एक गज़ल पेश है। कई दिनों से उलझी-पुलझी पड़ी सी थी कोने में। "मुफ़लिस" जी की नजर पड़ी तो साफ-सुथरी हो कहने लायक बन पड़ी है।
बहर है--> बहरे रमल मुसमन महजूफ़
वजन है--> २१२२-२१२२-२१२२-२१२ {३ X फ़ायलातुन + १ X फ़ायलुन}
कितने हाथों में यहाँ हैं कितने पत्थर, गौर कर
फिर भी उठ-उठ आ गये हैं कितने ही सर, गौर कर
आसमां तक जा चढ़ा संसेक्स अपने देश का
चीथड़े हैं फिर भी बचपन के बदन पर, गौर कर
जो भी पढ़ ले आँखें मेरी, मुझको दीवाना कहे
तू भी तो इनको कभी फुर्सत से पढ़ कर गौर कर
शहर में बढती इमारत पर इमारत देख कर
मेरी बस्ती का वो बूढा कांपता 'बर', गौर कर
यार जब-तब घूम आते हैं विदेशों में, मगर
अपनी तो बस है कवायद घर से दफ्तर, गौर कर
उनके ही हाथों से देखो बिक रहा हिन्दोस्तां
है जिन्होंने डाल रक्खा तन पे खद्दर, गौर कर
इक तेरे 'ना' कहने से अब कुछ बदल सकता नहीं
मैं सिपाही-सा डटा हूँ मोरचे पर, गौर कर
....आभारी हूँ आप सब के सतत स्नेह और शुभकामनाओं के लिये। त्रुटियों से अवगत करा कर अनुग्रहित करें।
(जोधपुर से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "शेष" के जुलाई-सितंबर 09 अंक में प्रकाशित)
25 February 2009
10 February 2009
हरी है ये जमीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
बशीर बद्र साब का एक शेर जो मेरे पसंदीदा शेरों में से रहा है:-
यही अंदाज़ है मेरा समन्दर फत्ह करने का
मेरी क़ाग़ज की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं
और बद्र साब के इसी गज़ल का एक मिस्रा है "मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं"। इस मिस्रे पे एक तरही मुशायरे का आयोजन करवाया था गुरू जी ने। तो पेश है बद्र साब की इस जमीन पर मेरा प्रयास।
बहर है-->बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है-->१२२२-१२२२-१२२२-१२२२ {4 X मुफ़ाईलुन}
हरी है ये जमीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं
धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख बदलने की
परिंदे जो यहाँ परवाज़ पर तूफ़ान ढ़ोते हैं
अज़ब से कुछ भुलैंयों के बने हैं रास्ते उनके
पलट के फिर कहाँ आये, जो इन गलियों में खोते हैं
जगी हैं रात भर पलकें, ठहर ऐ सुब्ह थोड़ा तो
मेरी इन जागी पलकों में अभी कुछ ख्वाब सोते हैं
मिली धरती को सूरज की तपिश से ये खरोंचे जो
सितारे रात में आकर उन्हें शबनम से धोते हैं
लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है
वो कोई और होंगे अपनी किस्मत पे जो रोते हैं
(भोपाल से निकलने वाली द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" के जनवरी-फरवरी १० अंक में प्रकाशित)
यही अंदाज़ है मेरा समन्दर फत्ह करने का
मेरी क़ाग़ज की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं
और बद्र साब के इसी गज़ल का एक मिस्रा है "मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं"। इस मिस्रे पे एक तरही मुशायरे का आयोजन करवाया था गुरू जी ने। तो पेश है बद्र साब की इस जमीन पर मेरा प्रयास।
बहर है-->बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है-->१२२२-१२२२-१२२२-१२२२ {4 X मुफ़ाईलुन}
हरी है ये जमीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं
धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख बदलने की
परिंदे जो यहाँ परवाज़ पर तूफ़ान ढ़ोते हैं
अज़ब से कुछ भुलैंयों के बने हैं रास्ते उनके
पलट के फिर कहाँ आये, जो इन गलियों में खोते हैं
जगी हैं रात भर पलकें, ठहर ऐ सुब्ह थोड़ा तो
मेरी इन जागी पलकों में अभी कुछ ख्वाब सोते हैं
मिली धरती को सूरज की तपिश से ये खरोंचे जो
सितारे रात में आकर उन्हें शबनम से धोते हैं
लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है
वो कोई और होंगे अपनी किस्मत पे जो रोते हैं
(भोपाल से निकलने वाली द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" के जनवरी-फरवरी १० अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
तरही मुशायरा,
त्रैमासिक सुखनवर,
बशीर बद्र,
बहरे हज़ज
Subscribe to:
Posts (Atom)