09 November 2009
चंद सौलिड ख्वाहिशों का मरहमी लिक्विडिफिकेशन...
श्रीनगर से पटना तक की दूरी- बीच में पीरपंजाल रेंज को लांघना शामिल- महज पाँच घंटे में पूरी होती है...लेकिन पटना से सहरसा तक की पाँच घंटे वाली दूरी खत्म होने का नाम नहीं लेती, जबकि नौवां घंटा समापन पर है। ट्रेन की रफ़्तार मोटिवेट कर रही है मुझे नीचे उतर कर इसके संग पैदल चलने को। इस ट्रेन के इकलौते एसी चेयर-कार में रिजर्वेशन नहीं है मेरा...लेकिन कुंदन प्रसाद जी जानते हैं मुझे, बाई नेम...कुंदन इसी इकलौते एसी कोच के अप्वाइंटेड टीटी हैं और इस बात को लेकर खासे परेशान हैं, ये मुझे बाद में पता चलता है...मेरा नाम मेरे मुँह से सुनकर वो चौंक जाते हैं और एक साधुनुमा बाबा को उठाकर मुझे विंडो वाली सीट देते हैं...लेफ्ट विंडो वाली सीट ताकि मेरा प्लास्टर चढ़ा हुआ बाँया हाथ सेफ रहे।
एसी अपने फुल-स्विंग पर है तो टीस उठने लगती है फिर से बाँये हाथ की हड्डी में...पेन-किलर की ख्वाहिश...दरवाजा खोल कर बाहर आता हूँ टायलेट के पास...विल्स वालों ने किंग-साइज में कितना इफैक्टिव पेन-किलर बनाया है ये खुद विल्स वालों को भी नहीं मालूम होगा...कुंदन प्रसाद जी मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं...मैं भांप जाता हूँ उनकी मंशा और एक किंग-साइज पेन-किलर उन्हें भी आफर करता हूँ...सकुचाया-सा बढ़ता है उनका हाथ और गुफ़्तगु का सिलसिला शुरू होता है...मेरे इस वाले इन्काउंटर की कहानी सुनना चाहते हैं जनाब..."सच आपसे हजम नहीं होगा और झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा"- मेरे इस भारी-भरकम डायलाग को सुनकर वो उल्टा और इनकरेज्ड होते हैं कहानी सुनने को...इसी दौरान उनसे पता चलता है कि यहाँ के चंदेक लोकल न्यूज-पेपरों ने हीरो बना दिया है मुझे और खूब नमक-मिर्च लगा कर छापी है इस कहानी को...कहानी के बाद कुछ सुने-सुनाये जुमले फिर से सुनने को मिलते हैं...आपलोग जागते हैं तो हम सोते हैं वगैरह-वगैरह...मुझे वोमिंटिंग-सा फील होता है इन जुमलों को सुनकर...मेरा दर्द बढ़ने लगता और मोबाइल बज उठता है...थैंक गाड...कुंदन जी से राहत मिली...
रात के {या सुबह के?} ढ़ाई बज रहे हैं जब ट्रेन सहरसा स्टेशन पर पहुँचती है...माँ के आँसु तब भी जगे हुये हैं...ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?...पापा देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं...संजीता कनफ्युज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ...और वो छुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
चलते-चलते एक त्रिवेणी बकायदा बहरो-वजन में:-
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
डिसक्लेमर या डिसक्लेमर जैसा ही कुछ :-
ये पोस्ट, इस पोस्ट का शिर्षक, पोस्ट की बातें और इस कथित त्रिवेणी का तड़का यदि आपसब को डा० अनुराग या फिर उनके ब्लौग दिल की बात का भान दिलाता हो तो मुझे जरा भी क्षोभ नहीं। दोष डाक्टर साब का है पूर्णतया। मोबाइल स्विच-आफ करने को सामाजिक अपराध मानने वाला ये गैर-पेशेवर इंसान आदतन संक्रामक है। ग़ज़ब का संक्रामक। मैं और मेरी तुच्छ लेखनी उस एक मुलाकात के बाद से अनुरागमय हो चुके हैं।
हलफ़नामा-
एक ब्लौगर की डायरी से...
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
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डाक्टर साहब ले डूबे एक भले आदमी को। त्रिवेणी नहला दी। किंग साइज पेन किलर को हम पहले तो समझे कि ई कौन सा पेन किलर होता है भैये! फ़िर पता चला कि सुलगने वाला पेन किलर है।
ReplyDeleteकानपुर बीच में पड़ता है आपके आने-जाने के रास्ते पर। लौटते में अपना प्रोगाम बताइयेगा ताकि दर्शनै कर लेंगे।
बकिया तो चकाचकै है। सुबह की चाय के साथ पहली पोस्ट बांच रहे हैं। चाय मजेदार लगने लगी।
मैं उसको छोड़ न पाया बुरी लतों की तरह
ReplyDeleteवह मेरे साथ है बचपन की आदतों की तरह
सुबह की चाय के साथ, ये पेन किलर वाला वर्णन बड़ा मजेदार लगा और साथ ही समस्तीपुर से सहरसा तक के किये गये "सफर" को याद दिलाता गया। बहुत-बहुत बधाई।
शौर्य गाथाओं को सुनने की ललक मनुष्य के अस्तित्व रक्षा के बोध से जुडी हुयी है -सब कोई अपने वीर नायक से खुद का तादात्म्य चाहते हैं -इस ब्लॉग जगत में भी मुझ सहित कितने ही लोग आपकी शौर्य गाथा को कुरेद कुरेद कर पूंछ लेना चाहते हैं और इसी बहाने घर बैठे ही एक अनिर्वचनीय तुष्टि पा जाना चाहते हैं !
ReplyDeleteमगर मैं सायास इस सहज वृत्ति पर काबू कर पाया हूँ -मैं आपको एक ब्लॉगर के रूप में देखना चाहता हूँ -आपके व्यक्तित्व के इस पहलू से ही तादात्म्य बनाए रखना चाहता हूँ -एक यह गौतम राजरिशी -ब्लॉगर !
आप घर (ब्लागजगत ) आ गए सकुशल क्या बात है ? सबकी लाज और इच्छा रख ली -जननी (दोनों ),बाल बच्चों और ब्लागरों की भी !
अब मौज कीजिये !
@...मुझे वोमिंटिंग-सा फील होता है इन जुमलों को सुनकर...मेरा दर्द बढ़ने लगता और मोबाइल बज उठता है..
ReplyDeleteये बीच में ... या .. कर के लिखने को मैं ब्लॉगरी की एक उपलब्धि मानता हूँ। अब देखिए न, उपर की पंक्तियाँ नया सा कुछ कह दे रही हैं। मुझे इंतजार है उस दिन का जब ... की जगह कोई ऑडियो, कोई वीडियो क्लिप या कोई ग्रॉफिक्स या कोई प्रोफाइल या कुछ अनजाना आ धमकेगा और एक नई भाषा सामने आएगी - ब्लॉगरी की भाषा। पढ़ते पढ़ते उन जगहों पर माउस रखो तो नए नए अर्थ उद्घाटित होते जाँय। सोच रहा हूँ क्या अभी ऐसा किया जा सकता है? तकनीक, सपोर्ट ?
@ माँ के आँसु तब भी जगे हुये हैं...ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?...पापा देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं...संजीता कनफ्युज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ...और वो छुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
यह गद्य एक उपलब्धि है। क्या कभी मैं भी ऐसा . . !... हाय।
...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...
ReplyDeleteअरे वाह! मज़ा आ गया!
एक शब्द में आप, भावनाएँ और डॉक्टर साहेब कहे जायेंगे:
ReplyDeleteसटीक!!!!
बस, और कुछ नहीं!!
एक कठिन क्षण्ा से साक्षात्कार करके मां की गोद में लौटना हमेशा सुखद होता है । मां हर घाव का मरहम जातनी है । मां को पता है कि पीर कहां है और टीस कहां है । पुरुष अपने जीवन में स्त्रियों पर कितना निर्भर है । उसे मां का स्नेह चाहिये होता है, पत्नी का प्रेम चाहिये होता है और ब्िटिया की मुस्कान चाहिये होती है । इन के बिना वो कुछ भी नहीं कर सकता । इस समय तुम इसी त्रिवेणी के तट पर हो, जहां मां के अगाध नेह की गंगा है, पत्नी के उद्दात प्रेम की यमुना है और बिटिया की निश्छल मुस्कान की सरस्वती है । ये त्रिवेणी सारे घावों को पल भर में ही भर देगी । सारे घावों को मन के भी और तन के भी । तीन स्त्रियां जो पुरुष को पुरुष बनाती हैं । मां, पत्नी और बेटी । मां जो हर थकन को दूर करने वाली छांव होती है, पत्नी जो हर अधूरेपन को पूर्ण करने वाली पूरक होती है और बेटी जो जीवन के प्रति गंभीर होना सिखाती है । तुम्हारे लिये सबसे अच्छा है कि तुम युद्ध के मैदान से सीधे ही इस त्रिवेणी में स्नान करने पहुंचे हो । वहां जहां मां है, पत्नी है और बेटी है । मां जी से मेरी अब तक तो बात नहीं हुई है लेकिन मैं जानता हूं कि मां तो सारी दुनिया की एक जैसी ही होती हैं । संजीता से मेरी बात हुई है तो ये कह सकता हूं कि तुम बहुत ही किस्मत वाले हो जो तुमको इतने गंभीर और दृढ़ जीवन साथी का साथ मिला है ।( सच बताओ बहू ने तुम जैसे को क्या सोच कर पसंद किया ... हा हा हा ) । और बिटिया को चित्रों में देखा है उसकी मुस्कान तो वैसे भी जादू जगाने वाली है । इस बार की छ़ट्टियों में उसकी मुस्कान पर एक नज़्म लिखना है तुमको । सिगरेट कम पिया करो, अब तुम बाकायदा पिता हो, बिटिया के सामने कभी सिगरेट मत पीना ।
ReplyDeleteजहां तक प्लास्टिक की डिस्पोजेबल देशभक्ति पर उल्टी आने की बात है तो वो तो स्वभाविक सी बात है । पहले स्पष्ट कर दूं कि ये प्लास्टिक की डिस्पोजेबल देश भक्ति का क्या अर्थ है । ये देश भक्ति जो हर साल दो बार आती है । पन्द्रह अगस्त को और छब्बीस जनवरी को । उस दिन अचानक पूरा देश, देश भक्त हो जाता है । और प्लास्टिक का दो रुपये का तिरंगा आजकल सड़कों पर खूब मिल जाता है देशभक्त बनने के लिये । चौदह अगस्त को खरीदो । पन्द्रह को गाड़ी पर लगाओ । सोलह की सुबह निकाल कर फैंक दो । क्योंकि देशभक्त होने का दिन तो बीत गया अब अगली तारीख तो छब्बीस जनवरी है । सो हमारी ये प्लास्टिक की देशभक्ति सोलह अगस्त और सत्ताईस जनवरी को नालियों की शोभा बढ़ाती है । धोया, लगाया और हो गया ।
सचमुच हमारे देश के निर्माताओं ने कितनी अच्छी सुविधा दी है हमें । केवल दो दिन की देशभक्ति करो । सोचो जरा यदि हमें साल भर ही देश भक्ति करनी पड़ती तो कितना गजब हो जाता ।
हम सारे लोग जिनको पता भी नहीं है कि ऋषिकेश रमानी, संदीप उन्नीकृष्णन किन लोगों के नाम है । क्योंकि जिस समय ये शहीद हो रहे थे हम उस समय राखी सावंत का स्वयंवर देख रहे थे । हम सारे लोग सेना के लोगों के मिलने पर ऐसा जाहिर करते हैं कि उफ ।
खैर ये तो सारी बाते हैं बातों का क्या । अब तुम त्रिवेणी के तट पर हो खूब स्नान करो और तन मन के सारे घावों को भरो । क्योंकि यहां से तुमको शक्ति संचय करके पुन: लौटना है । यूं ही कभी लिखा एक मतला तुम्हारे लिये
आग की बस इक लपट हो, एक चिंगारी तो हो
युद्ध जीवन का है लड़ना, थोड़ी तैयारी तो हो
आप घर आ गये हैं - सुकून है ।
ReplyDeleteबहता हुआ-सा गद्य । ’...” विराम नहीं, शायद अर्थान्विति के वाहक हैं ।
गिरिजेश भईया ऐसा लिखने की ख्वाहिश रखते हैं । वे अकेले नहीं हैं ।
संक्रमण ही है तो कहाँ-कहाँ न फैले ?
कुछ दर्द कभी नहीं मिटते। पर कुछ लमहे होते हैं जब कोई दर्द टिकता नहीं।
ReplyDeleteघर पहुँचने की बधाई!
आह... इसे एक संक्रमित आलेख न कहा जाये . सोचता हूँ ऐसी कौनसी विधा होगी जिसमे आप न लिख पाएं.
ReplyDeleteपंकज सुबीर जी की टिप्पणी पढने के बाद भाव और शब्द खो गए हैं... और कहने को रह ही क्या जाता है...सिवा इसके की माँ जी को प्रणाम, बहु को आर्शीवाद और तनया को ढेर सारा प्यार...और तुमको एक प्यारी सी चपत...सिगरेट पीना स्वास्थ्य के हानिकारक जो है...पियो लेकिन इसकी आदत मत डालो...
ReplyDeleteएक कसक है इस कमबख्त डाक्टर से कब मुलाकात होगी...ये संक्रमण का रोग हमें कब लगेगा...??? इंतज़ार है...त्रिवेणी लिखनी जो सीखनी है उस फ़रिश्ते से...
खुश रहो हमेशा...
नीरज
सच कहा मेजर साब मां के आंसू हमेशा जागते रहते हैं,ज़रा सी देर होती है फ़ोन घनघना देती है और चाहे जब पहुंचो उनकी आंखे इंतज़ार करती मिलती है।हां एक बात है ये पेनकिलर का भर बस मज़ा नही ले पा रहे हैं,बाकि डा अनुराग का और आपका संगम होगा तो गुप्त सरस्वती कंहा अलग रहेगी,ऐसे मे तो त्रिवेणी बह निकलेगी ही ना।
ReplyDeleteगद्य बहुत शानदार है और जैसा आपने कहा है,कहीं कहीं अनुरागमय हो गया है.पर ये सायास है जिसके पीछे आपका उद्देश्य बहुत सारी अर्थ-छायाएं पाठक के लिए छोड़ना हो सकता है.
ReplyDelete@आप जागते हैं तो हम सोते हैं...
हम बहुत सारी इकहरी व्याख्याओं का बोझ अपने ऊपर लादे हैं. पर्याप्त है आपका संकेत.
एक बेहतरीन पाठकीय अनुभव.
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
ReplyDeleteसब कुछ तो कह दिया आपने
बी एस पाबला
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
ReplyDeleteचाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
waah waah
meet
गौतम साब
ReplyDeleteक्या कहूं.....दिल जीत लिया आपने. सहरसा पहुँचने पर आपको जो ख़ुशी हुयी होगी वो मैं समझ सकता हूँ......लेकिन माँ-बाप- और......मसहरी पर पड़े तकिये से झांकती उन दो आखों को अब तक महसूस कर रहा हूँ......सब कुछ जी लिया होगा अपने उन दो पलों में.......क्या कहूं.....पोस्ट पढ़ के भावुक हो गया हूँ....घर वापसी पर मुबारक बाद ......अपना कोंटक्ट न. दीजिये
...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
ReplyDeleteparivaar ka mahtav aap logon se jyaada behtar kaun samjh sakta hai ,yakeenan aap ke saare dard rafuchakkar ho jayenge ,kyonki ab aap aise dawaakhaane me hain ,jahaan dard aane se pahley bhi 10 bar sochega ,ama miyaan kahaan jaa rahe ho teenon mil ke tumhaara faaluda bana dengi ,aur haan pankaj ji ki baat ko najarandaaj hargij n karen ,wo wills baali baat ,ghar me polution badhega aur sabse jyaada aapki bitiya ko nuksaan karega ,isliye ......
आप डिस्क्लेमर नहीं लिखते फिर भी हम समझ जाते.. फौजी त्रिवेणी लिखने लगे तो समझ लो कुछ ना कुछ तो हुआ ही है.. :)
ReplyDeleteshrinagar se patna mahaj 5 ghante mein?? majak to nahi kar rahe? waise patna se saharsa to time lagna hi tha!!!
ReplyDeleteविल्स वालों ने किंग-साइज में कितना इफैक्टिव पेन-किलर बनाया है ये खुद विल्स वालों को भी नहीं मालूम होगा... ye pain killer bahut buri cheej hoti hai.. pain ke sath jeene ka maja hi kuch aur hai...
"सच आपसे हजम नहीं होगा और झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा" ... इसी दौरान उनसे पता चलता है कि यहाँ के चंदेक लोकल न्यूज-पेपरों ने हीरो बना दिया है मुझे और खूब नमक-मिर्च लगा कर छापी है इस कहानी को...कहानी के बाद कुछ सुने-सुनाये जुमले फिर से सुनने को मिलते हैं...आपलोग जागते हैं तो हम सोते हैं वगैरह-वगैरह.. hmm sach hi to hai..
ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?...
वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!!
aap hi ki bhasha mein... uffff ye feelings bhi naa... jaan hi nikal degi!!!
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
shandaar....
जिस फोन ने वोमिटिंग से बचाया वो फोन अगर मेरा था तो मुझे special thanksक्यों नही मिला....!!! अगर और किसी का था, तो उसे को क्यों नही मिला...!
ReplyDeleteअभी बस झाँकने आई थी इधर..! फुर्सत मिलते ही फिर आऊँगी...! लोगों की नज़र लग गई, आजकल ठीक से बतिया भी नही पाती मैं..!:)
बहुत ही भावनात्मक पोस्ट. बस महसूस कर पा रहा हूं. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
अनुराग जी ,
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई घर वापस पहुँचने की !
माँ और बाबूजी को मेरा प्रणाम कहियेगा | भाभी जी को भी प्रणाम और बिटिया को बहुत बहुत आशीष और प्यार |
आपके लेखन को नमन ......अपने अन्दर आने वाले हर एक भावः को जिस तरह आप हम तक पहुँचाते ...एसा लगता है हमने खुद जिया है वह लम्हा |
आपको और आपके पूरे परिवार को बहुत बहुत शुभकामनाएं !
गौतम जी .......... आपका सफ़र ......... ट्रेन का भी और जीवन का भी बहुत सी यादें छोड़ गया आपके जेहन में ....... उन यादों से निकली पोस्ट और भी कमाल की है ....... माँ और बच्चों से मिलन से ज्यादा ख्प्प्ब्सूरत लम्हा तो हो ही नहीं सकता .......आपकी त्रिवेणी ने रंग बिखेर दिया है .........
ReplyDeleteप्रिय गौतम जी,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी गुरूवर के तरही मुशायरे में पढ़कर अभीभूत तो हुआ लेकिन इस पेट की खातिर ना जाने कितने फेरे करता रहा इसिलिये संपर्क नही कर पाया।
आपको अब स्वस्थ्य लौटा देखकर बड़ी खुशी हो रही है, यह दौर महफिले के चलते रहें....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
काश यह संक्रामक रोग मुझे भी लग जाये .....कोशिश करुँगी फिर कभी .....
ReplyDeleteये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
इक तेरी मुस्कराहट
भुला देती है उसे तमाम ज़ख्म
आ तुझे इक नाम दे दूँ ....
" पेन किलर"
डाक्टर साब की छाप दिख रही है... त्रिवेणी अपने पल्ले नहीं पड़ती... बस सब वाह -वाह करते है तो न समझे हुए चुटकुलों में बेवकूफ की तरह वाह -वाह मिला देता हूँ...
ReplyDeleteपापा देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं...संजीता कनफ्युज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ...
वल्लाह ! हम खुश हुए... सफल प्रेम देखकर... कहिये क्या नज़र करूँ ?
रिश्तों की खुशबू ने हजारों मील दूर खींच लिया है और वो दिलकश मुस्कराहट तो कई दिन तक साथ रहने वाली है... :-)
ReplyDeleteचाँद और रात में भीगा दर्द! आहा!
चाँद , रात और आसमान
ReplyDeleteएक त्रिवेणी वहां भी है ..
एक त्रिवेणी यहाँ भी चाहिए ...
गुलज़ार और अनुराग जी की मिली भगत है ये जो ये संक्रमण फैलता जा रहा है ...
दर्द और मुस्कराहट का संगम कर ही दिया आपने
अपने घर पहुंचने के लिए भले ही लौट के बुद्धू जैसी कहावतें कही गयी हों, फिरभी उस सुख की कोई तुलना ही नहीं है।
ReplyDelete------------------
और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।
दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है? ये एक और लाइन मिली जो सटीक वर्णन करती है 'माँ' का ! और ये लाइन आज की पोस्ट में सबसे ज्यादा महसूस कर पाया मैं... शायद जो बातें इंसान के करीब हो वो सबसे ज्यादा महसूस कर पाता है.
ReplyDeleteपरबतो से आज मै टकरा गया .अभी अभी एक भाई अपने मोबाइल पे ये रिंग टोन सुना कर गये है ...शब्बीर कुमार के तगडे वाले फेन थे शायद ...या फिर सनी पा ..जी के ...बड़ी मुश्किल से उस गाने को गाने से रोक पा रहा हूं....खास तौर से ये लाइन जो शबीर कुमार खींच के गाते है ....."परबतो से "
ReplyDeleteदुनिया के बहुतेरे ओर भी पेन किलर है जो बड़े कामयाब है ...मसलन . क्लासिक ओर गोल्ड फ्लेक ...या .........इधर जब अपने हेल्थ मिनिस्टर साहब ने कानून बनाया के .... सार्वजनिक जगहों पे ये पेन किलर नहीं ले सकते .तो यार लोग बड़े मायूस हुए ..... खैर तुम्हारा प्लास्टर भी सेक्सी वाला है .कहने वाला था तुम्हारा डॉ भी स्टाइलिश लगता है ....वैसे अपुन ने बड़ी कोशिश की थी फ्युमिंग वगैरह कराके के कोई इन्फेक्शन ट्रांसफर न हो...यकीन न हो तो उन खिड़कियों से पूछ लो ....जो उस रात इतनी ठण्ड में भी खोली थी ....
she recognised me, ye! ye!!....सारी असल बात तो कम्बखत बस इस फ़साने की है .......ये मुस्कान आबाद रहे ....
परबतो से ........
डॉक्टर साहब की संक्रामकता swine फ्लू से भी खतरनाक है, काश हमें भी ये फ्लू हो जाता...
ReplyDeleteऔर आपकी जिन्दादिली व जज्बा काबिल-e-तारीफ है...
"ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है..........."
ReplyDeleteआपको यहाँ तक पढते पढ्ते जो एहसास हो रहे थे वह तो नसो मे दौडती खुन भी अपनी धड्कन नही सम्भाल पा रही थी ...........जैसे ही इन पंक्तियो को पढा वह मेरे जिसमे के हर एक जीवित अंशो को थमका सा गया है सिर्फ ऐसा ही लग रहा है ये लम्हे भी ना बहुत ही जलिम चिज होती है जहाँ रुकनी चाहिये वहा रुकती ही नही है ................आंखो के धार भी रुकने से मना कर रहे है !!!!!!!!!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteदर्द-निवारक औषधि ने हमारा सामान्य ज्ञान थोढ़ा और बढ़ा दिया...वैसे मेरे कुछ मित्र तो दैहिक, दैविक और भौतिक इन त्रितापों से मुक्त होने के लिये बोतलवासिनी देवी की शरण लेते हैं और उनका पक्का भरोसा है-तुम बिन और न दूजा आस करूं जिसकी........शेष सब गुरू जी पहले ही कह चुके हैं...
ReplyDeleteगौतम जी आपकी पोस्ट पढकर भावों की कई घाटियों से गुजरा। शब्दों की सुन्दरता की तो बात ही कुछ और है। कमाल है जी आपकी पेनकिलर। अगर थोडा सर्तक ना होते तो शायद उसका नाम डायरी में नोट कर लेते हम।
ReplyDeleteछुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी, याहू....
क्या कहूँ जी सब कुछ आपने कह दिया। सच एक अलग पल होता है जब आप कहते" वो मुझे पहचान गयी",जब हमारी बेटी छोटी थी और नानी के जाती काफी दिनों के लिए, तो वहाँ उससे मिलता था तो यही हाल मेरा होता था। और त्रिवेणी का रंग बहुत पसंद आया।
मेजर साहब आप घर पहुच गये, बहुत अच्छा लगा, मां की गोद मे सारे दुख भुल जाओ गे, ओर जल्द ही ठीक भी हो जाओगे...... मां जो है देखभाल करने वाली
ReplyDeleteगौतम जी,
ReplyDeleteपोस्ट पढी ...फ़िर आखें बंद की ....और दोबारा से सोचा सब ..बंद आखों में जाने कितने पल जी गया ॥ आपने तो साक्षात जिया ....अब घर की और बातों का इंतजार रहेगा ...
हाय यह संक्रामक बीमारी इतनी बड़ी-बड़ी देहरियों को पार कर हम छोटे लोगों की बस्ती मे कब पहुँचेगी..अब अनुरागमय होने की रेसिपी आप से ही पूछनी पड़ेगी..और यह दिलकश यात्रा के शब्दों से फ़्लैश कर स्क्रीन पर डेवलप किये गये नेगटिव्स का कहर ढ़ा रहे हैं चारो ओर..अनुराग साहब की टाटा सुमो और आपकी चेयरकार..सितम् हो रहा है यह तो खांटी सितम...
ReplyDelete..और हम कुऎं के मेढकों को वाह-वाह की टरटराहट के अलावा कोई ऑ्प्शन भी नही है..जंक्शन के चाय वेंडर्स की तरह...
..वाह-वाह !!!!
post abhi abhi padhaa ..... abhi tippaniyan padhni baaki hai... tippani kal karunga .... magar soch rahaa hun tippani kya kar paunga ..???? :) :) :)
ReplyDeletearsh
गौतम जी आज कै दिन के बाद आपके ब्लोग पर आप और एक शान्दार पोस्ट पढ्ने को मिली
ReplyDeleteशुक्रिया :)
वीनस केशरी
क्या बात है मेजर साहब। अच्छे अच्छों को काम्प्लेक्स दे रहे हो तुम तो। इतना बढ़िया लिख रहे हो....ये पोस्ट कई पढ़ी जा सकती है। तनया को मेरा एक बड़ा सा हग देना।
ReplyDeleteकई बार*
ReplyDeleteऔर वो मुझे पहचान गयी ..सब बाते जैसे यही आ कर रुक गयी ...त्रिवेणी बहुत शानदार लिखी है ...यूँ ही मुस्कारते रहे तनया की मुस्कराहटों के साथ ...
ReplyDeleteआप का हर शब्द पढ़ते हुए उसकी कल्पना करना इतना आसान था जैसे की आंखों के सामने फ़िल्म चल रही हो..माँ के बारे में जो लिखा वो बिल्कुल सच है और अन्तिम पंक्तियाँ चेहरे पर मुस्कान बिखेर गई ..आप इन दिनों का आनंद लीजिये..हाथ अब जल्दी ठीक हो जाएगा ..
ReplyDeleteEk kathin paristhi se takra kar .... loutna aur apne parivaar walon ke chehre ke bhaav ko likhna ...
ReplyDeleteshe recognised me, ye! ye .......... ye padh kar muskara uthi
triveni bhi bahut achchhi lagi
apna khyaal rakhe
मेजर साब...
ReplyDeleteआप जिस अंदाज में घर पहुंचे बड़ा अच्छा लगा पढ़ कर....
और वो छुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ.. सोच सोच कर ख़ुशी हो रही है....
कल पढ़ी थी पर कमेन्ट नहीं दिया था...कारण..
वो लास्ट में त्रिवेणी पढ़ कर लाडला कुछ ज्यादा ही याद आ गया....और कमेन्ट कल पे ताल कर हम उसे फोन करने ''ऊपर'' चले गए...
अब ऊपर जाकर आदमी कब आसानी से लौटता है....
."सच आपसे हजम नहीं होगा और झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा"- मेरे इस भारी-भरकम डायलोग को ...
हहहः.....
आपका कौन सा डायलोग भारी भरकम नहीं होता जी.....?
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर......
क्या बात है....!!!!!!!!!!!!!!!
ख्वाहिशें पिघला के कर.....
OOOOOOOOOOOOFFFFFFFFFFFFFF
triveni...
ReplyDeletebaakaaydaa bahro wazn mein....
ha ha ha ha ha ha ha ha
kyaa baat likh maare ho hujoor.....?
1. New look of Blog - good!
ReplyDelete2. Article - very good!
3. Triveni - very very good! (umm ... marham-sa, ya marham si?)
4. Sounds like Dr Anurag? Yes. You think he's so wonderful that he's contagious? Undoubtedly.
Aap apni baat kar rahe ho? Unka blog padh padh kar main khud prose likhne lagi hoon. Farq itna ke aapne post kar diya aur maine us baarey mein socha hi nahi ! Ab shayad main bhi peechhe nahin rahoongi !
Personal problems se masroof thi, bade dinon baad aana hua. Achcha lag raha hai aapka blog padh kar.
God bless
RC
fir se bagair kuchh tippani kiye laut rahaa hun kuchh likh nahi paarahaa bhaee sahib.... samajh nahi paa rahaa... kya kahun... ji chahta hai maa ke god me chhup jaun aur khub royun... nanhi jaan ko mera bahut pyar.... aur haan wo taanke aur us goli ka kya hua sahib........
ReplyDeletearsh
Ghar pahunchne tak ke safar ka vivran padha.
ReplyDeletehaan likhne ke style mein Anuraag ji ka asar bahut hadd tak dikhayee de raha hai.
-Vacation ka yah samay khoob achchha gujre.Shubhkamnayen hai.
घर वही होता है जहां माँ हो,
ReplyDeleteपिताजी हों, कोइ अपना हो
और कोइ तनया हो :)
मुस्कुराती हुई .......
आप ने बहु बढिया लिखा मेजर साहब
...स्वास्थ्य व खुशहाली
सदा आपके संग रहे
यही दुआ है मेरी
स स्नेह,
- लावण्या
'.ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?'...अब ये इस जनम में तो नहीं जान पाएंगे आप :)..यहाँ हमें थोडा सा edge मिल जाता है.परिवारजनो की नेह की बारिश में भीग वक़्त तो थम ही गया होगा...ऐसे ही थमा रहें...यही कामना है
ReplyDeleteांगर माँ के पास आँसू न होते तो शायद ये रिश्ता भी बाकी रिश्तों की तरह आज बदल गया होता। इन आँसूयों के दर्पन से ही तो जिन्दगी दिखती है। और तनया के साथ वक्त ठहर गया तो उसे ससुराल कैसे भेजेंगे ? आपकी हर पोस्ट आँख तो नम कर ही देती है। वैसे आपकी और डा़ अनुराग की जोडी बहुत फिट बैठेगी। यूँ ही हंसते मुस्कुराते रहो। बहुत बहुत आशीर्वाद्
ReplyDeleteek achhe-se bete !
ReplyDeleteek chaand-se patee !!
ek paale-paale papa !!!
hm sb
wahaaN bhi
aapke saath haiN
Pnkaj bhaai ke har shabd me main apne sur milati hun...alag se kahne layak kuchh soojh nahi raha....
ReplyDeleteSapariwaar khoob khush rahiye,khushiyan aur prerna bantiye(haan dhukka nahi pine kaa,ek pita ko yah bilkul bhi shobha nahi deta )
itni badhiya post aur utni hi badhiya ak se ak tippniya .mai bhi ranjna ji ke sath hi sur milati hoo
ReplyDelete"mile sur mera tumhara to sur bne hmara "
abhar
itne sare painkillers hain paas mein fir wills pain killer kyon???
ReplyDeletenaina
मेजर साहब दुमष्नों को टक्कर देकर बहुत मुश्किलों से घर पहुंचे हैं आप, सिगरेट अगर दर्द कम करती है तो पीजिये पर ज्यादा नही । अभी तो मां की गोद पिता की सराहना और गर्व और बहू के प्रेम का आनंद तनया की मुस्कान के साथ उठाइये । शीघ्र आपकी बांहें मजबूत हो इस दुआ के साथ ।
ReplyDeleteमेजर साब, यूँ तो मैं ग़ज़ल कभी कभार लिखता हूँ. पर आज आपको पढ़कर एक त्रिवेणी आपके लिए कहता हूँ -
ReplyDeleteदूर छुपे रहते हो मेरी दुनिया में अँधेरा रहता है
सामने आते हो तो आँखे मिलाना मुश्किल है
सूरज सी तपिश रखते हो हमेशा अपने चेहरे पे
- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'
मां के पास आंसुओं का समंदर है, जिनसे वो संबन्धों को सींचती है. न हों तो सूख जायें. बेहतरीन आलेख.
ReplyDeletegautam ji , chhuttiyon ke liye shubhkaamnayen. padh kar ramanch hua.
ReplyDeleteएक-एक मर्म को समझा है मैंने,
ReplyDeleteमाँ की ऑंखें,पापा की असफल मुस्कान ,संजीता की मनःस्थिति,
और बेटी की मुस्कान और याहू............
ठीक वही टिप्पणी जो अनुराग जी के ब्लाग पर छोड़ी यहां छोड़ रहा हूं...........
ReplyDeleteदरअस्ल मुझे कोई फर्क ही महसूस नहीं हो रहा है इसलिये...........
कि
किसी का एक शेर याद आ रहा है कि..
इस का कारण मुझको भी मालूम नहीं,
आप मुझे क्यूं इतने अच्छे लगते हैं.
बस्स...
और हां तनया को प्यार बहुत सारा...
शेष सभी को यथायोग्य...
आपकी 15 नवम्बर वाली पोस्ट कहाँ चली गयी ?
ReplyDeleteचंद सौलिड ख्वाहिशों का मरहमी लिक्विडिफिकेशन...
ReplyDeleteकुछ ख्वाब कपूर की तरह भी होते हैं गौतम सर,
सोलिड से सीधे vapour स्टेट में आ जाते हैं , अभी थे अभी नहीं....
ये पोस्ट, इस पोस्ट का शिर्षक, पोस्ट की बातें और इस कथित त्रिवेणी का तड़का यदि आपसब को डा० अनुराग या फिर उनके ब्लौग दिल की बात का भान दिलाता हो तो मुझे जरा भी क्षोभ नहीं। दोष डाक्टर साब का है पूर्णतया। मोबाइल स्विच-आफ करने को सामाजिक अपराधमानने वाला ये गैर-पेशेवर इंसान आदतन संक्रामक है।
सहमत , पूर्णतया...
पर दुःख है की डॉ. लोग अगर बीमारी फेलाने लग गए तो फिर......
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर
ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर
(Genuine कमेन्ट : जलन हो रही है कि एकाधिकार समाप्त अब !)
ये त्रिवेणी पहली ऐसी त्रिवेणी देखि जो गाई जा सके,
हाँ याद आया की वो 'नज़्म' बदल के गीत कर दिया गया है...
थैंक्स !
.ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...
पता नहीं क्यूँ वो "एक बार वक्त से..." याद हो आया...
शायद एक फ्लो चार्ट बना दूं ....
गौतम सर>>डॉ. अनुराग >>गुलज़ार>>me>>गौतम सर >>डॉ अनुराग......
यही कारण हो...