
एक हरियाली मेरे जंगल से नोटों तक चली
सालों से बोरी में लिपटी शायरी अब पक चली
फल पका अब फूटता है
एक सपना टूटता है

भाग पातीं अब न गलियाँ, ट्रेफिकों ने पाँव छीने
एक ही मंज़र दिखातीं थक गयीं ये ट्रेड मशीनें* (*Treadmills)
कुछ न पीछे छूटता है
एक सपना टूटता है

क्रेन, पोतों, टेंकरों के बीच सूरज क्या करेगा
अब कहाँ पानी में जा कर आस्मां डुबकी भरेगा
क्षितिज पल-पल रूठता है
एक सपना टूटता है

अमन के हैं मायने क्या वो बताएँगे हमें अब
छत ज़मीनें जा लगीं और रास्ते छलनी हुए जब
शहर छाती कूटता है
एक सपना टूटता है

...और अब पढ़िये एक खूबसूरत प्रेम-कविता, चंद अनछुये बिम्बों से सजी-संवरी:-

सच कहूँ तेरे बिना

सच कहूँ तेरे बिना ठंडे तवे सी ज़िंदगानी
और मन भूखा सा बच्चा एक रोटी ढूँढता है
चाँद आधा, आधे नंबर पा के रोती एक बच्ची
और सूरज अनमने टीचर सा खुल के ऊंघता है !

आस जैसे सीढ़ियों पे बैठ जाए थक पुजारिन
और मंदिर में रहें ज्यों देव का श्रृंगार बासी
बिजलियाँ बन कर गिरें दुस्वप्न उस ही शाख पे बस
घोंसला जिस पे बना बैठी हो मेरी पीर प्यासी !

सच कहूँ तेरे बिना !

पूछती संभावना की बुढ़िया आपत योजनायें
कह गया था तीन दिन की, तीन युग अब बीतते हैं
नाम और तेरा पता जिस पर लिखा खोया वो पुर्जा
कोष मन के और तन के हाय छिन छिन रीतते हैं

सच कहूँ तेरे बिना मेरी नहीं कोई कहानी
गीत मेरे जैसे ऊंचे जा लगे हों आम कोई
तोड़ते हैं जिनको बच्चे पत्थरों की चोट दे कर
और फिर देना ना चाहे उनका सच्चा दाम कोई !

सच कहूँ तेरे बिना !

...उफ़्फ़्फ़! चाँद को आधे नंबर पा के रोती सी बच्ची और सूरज को ऊँघता-अनमना टीचर बनाने वाली इस विशिष्ट रचनाकार को उतनी ही दिलकश आवाज का भी देव-उपहार मिला हुआ है। उन्हीं की आवाज में सुनवाता हूँ उनकी अपनी ही एक रचना "हमको ऐसी मिली जिंदगी..." :-




उनकी कुछ रचनायें कविता-कोश पर भी उपलब्ध हैं जिसे यहाँ क्लीक करके पढ़ा जा सकता है। आपसब की हौसलाअफ़जाई शायद शार्दुला दी को ब्लौग-जगत तक खींच लाये, इसी उम्मीद के साथ अगली पोस्ट में मिलता हूँ अपनी एक ग़ज़ल के साथ।

11 January 2010

कविता के बहाने कुछ टिप्पणियों का पोस्ट-रुपांतरण

किसी ब्लौग पर पढ़ा था कि "कुछ टिप्पणियाँ बस ’टिप्पणियाँ’ नहीं होतीं"... तो अपने पिछले ब्लौग पर मेरी उस कथित कविताई-शंका को दूर करने आयी कुछ टिप्पणियों को टिप्पणी-बक्से में ही छोड़ देना मुझे उन शब्दों की तौहीन करना प्रतीत हुआ। सोचा क्यों न उन्हें पोस्ट का रूप देकर उनकी उम्र लंबी कर दूँ...!

मुझे कविता कहना नहीं आता और न ही मैं कोई विज्ञ या साहित्य-मर्मज्ञ हूँ। मैं एक पाठक हूँ और तमाम किताबें अपने खून और पसीने की कमाई से खरीद कर पढ़ता हूँ- और ये कोई cliche' नहीं हैं...सचमुच के खून और सब-जीरो टेंपरेचर में भी बहाये गये पसीने की बात कर रहा हूँ मैं।...तो इस कमाई से खरीदी गयी पत्रिकाओं और कविता-संकलनों में उकेरी गयी कविताओं को अगर मैं पढ़ता हूँ तो उस पर कुछ कहना अपना अधिकार समझता हूँ और उस "कुछ कहने" के लिये मैं खुद को कोई साहित्य-मर्मज्ञ या आलोचक होना जरुरी नहीं मानता।

यूं तो इस "कविता" और "अ-कविता", छंदमुक्त, मुक्तछंद, आधुनिक कविता पे चली बहस पे पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, किंतु इन सबसे जुड़ी कुछ टिप्पणियाँ मुझे संग्रहणीय लगीं तो उन्हें एक-एक कर कापी-पेस्ट करता हूँ यहाँ:-

डॉ .अनुराग :-
मुझे नहीं मालूम के कविता की परिभाषा क्या है.उसके नाप तौल क्या है.मुझे इतना पता होता है जब लिखा गया पहचाना सा लगे और पढने वाला उससे जुड़ता सा लगे..वही खूबसूरत कविता है.

सुलभ सतरंगी :-
रही बात कविता की तो जिसमे लय है, वो कविता है चाहे वो छंद बद्ध हो या छंद मुक्त...जब तक लय कायम है, संवेदनशील सम्प्रेषण है, कविता सिर्फ कविता होगी. उसे अकविता या गध कहना ठीक नहीं है.

संजय व्यास:-
गौतम जी, एक काव्य-रसिक होने के नाते मैं कविता को लेकर आपकी चिंताओं को समझता हूँ.और बहुत हद तक इधर में आई कविताई 'खेप' पर आपके क्षुब्ध होने को साझा भी करता हूँ.मेरे अपने विचार में कविता का असर बाकी से अलग होता है,इसे कई कई बार पढ़कर भी पहले पाठ का सा आनंद मिलता है,ये हर बार अपने को भिन्न प्रकार से खोलती है और साथ ही इसमें एक आतंरिक लय भी चलती है.चाहे इसे किसी नियत अनुशासन में लिखा गया हो या नहीं.पर मैं इसे सिर्फ बौद्धिक होने के नाते एक विशिष्ट कर्म नहीं मान पाता.मैंने कहीं पढ़ा है कि नेरुदा का मानना था कि सिर्फ बौद्धिक कर्म होने के नाते कविता को कृषि कार्य से श्रेष्ठ नहीं कह सकते.खैर बात थोड़ी बहक रही है,मैं कहना चाह रहा हूँ कि यहाँ असहमति का प्रश्न ही नहीं है कि आधुनिक कविता के नाम पर जो आ रहा है उससे कविता के पाठक को बहुत शिकायत है और उस शिकायत को दर्ज भी होना चाहिए.मैं ग़ज़ल को एक बेहद कीमती विधा मानता हूँ और इसकी मर्यादा हर हाल में बनी रहनी चाहिए, ये आपसे बेहतर कौन कह सकता है.पर इधर हिंदी कविता में कुछ आह्लादकारी प्रयोग हुए हैं जिन्हें आप अनुनाद पर देख ही रहें हैं.उन पर भी आपका मत और विस्तार से अपेक्षित है...

पुखराज:-
भावनाओं को रूप देने का नाम ही कविता है ...ये मेरा ख्याल है...किसी का कुछ भी हो सकता है..

हिमांशु :-
मैं कविता का अतार्किक रूप देखता हूँ हरदम - कविता माने वह जो वितान से अधिक तान पर तने ! कविता माने वह जो गति से अधिक सुगति पर टिके ! कविता माने वह जो अर्थ दे वही, जो हमारे भीतर पैदा हुआ ! रूप के कटघरे में कैसा बँधना, संगठन के अवगुण्ठन में क्यों कर कसना ! कविता भी वही जो खुद के रचान पर अर्थसंयुक्त हो सबको ललचाये-लुभाये, कविता का अर्थ भी वही जो पढ़ते हुए सबके अन्दर वही पैदा करे जो वस्तुतः अर्थ है !

रचना दीक्षित:-
रही बात कविता की तो वही द्रष्टि का सवाल है "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी " ...

कंचन सिंह चौहान:-
मैं भी अक्सर सोचती हूँ कि डायरी के कुछ पन्नो की इबारत लिख कर एण्टर मार दूँ तो शायद कविता बन जाये...

दिनेशराय द्विवेदी :-
मुक्त छंद का अपना आनंद है। बहर में ग़ज़ल या छंद में कविता का आनंद उस सिद्धहस्तता के बाद आता है जो तुलसी और ग़ालिब को हो गई थी। तब कवि सिर्फ सोचता है और कहता है बहर या छंद उस का गुलाम होता है। वर्ना हम हर कविता में बात का गला घोंट रहे होते हैं। फिर भी कभी तो बात ऐसी होती ही है कि मुक्त छंद में कहनी पड़े सीधी सीधी।

...और इसी से संबधित गिरिजेश जी का इ-मेल मिला जिसे मैं यहाँ उद्धृत करने का मोह छोड़ नहीं पा रहा:-

From: eg
To: gautam_rajrishi@yahoo.co.in
Sent: Tue, 5 January, 2010 9:10:39 AM
गौतम जी,
मुझे समझ में नहीं आया कि इस टिप्पणी को कहाँ दूँ, इसलिए मेल लिख रहा हूँ। यह स्थिति ब्लॉगरी की एक सीमा है।
आप की दी हुई वैतागवाणी की लिंक पढ़ने के बाद लिख रहा हूँ। बहुत पहले अज्ञेय ने एक बात कही थी जिस पर आज भी बवाला मचता रहता है - कविता मंच पर पढ़ने वाली बात(चीज?) नहीं है।-कुछ ऐसा ही कहा था। सही शब्द मैं भूल गया हूँ। कविता को मंच न मिलना एक त्रासदी है। यह त्रासदी लोक से कविता को अलग कर देती है। पीड़ादायक यह है कि हमारे हाथ इस स्थिति को रिवर्स करने जैसा कुछ भी नहीं है।
आप कहेंगे कि कविता ने खुद को ऐसा बना लिया। नहीं, मामला इतना सरल नहीं है।
आप कहेंगे कि ग़जल तो लोग सुनते ही हैं। मैं कहूँगा - महफिल महफिल, मंच मंच में फर्क है।
वह एक ईमानदार उद्घोष था - नए जमाने के कवि का। उस कवि का जो शिक्षित है, नागर है, संभ्रांत है। अब गँवार जन, अशिक्षित जन कविता नहीं कहते। उनके पास इसके लिए समय नहीं। "और भी गम हैं..." से 'और' हटा दीजिए। बस गम हैं जिनके अन्धकार कविता रचने लायक नहीं छोड़ते। कविता पढ़े लिखे मध्यमवर्गी, धनी या ठीक ठाक से शहरियों की जिम्मेदारी हो गई है (अपवादों को छोड़ दीजिए)। उनकी जटिलताएँ कविता में आएगीं ही। जटिलताओं के बोझ तले छ्न्द टूटेंगे, शिल्प टूटेंगे। भविष्यकाल में मैं क्यों कह रहा हूँ? ऐसा बहुत पहले हो चुका है।संवेदनाएँ जीवित रहें, सरोकार बने रहें - यही बहुत है। अब कविता क्रांति(विस्तृत अर्थ में समझें) की हथियार नहीं हो सकती। मैं निराश लग रहा होऊँगा लेकिन तथ्य को हमारी आशा निराशा से फर्क नहीं पड़ता। अधिक नहीं लिखूँगा - आप मेरी लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' को तसल्ली से पढ़िए। यह वह कविता है जो तकरीबन 10 साल पहले रची गई थी, ग़ायब हो गई और बहुत उहापोहों के बाद दुबारा ब्लॉग के लिए रची गई। ग़ज़ल, छ्न्द, गीति, यहाँ तक कि लय के अलावा भी एक भावभूमि है जो प्रशंसा नहीं तो स्वीकार तो माँगती ही है। ... गद्य की टूटी फूटी पंक्तियाँ भी कविता हो जाती हैं। कुछ भावनाओं बातों को गद्य में सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता या यूँ कहें कि उनकी आब दिखानी ही जरूरी है, लोग जो मायने लगाएँ। शायद यह कविता के अभी भी प्रासंगिक होने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क भी है और उसकी आशा भी।
सादर अभिवादन, मेरे योद्धा कवि!
कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा सैनिक भी मिलेगा जिससे ऐसी बातें होंगी।
मुझे हिन्दी ब्लॉगरी और योद्धा दोनों पर नाज है।
-गिरिजेश

...इन सबसे परे एक छोटी-मोटी बहस चली अनुनाद पर यहाँ और वैतागवाड़ी पर यहाँ और एक जोरदार बहस चली कृष्ण कल्पित जी की एक अद्‍भुत रचना के बहाने एक जिद्दी धुन पर यहाँ, जिसमें अजय जी, शरद कोकास जी, डा० अनुराग और अपूर्व के विचार इस बहस को एक जरुरी उँचाई प्रदान करते हैं। खासकर अपूर्व के शब्दों को देखने का आग्रह अवश्य करुंगा आप सब से। ...और इन तमाम बहसों की पृष्ठभूमि में उधर किशोर चौधरी साब अपनी शरीके-हयात से परिचय करवाने के बहाने कितना कुछ कह जाते हैं इसी कविता पर यहाँ, जरा देखिये तो।

आखिर में अनाम बंधु को दिल से शुक्रिया उनके इस संग्रहणीय लिंक के लिये और इन दो पंक्तियो के लिये:-
"कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद
ज्यों गुलाब के पुष्प में रूप रंग रस गंध"

बहस का समापन होता है मनु जी के इस कथन से:-

वर्टिकल फ़ार्म में लिखी हुई हर चीज आजकल कविता हो गयी है.... :-)

04 January 2010

त्रासदी पुरानी डायरी के पन्नों की और एक कविताई शंका

मेरी डायरी के पन्ने पीले क्यों नहीं होते...सोचता हूँ मैं अक्सर। कब से लिख रहा हूँ...कब से ही तो। एक पूरा बीता हुआ बचपन सिमटा हुआ है इसमें, एक पूरी जवानी भी जो अपने बचपने से कभी उबर ही नहीं पायी। लेकिन फिर भी ये पन्ने सारे-के-सारे वैसे ही हैं- श्वेत...धवल श्वेत, खिंची हुई भूरी लाइनों में नीली रौशनाई वाले अक्षरों को पंक्‍तिबद्ध बिठाये। हसरत से उन लोगों का लिखा पढ़ता हूँ जो लिखते हैं "एक कविता या कुछ रैंडम थाउट्स एक पुरानी डायरी के पीले पन्नों से"...मैं भी लिखना चाहता हूँ ऐसा ही, लेकिन ये कमबख्त पन्ने पीले पड़ते ही नहीं।...और ये नये साल की शुरुआत में क्या लेकर बैठ गया हूँ मैं। नयी शुरुआत है और मेरा "मैं" है कि इन बीते पन्नों में उलझा हुआ। सामने ये 2010 पहाड़-सा खड़ा है। मन है कि घड़ी की सुइयों को तेज-तेज घूमा कर देख लाने चाहता है आगे- वर्ष के उत्तरार्द्ध को। क्या कुछ समेटे है ये साल अपनी आगोश में लिये आने वाले दिनों, हफ़्तों और महीनों को...क्या कुछ???

सोचता हूँ, कुछ संकल्प ही ले डालूँ पहले की भाँति।...पहले की ही भाँति, जब बचकाने संकल्पों की सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते बेदम होते साल के साथ वो सारे-के-सारे लिये गये संकल्प भी कहीं थके-थके से लुढ़के नजर आते थे। एक पुरानी डायरी के पन्ने पलटता हूँ। जरा देखूँ तो आज से सात साल पहले ठीक आज ही के दिन क्या कहती है ये डायरी मेरी।तारीख- 03 जनवरी 2002 स्थान- उरी, कश्मीर। कितना बड़ा संयोग है ना...जो पन्ना खुलता है एक सात साल पुरानी डायरी का ठीक इसी तारीख को, तो जगह भी यहीं-कहीं आसपास की ही है। लेकिन पन्ना कहीं से पीला नहीं है। क्या लिखा है, जरा पढ़ूँ तो। रेनोल्डस के बाल-पेन की लिखावट। मेरी हस्तलिपी कितनी गंदी है..उफ़्फ़! उजले पन्ने पर खिंची हुई भूरी लाइनों में नीली रौशनाई वाले पंक्तिबद्ध किंतु बेतरतीब शब्दों का जमावड़ा कुछ यूँ है:-
यार डायरी,
सोचता हूँ कि अफगानिस्तान के उन सूखे पहाड़ों पर हुई अभी हालिया अमेरिकन बमों की बारिश के बाद कहीं छुपा हुआ ओसामा क्या सोच रहा होगा। क्या उसे अपने परिजनों की याद आ रही होगी? तुझे क्या लगता है डायरी कि ओसामा को अपनी उन अनगिनत पत्नियों में उसे किसकी याद सबसे ज्यादा आ रही होगी। हुम्म्म...सवाल तो ये भी है कि कमबख्त जिंदा भी है कि नहीं किसी को याद करने के लिये। इसी से जुड़ा एक और आवारा ख्याल सर उठा रहा है इस वक्त कि ये बीस दिन पहले हुये संसद-भवन अटैक का कोई तार क्या ट्रेड-सेंटर वाले प्रकरण से जुड़ा है? इधर हमारा मूव-आर्डर तो आ चुका है इस संसद-भवन अटैक के बैक-ड्राप में।...यहाँ से तनिक और आगे। डेस्टिनी कुछ नया लिखवाना चाहती हो शायद कि हम जा रहे हैं और आगे कहीं। जो ये बीस दिन पहले वाला कांड न हुआ होता संसद-भवन पर तो मैं अभी बेलगाँव में कमांडो-इंस्ट्रक्टर बना बैठा होता। गाड़ियों में लोडिंग संपन्न हो चुकी है। शायद कल मूव हो जाना चाहिये काफ़िले को।...तो इस बंकर की ये आखिरी रात। उलझन में हूँ कि ऐश्वर्या राय के इस कोलाज को उखाड़ कर ले चलूँ या रहने दूँ यहीं इसी बंकर की छत पे चिपके हुये आनेवाले नये बाशिंदे के लिये??? ..और अचानक से ये कुछ अजीब-से ख्याल उमड़ने लगे हैं। कुछ यूँ कि...बँट जाना चाहता हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में। छंद की बंदिशों से परे। आजाद और उन्मुक्त।...और समेट लेना चाहता हूँ इन पंक्तियों में पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ, माँ की पेशानी वाली सिलवटें, बारुद की गंध, रेत की भरी बोरियों वाला ये ठिठुरता बंकर, ऐश्वर्या की आँखें, कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम, ढ़ेर-ढ़ेर सारी छुट्टियाँ और प्रेम का संपूर्ण विस्तार। प्रेम का विस्तार???...हा! हा!! चंद तस्वीरों, ढ़ेर सारे खतों और कुछ टेलिफोन-काल्स में सिमटा हुआ एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार। प्रेम का संपूर्ण विस्तार?? i must be crazy...! खैर, तो डियर डायरी विषय से न भटकते हुये...खुद को चंद बेतरतीब पंक्तियों में बाँट लेने की ख्वाहिश है कि समेट सकूँ मैं खुद में इन पंक्तियों के जरिये...प्रेम का संपूर्ण विस्तार, माँ-पापा की समस्त चिंतायें, बर्फ में लिपटी ये सुलगती वादी, झेलम का मौन रुदन....और तब्दील हो जाना चाहता हूँ एक अमर कविता में कि गुनगुनाया जा सकूँ सृष्टि के अंत तक...।


जाने क्या-क्या लिख रखा है अंट-शंट। उन दिनों बंकर में बैठे-बैठे हम सोल्जरिंग के साथ-साथ खूब फिलोसोफी झाड़ा करते थे। आजकल फिलोसोफी की जगह शायरी ने ले ली है। 


इधर डायरी के इस खुले पन्ने पर लिखे गये इन अनर्गल पंक्तियों को देखकर यूं ही एक मासूम-सा{?} ख्याल आया है कि जो मैं इन पंक्तियों को ऐसे लिखूँ:-

"चाहता हूँ बँट जाना मैं भी
बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में
छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे
लिखे हुये चंद जुमलों में
छंद की बंदिशों से परे
आजाद और उन्मुक्त

कि समेट सकूँ खुद में
पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ,
माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
बारुद की गंध,
रेत भरी बोरियों वाली
इस बंकर की ठिठुरन,
ऐश्वर्या की आँखें,
कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
और
एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...

वगैरह-वगैरह..."


.....तो क्या ये कविता हो जायेगी? एक जेन्युइन डाउट है मित्रों और गुरुजनों।