21 September 2009

कभी मौत पर गुनगुना कर चले...

ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्मे-दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है


मुगलिया सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के इस शेर को ईद के पावन मौके पर सुनाने से रोक नहीं पाता खुद को- विशेष कर अपनी चंद महिला-मित्रों को। फिलहाल चलिये एक ग़ज़ल सुनाता हूँ अपनी। ज़मीन अता की सुख़नवरी के पितामह मीर ने। "दिखाई दिये यूँ कि बेखुद किया, हमें आपसे ही जुदा कर चले" - इस एक ग़ज़ल के लिये शायद अब तक की सबसे महानतम जुगलबंदी हुई है। देखिये ना, अब जिस ग़ज़ल को लिखा हो मीर ने, संगीत पे ढ़ाला हो खय्याम ने और स्वर दिया हो लता जी ने...ऐसी बंदिश पे तो कुछ भी कहना हिमाकत ही होगी। ...और इस ग़ज़ल का ये शेर "परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे / नजर में सभू की खुदा कर चले" मुझे एक जमाने से पसंद रहा है। इसी शेर का मिस्‍रा दिया गया था तरही के लिये आज की ग़ज़ल पे एक बेमिसाल मुशायरे के लिये। तो पेश है मेरी ये ग़ज़ल:-

हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले
कदम-दर-कदम हौसला कर चले

उबरते रहे हादसों से सदा
गिरे, फिर उठे, मुस्कुरा कर चले

लिखा जिंदगी पर फ़साना कभी
कभी मौत पर गुनगुना कर चले

वो आये जो महफ़िल में मेरी, मुझे
नजर में सभी की खुदा कर चले

बनाया, सजाया, सँवारा जिन्हें
वही लोग हमको मिटा कर चले

खड़ा हूँ हमेशा से बन के रदीफ़
वो खुद को मगर काफ़िया कर चले

उन्हें रूठने की है आदत पड़ी
हमारी भी जिद है, मना कर चले

जो कमबख्त होता था अपना कभी
उसी दिल को हम आपका कर चले
{भोपाल से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "सुख़नवर" के जुलाई-अगस्त 10 वाले अंक में प्रकाशित}

...इस ज़मीन से परे लेकिन इसी बहर पे एक ग़ज़ल जो याद आती है वो बशीर बद्र साब की लिखी और चंदन दास की गायी "न जी भर के देखा न कुछ बात की / बड़ी आरजू थी मुलाकात की" तो आप सब ने सुनी ही होगी। अरे हाँ, प्रिंस फिल्म में जब शम्मी कपूर महफ़िल में बैजन्ती माला को देखकर एक खास लटक-झटक के साथ गाते हैं बदन पे सितारे लपेटे हुए..., तो इसी बहर पे गाते हैं।

इधर ब्लौग-जगत अपना फिर से व्यर्थ के विवादों में पड़ा है। विवादों से परे हटकर जरा लता दी की "दिखाई दिये यूं..." को रफ़ी साब की मस्ती में "बदन पे सितारे..." की धुन पे गाईये, या उल्टा! बड़ा मजा आयेगा...!

चलते-चलते, मनु जी का ये बेमिसाल शेर सुन लीजिये इसी मुशायरे से:-

खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले

11 September 2009

मेजर आकाशदीप सिंह- शौर्य का एक और नाम

विगत दो-एक हफ़्ते अजीब-सी मायूसियाँ लिये हुये थे। निष्ठा, लगन और जुनून के बावजूद हासिल हुई विफलता उतावली हो उठी थी नियति, प्रारब्ध, सर्वशक्तिमान के अस्तित्व और खुद अपनी ही क्षमता पर अलग-अलग प्रश्‍न-चिह्न खड़ा करने को। ...और जब इन से उबर कर उठा तो आकाश की शहादत ने एक बार फिर से इन प्रश्‍न-चिह्नों को ला खड़ा कर दिया है।



आकाश- मेजर आकाशदीप सिंह। मुझसे एक साल जुनियर था और उससे मैं कभी मिला नहीं था। हमारी ट्रेनिंग-एकेडमी अलग थी। ...किंतु नौ सितम्बर की वो करमजली सुबह जब इस जीवट योद्धा के धराशायी होने की खबर लेकर आयी तो लगा कि आकाश से रिश्‍ता तो कई जनमों का था...कई जनमों का है। नियंत्रण-रेखा के पास उस पार से आने वाले चंद सरफ़िरे मेहमानों के स्वागत में घात लगाये बैठा आकाश अपने AK-47 पर सधी उँगलियों से दो को मोक्ष दिलवा चुका था। तीसरे की खबर लेने जो जरा वो पत्थरों की आड़ से बाहर आया तो दुश्‍मन की एक मात्र गोली जाने कैसे छाती से चिपकी उसकी बुलेट-प्रूफ जैकेट को चकमा देती कमर के ऊपर से होते हुये उसके हृदय तक जा पहुँची। ...और अपने पीछे छोड़ गया वो अपनी बिलखती सहचरी दिप्‍ती, चार वर्षिया खुशी औए डेढ़ साल के तेजस्वी को। तेजस्वी को तो कुछ भान नहीं कि उसका पापा कहाँ है, लेकिन खुशी ताबूत में लाये गये पापा के पार्थिव शरीर को देखते ही रो पड़ी थी।


आपसब भारतीय सेना के इस जांबाज आफिसर की दिवंगत आत्मा को सलाम दीजिये ...तब तक मैं अपने कुछेक प्रश्‍न-चिह्नों से निबट कर जल्द ही मिलता हूँ अपनी अगली पोस्ट में!!!