22 February 2010

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत...

अब ग़ज़ल की बारी है। विगत कुछ प्रविष्टियों में इधर-उधर की सुनाने के बाद अब एक ग़ज़ल। पुरानी है, मेरे चंद साथियों के लिये जो श्री पंकज सुबीर जी के ब्लौग के नियमित पाठक हैं| पुरानी ग़ज़ल नये लिबास में कि मतले में बदलाव है और चंद अशआर नये जोड़े हैं। जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है...कि प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है...कि भटकी सामाजिकता और छिछली राजनीति में डगमगाते मानवीय-संतुलन के लिये ये सस्ते रुमानी हुस्नो-इश्क वाली ग़ज़ल भी बीच-बीच में सही बटखरे लेकर आती है...कि तल्ख और तीखे तेवरों के मध्य तनिक जायका बदलने के लिये इन शेरों की उपस्थिति आवश्यक है।...तो इन तमाम "कि" की खातिर पेश है ये ग़ज़ल:-

ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये

कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये

मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये

हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये

हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये

उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

...और ग़ज़ल के बाद हमेशा की तरह इस बहरो-वजन पर आधारित कुछ प्रसिद्ध फिल्मी गीतों का जिक्र। इस बहरो-वजन(मुतकारिब की चार रुक्नी बहर) पर ढ़ेरों फिल्मी गीत याद आते हैं। महेन्द्र कपूर का गाया मेरा सर्वकालीन पसंदीदा गाना "मेरा प्यार वो है कि मरकर भी तुमको"...फिल्म मासूम का "हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिये"...किशोर कुमार का गाया "हमें और जीने की चाहत न होती"....और रफ़ी साब के उस प्रसिद्ध युगल-गीत "वो जब याद आये बहुत याद आये " का मुखड़ा(सिर्फ मुखड़ा, अंतरे किसी और बहर में हैं)। अरे हाँ, जगजीत सिंह की गायी वो जबरदस्त हिट नज़्म "वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी " भी इसी बहरो-वजन पे तो है। किंतु इस बहरो-वजन का जिक्र फिल्म मुगले-आज़म के गीत "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये " के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। ऊपर वर्णित तमाम गानों को "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये" की धुन पे गाकर देखिये एक बार- बस मजे के लिये। इस बहरो-वजन पर लिखी गयी किसी भी ग़ज़ल को आराम से इन धुनों पर गुनगुनाया जा सकता है।

इसी जमीन पर मशहूर शायर भभ्भड़ भौंचक्के जी की एक बेहतरीन ग़ज़ल और होली का मूड लाती एक जबरदस्त हज़ल के लिये यहाँ क्लीक करें। शायर का असली नाम जानने के लिये उस पोस्ट की टिप्पणियों को गौर से पढ़ें। फिलहाल इतना ही। होली की आपसब को अग्रिम रंगभरी शुभकामनायें!

15 February 2010

प्रेम-चतुर्दशी पर अपनी कुछ प्रेमिकाओं की याद में

उम्र का ये पड़ाव बड़ा ही विचित्र-सा है। ये वो पड़ाव है जब "बड़प्पन" की तलाश में भटकती उम्र अचानक से  अपने "लड़कपन" को बचाये रखने की मुहिम में  बौखलायी फिरने लगती है। फिर भी ये पड़ाव इतना तो सुरक्षित है ही कि आज इस प्रेम-चतुर्दशी के इस उत्सव पर मैं ये घोषणा कर सकूँ कि डायना मेरा पहला प्यार थी।...थी??? ...या है??? नहीं, महज "पहला" कहकर चुप हो जाना अनुचित होगा, क्योंकि मामला तो अव्वलो आखिरश दरम्यां-दरम्यां वाला है। विगत एक हफ़्ते से विभिन्न दिनों को नये-नये नाम से मनाते हुये देखता है जब ये "लड़कपन", तो फिर कमबख्त "बड़प्पन" अपनी कुछ प्रेमिकाओं के नाम गुनगुनाने बैठ जाता है। एक लंबी-सी फ़ेहरिश्त बन जाती है उन नामों को गुनगुनाते...उन प्रेमिकाओं का नाम गुनगुनाते-गुनगुनाते। चलिये उम्र के इस पड़ाव पर खुद को अब बिल्कुल सुरक्षित मानते हुये मैं इस फ़ेहरिश्त को आप सब के संग साझा करता हूँ। फ़ेहरिश्त की क्रमवार सूचि में भले ही ढ़ेरों दुविधायें हों, किंतु पहले स्थान पर निर्विवाद रूप से डायना थी, है और रहेगी- अनंत काल तक।

नहीं, मैं प्रिंस चार्ल्स वाली ब्रिटेन के राजघराने वाली डायना की बात नहीं कर रहा यहाँ। मैं बात कर रहा हूँ डायना पामर । जी हाँ, फैंटम उर्फ वेताल उर्फ अपने चलते-फिरते प्रेत की प्रेयसी डायना की बात कर रहा हूँ। इक्कीसवाँ फैंटम जब पहली बार मिला था कांगो गणराज्य के अमेरिकी दूतावास में डायना से, तब से लेकर अब तलक चल रही इस प्रेम-कहानी का सिलसिला उम्र-दर-उम्र नये अफ़साने गढ़ता चला जा रहा है। ये बिल्कुल ही पहली नजर के पहले प्यार वाला किस्सा था डायना के संग। उधर वेताल को हुआ, इधर मुझे भी। इंद्रजाल कामिक्स के उन पन्नों में मंडराती किसी स्वप्न-सुंदरी सदृश ही डायना एकदम से दिन का चैन और रातों की निंदिया उड़ा ले गयी थी उन दिनों। ये उन दिनों की बात है, जब अपने फैंटेसी की मनमोहक दुनिया बसाया हुआ बचपन सहर्ष ही किट और हेलोइश जैसे प्यारे-प्यारे जुड़वां बेटे-बेटी का पिता कहलाने को तैयार था। हवा-महल के उन सुहाने दिनों में, बौने बंडारों के जहर बुझे तीरों के सुरक्षा-घेरे में, खोपड़ीनुमा गुफा की उन ठंढ़ी तलहटियों में, शेरा और तूफान के संग वाली सैरों में और वेताल के साथ-साथ ही मंडराती चुनौतियों के खिलाफ़ छेड़ी हुई जंगों में...खिलखिलाती मचलती हुई डायना ...उफ़्फ़्फ़्फ़!!! ...और जब अपने मि० वाकर उर्फ चलते-फिरते प्रेत ने प्रणय-निवेदन किया था हमारी डायना से और फिर डायना का उस निवेदन को सहर्ष स्वीकारना...आहहा! कैसा माहौल था वो खुशनुमा!! मानो डायना ने हमारा प्रणय-निवेदन ही स्वीकारा हो प्रत्यक्षतः.... :-) शायद याद हो आपसब को कि शादी में सुदूर ज़नाडु से चलकर अपना प्यारा जादूगर खुद मैण्ड्रेक भी आया था समारोह में हिस्सा लेने।

...और मैण्ड्रेक के साथ ही याद आती है प्रिसेंज नारडानारडा के ही महल के बगीचे में मैण्ड्रेक का इजहार अपने प्यार का राजकुमारी नारडा के प्रति और फिर
नारडा का ज़नाडु में स्थानंतरित होना लोथार और मोटे बटलर का साथ देने, शायद इंद्रजाल कामिक्स की दुनिया का एक और शो-केस इवेंट था। इसी फ़ेहरिश्त में यूं तो बेला भी शामिल थी, लेकिन बीतते वक्त के साथ उसकी तस्वीर तनिक धुमिल हो गयी है। बेला...बहादुर की बेला। कहानी के प्लाट में तमाम विविधतायें होते हुये भी बेला का तनिक रफ और टफ व्यक्तित्व मुझे ज्यादा रास नहीं आता। कराटे में वैसे तो डायना भी ब्लैक-बेल्ट थी, लेकिन फिर भी उसकी नजाकत और उसके जिस्म का लोच एक अलग ही अफ़साना बयान करते थे।

फ़ेहरिश्त में आगे चंद और विदेशी नायिकाओं का आगमन होता है। यकीनन लुइस लेन मेरे लिये डायना के समक्ष ठहरती है। डेली प्लानेट के सौम्य और मृदुभाषी रिपोर्टर क्लार्क केंट की दोस्त और प्रेयसी जब क्लार्क केंट को सुपरमैन के ऊपर तरजीह देती है, एक झटके में मेरा दिल ले जाती है। बात उन दिनों की है जबअचानक से इंद्रजाल कामिक्स का प्रकाशन बंद हो गया था और विदेश से आनेवाले मेरे एक रिश्तेदार मेरे कामिक्स-प्रेम को देखते हुये मेरे लिये चंद डीसी और मार्वल कामिक्स का पूरा सेट उपहार में लेकर आये थे। उन दिनों जब डायना दिखनी बंद हो गयी थी, लुइस लेन आयी थी एक बहुत ही मजबूत विकल्प बन कर। सुपरमैन की प्रेयसी किसी भी मामले में कहीं भी सुपरमैन से कम नही थी(है)...याद आता है मुझे क्लार्क कैंट और लुइस का विवाह और उन दिनों किसी कारणवश सुपरमैन अपनी सारी शक्तियाँ खो चुका था, तब तमाम विपदाओं से लड़ती हुई लुइस लेन ने अकेले ही क्लार्क कैंट को मुसिबतों से निकाला था।

...और इसी जारी प्रेम-प्रसंगों की एक सबसे प्रबल प्रतिभागी है मेरी जेन। जी हाँ, अपने नेक्स्ट डोर नेबर पीटर पार्कर उर्फ स्पाइडर मैन की मेरी जेन । दि बोल्ड एंड सेन्सुअस मेरी जेन...उफ़्फ़्फ़! उन तमाम बनते-बिगड़ते रिश्तों की उलझनें, उन तमाम विलेनों के संग की उठा-पटक, उन तमाम रातों की चिंतित करवटें जब पीटर पार्कर अपने स्पाईडी अवतार में दुश्मनों की बैंड बजा रहा होता है...मैंने मेरी जेन का साथ निभाया है। इस लिहाज से मैं कई बार उलझन में भी पड़ जाता हूँ। उलझन में कि मेरी जेन या डायना पामर...?? डायना या मेरी...??? और इस उलझन में डायना का पलड़ा भारी करने हेतु मैं कभी इंटरनेट पे तो कभी कबाड़ियों और पुरानी दुकानों के गर्द पड़ चुके कोनों में फैंटम कामिक्सों को तलाशते रहता हूँ। इंद्रजाल कामिक्स के लुप्तप्राय हो जाने के बावजूद अब भी जुड़ा हुआ हूँ येन-केन-प्रकारेन फैंटम की दुनिया से...तो डायना का पलड़ा हमेशा भारी ही रहता है।

इसी फेहरिश्त में कहीं पर सेलिना भी है। सेलिना....कैट वोमेन...बैटमेन की प्रेमिका। वैसे शायद प्रेमिका कहना अनुचित होगा। क्योंकि सेलिना का अपराधिक-चरित्र और बैटमैन का अपराध को समूल नाश करने का लिया गया वचन इस प्रसंग को आगे बढ़ने से रोकता है। किंतु अपने अल्टर-इगो में ब्रुस वेन कहीं-न-कहीं सेलिना के प्रति झुकाव तो महसूस करता ही है और उसी झुकाव की वजह से हम बैटमैन के चाहनेवाले भी दिलोजान से कामना करते रहते हैं कि ये खूबसूरत सेलिना छोड़ क्यों नहीं देती है चोरी-चकारी के धंधे।

फ़ेहरिश्त यहाँ तक तो बिल्कुल ही स्पष्ट थी, किंतु इसके बाद से तनिक गड्ड-मड्ड होने लगती है। सिलसिलेवार नहीं रह पाती। इसमें कहीं पर विलियम वर्ड्सवर्थ की लुसी शामिल हो जाती है तो कहीं गुलज़ार की सोनां। कहीं राजेन्द्र यादव की वो धोती में लिपटी हुई प्रभा का नाम आता है तो कहीं मन्नु भंडारी की वो प्रेम-त्रिकोण में उलझी हुई दीपा। कभी आर०के० नारायण की रोजी आ जाती है छम्म से तो कभी जैनेन्द्र की सुनिता। इसी फ़ेहरिश्त में जहाँ गैब्रियल मार्केज की फर्मिना डाज़ा भी शामिल है, वहीं सिडनी शेल्डन की ट्रेसी व्हीटनी भी...और सुरेन्द्र मोहन पाठक{?} की रेणु से लेकर वेदप्रकाश शर्मा{??} की सोनाली भी। मार्गरेट मिशेल की स्कारलेट ओ’हारा तो यकीनन है इस फ़ेहरिश्त में और एरिक सिगल की जेनिफर भी। कुछ और नाम स्मृति-अहाते पर आहट करते आते हैं...जैसे कि धर्मवीर भारती की सुधा, अमृता प्रीतम की मीता और सुरेन्द्र वर्मा की वर्षा वशिष्ठ। फ़ेहरिश्त तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही और पोस्ट बहुत लंबी होती चली जा रही है। चलिये फिलहाल फ़ेहरिश्त को समेटता हूँ एक आखिरी नाम के साथ...अंजलि। अंजलि को नहीं पहचाना आप सब ने? अरे अपनी अंजलि जोशी...जिसकी पीली छतरी कई बार एक तितली बन कर उड़ जाती है...अपने उदय प्रकाश की अंजलि

...तो फिलहाल इतना ही। प्रेमिकाओं की ये लंबी फ़ेहरि्श्त अभी खत्म नहीं हुई है। खत्म? अभी तो सच पूछिये आधे तक भी नहीं पहुँचे हैं हम। फिर कभी चर्चा करुंगा...और हाँ इस "प्रेमिका" शब्द से धोखा मत खाइये आप सब। ये सब-के-सब पूर्णतया एकतरफा प्यार के मामले हैं। वो चचा ग़ालिब ने कहा है ना:-

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

08 February 2010

आइ लव यू, फ्लाय-ब्वाय...!

तारीख: 27 जनवरी 10
जगह: जम्मु-नगरौटा में कहीं एक सैन्य हेलिपैड।


दोपहर के चार बजने जा रहे हैं। दिन भर की जद्दो-जहद के बाद कुहासा चीरते हुये आखिरकार सूर्यदेव मुस्कुराते हैं। चुस्त स्मार्ट युनिफार्म में आर्मी एवियेशन के दो पायलट, एक मेजर और एक कैप्टेन, वापस लौटने की तैयारी में हैं कश्मीर के अंदरुनी इलाके में कहीं अवस्थित अपने एवियेशन-बेस में, अपने हेलीकाप्टर को लेकर। करीब सवा घंटे की यात्रा होगी। परसों ही तो आये हैं दोनों यहाँ इस एडवांस लाइट हेलीकाप्टर "ध्रुव" को लेकर पीरपंजाल की बर्फीली श्रृंखला को लांघते हुये, छब्बीस जनवरी को लेकर मिले अनगिनत धमकियों के बर-खिलाफ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने के लिये। हेलीकाप्टर के पंखे धीरे-धीरे अपनी गति पकड़ रहे हैं। मेजर एक और सरसरी निरिक्षण करके आ बैठता है काकपिट में और कैप्टेन को अपने सिर की हल्की जुंबिश से इशारा देता है। फुल थ्रौटल। धूल की आँधी-सी उठती है। पंखों के घूमने की गति ज्यों ही 314 चक्कर प्रति मिनट पर पहुँचती है, वो बड़ा-सा पाँच टन वजनी हेलीकाप्टर पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण को धता बताता हुआ हवा में उठता है। कुछ नीचे मंडराते हुये आवारा बादलों की टोली मेजर के माथे पर पहले से ही मौजूद चंद टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में एक-दो रेखाओं का इजाफा और कर डालती हैं। बादलों की आवारगी से खिलवाड़ करते हेलीकाप्टर के पंखे तब तक हेलीकाप्टर को एक सुरक्षित ऊँचाई पर ले आते हैं। सामने दूर क्षितिज पे नजर आती हैं पीरपंजाल की उजली-उजली चोटियाँ, जो श्‍नैः-श्‍नैः नजदीक आ रही हैं। बस इन चोटियों को पार करने की दरकार है। फिर आगे वैली-फ्लोर की उड़ान तो बच्चों का खेल है। उधर पीरपंजाल के ऊपर लटके बादलों का एक हुजूम मानो किसी षड़यंत्र में शामिल हो मुस्कुराता है उस हेलीकाप्टर को आता देखकर। कैप्टेन तनिक बेफिक्र-सा है। इधर की उसकी पहली उड़ान है शायद। किंतु मेजर के माथे पे एकदम से बढ़ आयीं उन टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के दरम्यान यत्र-तत्र पसीने की चंद बूंदें कुछ और ही किस्सा बयान कर रही हैं। हेलीकाप्टर की रफ़्तार बहुत कम है कोहरे और बादलों की वजह से। आदेशानुसार साढ़े पाँच बजे शाम से पहले बेस पर पहुँचना जरुरी है। इस कपकंपाती सर्दी में दिन को भी भागने की जल्दी मची रहती है और रात तो जैसे कमर कसे बैठी ही रहती है छः बजते-बजते धमक पड़ने को। कहने को है ये बस एडवांस हेलीकाप्टर। रात्री-उड़ान क्षमता तो इसकी सिफ़र ही है।

तारीख: 27 जनवरी 2010
स्थान: पीरपंजाल के नीचे कहीं कश्मीर वादी का एक जंगल।


सुबह के साढ़े नौ बज रहे हैं। पीरपंजाल के इस पार वादी में जंगल का एक टुकड़ा गोलियों के धमाके से गूंज उठता है अचानक ही। पिछली रात ही बगल वाली एक सैन्य टुकड़ी को जंगल में छिपे चार आतंकवादियों की पक्की खबर मिलती है और सूर्यदेव का पहला दर्शन मुठभेड़ का बिगुल बजाता है। दो आतंकवादी मारे जा चुके हैं और दो को खदेड़ा जा रहा है। सात घंटे से ऊपर हो चुके हैं। पीछा कर रही सैन्य-टुकड़ी जंगल के बहुत भीतर पहुँच चुकी है और शेष बचे दो में से एक आतंकवादी मारा जा चुका है। दूसरे का कहीं कोई निशान नहीं मिल रहा है। एक साथी घायल है। लांस नायक। पेट में गोली लगी है। प्राथमिक उपचार ने खून बहना तो रोक दिया है, किंतु उसका तुरत हास्पिटल पहुंचना जरुरी है। सबसे नजदीकी सड़क चार घंटे दूर है। हेलीकाप्टर बेस को संदेशा दिया जा चुका है।

तारीख: 27 जनवरी 2010
स्थान: पीरपंजाल के ठीक ऊपर।


शाम के पाँच बजने जा रहे हैं। मेजर ने कंट्रोल पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया है। कुछ क्षणों पहले तक बेफिक्र नजर आनेवाला कैप्टेन उत्तेजित लग रहा है। कुहरे और षड़यंत्रकारी बादलों के हुजूम से जूझता हुआ हेलीकाप्टर पीरपंजाल की चोटियों के ठीक ऊपर है। मेजर को बेस से संदेशा मिलता है रेडियो पर उसके ठीक नीचे चल रहे मुठभेड़ के बारे में और मुठभेड़ के दौरान हुए घायल जवान के बारे में। बेस अब भी आधे घंटे दूर है और अँधेरा भी। मेजर के मन की उधेडबुन अपने चरम पर है। कायदे से वो उड़ता रह सकता है अपने बेस की तरफ। उसपर कोई दवाब नहीं है। रूल के मुताबिक उसे साढ़े पाँच बजते-बजते लैंड कर जाना चाहिये बेस में मँहगे हेलीकाप्टर और दो प्रशिक्षित पायलट की सुरक्षा के लिहाज से। उसे याद आती है अपनी पुरानी यूनिट और अपने पुराने कामरेड। हेलीकाप्टर का रुख मुड़ता है पीरपंजाल के नीचे जंगल की तरफ। कैप्टेन के विरोधस्वरुप बुदबुदाते होठों को नजरंदाज करता हुआ मेजर बाँये हाथ को अपने पेशानी पे फिराता हुआ उन तमाम टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं को स्लेट पर खिंची चौक की लकीरों के माफिक मिटा डालता है।

तारीख: 27 जनवरी 2010
स्थान: पीरपंजाल के नीचे कहीं कश्मीर वादी के एक जंगल का सघन इलाका।


शाम के सवा पाँच बजने जा रहे हैं। जंगल के इस भीतरी इलाके में शाम तनिक पहले उतर आयी है। झिंगुरों के शोर के बीच रह-रह कर एक कराहने की आवाज आ रही है। उस घायल लांस नायक के इर्द-गिर्द साथी सैनिकों की चिंतित निगाहें बार-बार आसमान की ओर उठ पड़ती हैं। घिर आते अंधेरे के साथ दर्द से कराहते नायक की आवाज भी मद्धिम पड़ती जा रही है। झिंगुरों के शोर के मध्य तभी एक और शोर उठता है आसमान से आता हुआ। पेड़ों के ऊपर अचानक से बन आये हेलीकाप्टर के उन बड़े घूमते पंखों की सिलहट उम्मीद खो चुके लांस नायक के लिये संजीवनी लेकर आती है। सतह से कुछ ऊपर ही हवा में थमा हुआ हेलीकाप्टर पूरे जंगल को थर्रा रहा है। घायल लांस नायक और उसका एक कामरेड हेलीकाप्टर में बोर हो रहे मेजर और कैप्टेन का साथ देने आ जाते हैं। पेड़ों को हिलाता-डुलाता हेलीकाप्टर अँधेरे में अपनी राह ढ़ूंढ़ता हुआ चल पड़ता है बेस की ओर। घड़ी तयशुदा समय-रेखा से पंद्रह मिनट ऊपर की चेतावनी दे रही है।

तारीख: 28 जनवरी 2010
स्थान: कश्मीर वादी की एक सैनिक छावनी।


सुबह के सात बज रहे हैं। घायल लांस नायक काबिल चिकित्सकों की देख-रेख में पिछले बारह घंटों से आई.सी.यू. में सुरक्षित साँसें ले रहा है। मेजर अपने बिस्तर पर गहरी नींद में है। मोबाइल बजता है उसका। कुनमुनाता हुआ, झुंझलाता हुआ उठाता है वो मोबाइल-

मेजर:- "हाँ, बोल!"

मैं:- "कैसा है तू?"

मेजर:- "थैंक्स बोलने के लिये फोन किया है तूने?"

मैं:- "नहीं...!"

मेजर:- "फिर?"

मैं:- "आइ लव यू, फ्लाय-ब्वाय!"

मेजर:- "चल-चल...!"

...और मोबाइल के दोनों ओर से समवेत ठहाकों की आवाज गूंज उठती है।

पुनश्‍चः
भारतीय थल-सेना को अपने एवियेशन शाखा पर गर्व है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व राज्यों में जाने कितने सैनिकों का जान बचायी हैं और बचा रहे हैं नित दिन, आर्मी एवियेशन के ये जाबांज पायलेट - कई-कई बार अपने रिस्क पर, कितनी ही बार तयशुदा नियम-कायदे को तोड़ते हुये...मिसाल बनाते हुए। कोई नहीं जानता इनके बहादुरी के किस्से। शुक्रिया ओ चेतक, चीता और ध्रुव और इनको उड़ाने वाले जांबाज आफिसरों की टीम...!!!

01 February 2010

अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं

भूल तो नहीं गये आपलोग मोहित शर्मा को, ऋषिकेश रमानी को, आकाशदीप को या फिर...या फिर सुरेश सूरी को ??? घबड़ाइये मत, मैं नहीं भूलाने दूँगा। इस छब्बीस जनवरी को भव्य परेड के दौरान महामहीम के हाथों मोहित की पत्नि ऋषिमा को तो देखा ही होगा आपसब ने अपने पति की शहादत पर अशोकचक्र का मेडल पाते हुये। कश्मीर के इन सुदूर चीड़ के जंगलों में भी मेजर मोहित की शहादत, उसकी बहादुरी को पहचाना गया ये मेरे लिये सुखद आश्चर्य था। शांतिकाल में अपने देश में दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता-पदक है अशोकचक्र। इसी क्रम में दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर क्रमशः कीर्तिचक्र, शौर्यचक्र और सेना-मेडल आते हैं।

अपने इसी ब्लौग पर ही पहले कभी लिखा था मैंने कि कोई कितना बहादुर होता है ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसे अपनी बहादुरी दिखाने का अवसर कहाँ मिलता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में "जगह" ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है एक जांबाज की बहादुरी की डिग्री को निर्धारित करने के लिये। दिल्ली के संसद-भवन के समक्ष या फिर मुम्बई के ताज होटल या नरीमन प्वाइन्ट पर दी गयी शहादत अचानक से बड़ी हो जाती है बनिस्पत कश्मीर के इन सघन चीड़ के वनों में दिखाई गयी शहादत से। मेजर सुरेश सूरी को कीर्तिचक्र, मेजर आकाशदीप को शौर्यचक्र और मेजर ऋषिकेश रमानी को सेनामेडल से नवाजा गया है- तीनों के तीनों मरणोपरांत। ईश्वर जाने कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया...!!! वहीं दूसरी तरफ एक नौटंक, जो किसी करीना नामक बाला से इश्क लड़ाने के बाद बचे हुये समय में एक विदेशी कंपनी के बने आलू-चिप्स के नये फ्लेवर को तलाशने में गुजारता है, पद्मश्री ले जाता है।

...इधर इन समस्त विसंगतियों की वजह से ये अचानक मेरे बाँयें हाथ में टीस क्यों बढ़ आती है? जाने क्यों...??

जिस दिन मेजर ऋषिकेश शहीद हुआ था, एक ग़ज़ल की पैदाइश हुई थी मेरी चोट खायी लेखनी से। एक मिस्रा उछाला गया था गुरुदेव द्वारा "रात भर आवाज देता है कोई उस पार से", जो बाद में उन्हीं के ब्लौग पर मुशायरे में शामिल हुआ था। पेश है वही ग़ज़ल:-

चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से

मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से

अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से

मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से

बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से

...इस बहरो-वजन पर कई सारी ग़ज़लों और गीतों की चर्चा मैं कर ही चुका था अभी अपनी पिछली ग़ज़ल जब पढ़वायी थी आपसब को। इसी बहर पर दुष्यंत कुमार की एक विषयानुकूल ग़ज़ल सुनवाता हूँ आपसब को। सुनिये:-



मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए