उम्र के इस पायदान पर भी अंदर का बचपन किलकारियाँ मार उठता है छोटी-छोटी खुशियों पर भी। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि दीपावली की शाम को एक स्नेहिल नर्स द्वारा चुपके से आकर कैडबरिज का फ्रूट एंड नट वाला बड़ा-सा पैकेट पकड़ा देना। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि एक दूर-निवासी दोस्त की तरफ से खूब अच्छे से पैक किया हुआ पार्सल का मिलना, जो मेरी पसंदीदा फिल्मों की ढ़ेर सारी डीवीडी से भरा हुआ होता है। छोटी-छोटी खुशियाँ...जैसे कि भारतीय भाषा परिषद की कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ के इस अक्टूबर वाले अंक में अपनी दो ग़ज़लों को छपा देखना...!!! अब वो कैडबरिज या डीवीडी तो आपलोगों के साथ शेयर नहीं कर सकता, हाँ, वागर्थ में छपी अपनी दो ग़ज़लों में से एक जरूर शेयर करूँगा। तो पेश है, मुलाहिजा फरमायें:-
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
{त्रैमासिक पत्रिका लफ़्ज़ के दिसम्बर10-फरवरी 11 वाले अंक में भी प्रकाशित}
...ग़ज़ल यदि कहने लायक और जरा भी दाद के काबिल बनी है तो गुरूदेव के इस्लाह और डंडे से। इस बहरो-वजन पर बेशुमार गज़लें और गाने लिखे और गाये गये हैं। चंदेक जो अभी याद आ रहे हैं...चचा गालिब की "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले" और फिर जगजीत सिंह की गायी वो प्यारी-सी ग़ज़ल तो आप सब ने सुनी ही होगी "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता"...। इसी मीटर पर रफ़ी साब का गाया गाना याद आ रहा है जो मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ "खुदा भी आस्मां से जब जमीं पर देखता होगा..."। इस बहर पर एक और रफ़ी साब का बहुत ही पुराना युगल गीत चलते-चलते याद आ गया। मेरे ख्याल से "भाभी" फिल्म का है और मुझे बहुत पसंद है- "छुपा कर मेरी आँखों को..."। चलिये ये गाना सुनाता हूँ आपसब को:-
इसी बहर पर अंकित सफ़र की एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़िये यहाँ और उनके ब्लौग पर जाकर इस नौजवां शायर की हौसलाअफ़जाई कीजिये।
नोस्टेल्जिक कर देती है ग़ज़ल। बहुत खूबसूरत है।
ReplyDeleteछा भी गये और छू भी गये!!!
ReplyDeleteभाई...जबरदस्त!!
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
ReplyDeleteहवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
बेहतरीन गज़ल - ज़िन्दगी से रूबरू
गौतम
ReplyDeleteभाई...एक जोरदार वाला सेल्यूट आपको इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए जिसका हर शेर अपने आप में पूरी एक ग़ज़ल है...सुभान अल्लाह भाई...क्या लिख डाला है...खास तौर पर ये शेर अपने साथ लिए जा रहा हूँ इस उम्मीद के साथ के कभी मैं भी ऐसा लिख पाउँगा...
जिन्हें झुकना नहीं आया ......
भरे पूरे घर में...(इस शेर को बार बार लगातार पढ़ रहा हूँ....)
खिली सी धूप में....
दुआओं का हमारे हाल...
लड़ा तूफ़ान से...
जियो मेजर बरसों बरस जियो...आज तो सुबह सुबह वो आनंद ला दिया जिसका जवाब नहीं...वाह
नीरज
आज मैं आपकी अब तक पढी हुई सबसे बेहतरी ग़ज़ल पढ रहा हूं शायद. शायद इसलिये क्योंकि अभी आपका सब कुछ नहीं पढा है.
ReplyDeleteऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
ये वो अशआर हैं जहां आप बोलते हैं अपनी पूरी धनक और अपनी शैली मैं, जिसके लिये शाइरों की पूरी उम्र गुज़र जती है. बधाई हो इस नायाब ग़ज़ल के लिये,वागर्थ में छपने के लिये और तोहफ़ों का क्या है वो तो हम जब भी मिलेंगे प्यार और हक़ से अपना हिस्सा ले ही लेंगे. अस्तु
गजल का प्रत्येक शेर लाजवाब, बधाई। भैयादूज की भी बधाई स्वीकार करें।
ReplyDeleteलगता है यह नटखट अन्दर का बच्चा हर साहित्यकार के पास होता है, खैर बहुत सुन्दर गजल ! और आपको हार्दिक शुभकामनाये !
ReplyDelete'भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
ReplyDeleteगुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली'
'लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली'
-उम्दा ग़ज़ल!
कैडबरिज की mithaas और sangeet दोनों isee gazal में मिल गए..
vagarth में chhapne की badhaaye.
***'छुपा कर मेरी आँखों से..'गीत भी क्या चुन कर लाये हैं!
waah !गज़ब!
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
ReplyDeleteमजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
ek ek pankti kamal ki hai sir... badhai aapko aur aapke guru shri pankaj subir ji ko..
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
ReplyDeleteहवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
आपका लिखा तो एक एक शब्द जिन्दगी से भरा होता है फिर ये तो पूरी गज़ल दिल तक उतर गयी बहुत बहुत बधाई ाउर आशीर्वाद्
ankit safar ji ki ghajal tak pahunchane ke liye shukriya..
ReplyDeleteबेहतरीन, मेजर साब्।
ReplyDeleteक्या बात है हूजुर , वागर्थ , चौलेट, डीवीडी , सभी के लिए मुबारकां , वेसे यह ग़ज़ल मैं कहीं पढ़ चुका हूँ कहाँ पढा है ये याद नहीं आरहा है या तो किसी पत्रिका ???? खैर इस नायाब ग़ज़ल के लिए तारीफ करने के लिए तो शब्द धुन्धने पड़ रहे हैं ... कमाल के अश'आर कहे हैं आपने ... हर शे'र में नत्खातापन, गर्मजोशी, मासूमियत , और ना जाने क्या क्या ... भरे पड़े हैं .. इस कमाल वाली ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई और हाँ कैडवरी में से कुछ बचा है के नै ... हा हा हा ढेरो बधाई ,.. वो नर्स कैसी है..??? :) ...
ReplyDeleteअर्श
दाद लीजिये बहुत सारा...याद आया मुझे भी uska bheja kuch kisi diwali pe...
ReplyDeleteab to raipar bhi nahi hai..
"बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
ReplyDeleteचलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली"
Once a Soldier, ALWAYS a SOLDIER.
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !
मुझे वो गीत याद आ गया...
ReplyDeleteतुम्हारे पलकों की चिलमनों में यह क्या छुपा है तुम्हारे जैसा,
हसीन है यह हमारे जैसा शरीर है है यह तुम्हारे जैसा...
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
ReplyDeleteहुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
waah waah waah....
behad khoobsurat
meet
क्या बात है ......यूं भी भूपेंदर की आवाज में किनारा में गुलज़ार की ये नज़्म मेरी फेवरेट है .......यू ट्यूब में इसको तलाशा है हमने .......
ReplyDeleteशेर तो खैर शानदार है ही मेजर........बाकी किस्से रूबरू होगे ...२२ को या २४ की रात की...वादियों में
फ्रूट एंड नट वाला बड़ा-सा पैकेट पकड़ा देना ??
ReplyDeleteM Lovin it !!
Gautam sir aapki tabiyat kharab hai aap mujhe email main attachment ke saath forward kar do na pleaseeeee Fruit & Nut......
अब वो कैडबरिज या डीवीडी तो आपलोगों के साथ शेयर नहीं कर सकता..
ReplyDeletekar nahi sakta ya karna nahi chahte?
:(
bus apni do ghazal padhwa ke taal rahe ho...
bacche fruit and nut ki aas lagaiye hue hai aur bade us DVD ki...
De do na uncle please !!
DVD main agar 'Ice Age', 'Sherak' ya 'Schindler's List' hai to wo bhi chal jaaiyegi...
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
ReplyDeleteहुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
waah
@ डाक्टर साब की जय हो! आपने सही पकड़ा...मतले का मिस्रा-उला भूपेन्द्र के उसी गाने "एक ही ख्वाब कई बार देखा है मैंने..." से प्रभावित है। गाने की वो आखिरी वाली हँसी हमेशा मुझे भी ठहाके लगाने पे विवश कर देती है ..और मिस्रा-सानी वो एक चाय की एड से। 22 से 24..वक्त थमक गया है जैसे।
ReplyDelete@ दरपण,
बदला निकाल रहे हो? देख लूँगा...! अबे शेर की तारीफ़ तो कर दो लगे हाथों। और श्रेक, आइस-एज तो पहले से थे कलेक्शन में मेरे। और सिंडलर्स-लिस्ट तो बस पूछो मत, स्पेशल डीवीडी कौम्बी में है।
ह्म्म ..लो ऐश करो!
ReplyDeletehttp://www.youtube.com/watch?v=7_8LrQ827AI&feature=player_embedded
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
ReplyDeleteजो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
बहुत ही सुंदर गजल ओर हर शेर पर मुंह से वाह वाह ही निकलती है, बहुत सुंदर कवि राज जी मजा आ गया,
धन्यवाद
मेजर साहिब,
ReplyDeleteसैलूट,
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
बहुत खूब...और ये हाँ ऊँड़स ली....में ग़ज़ब कि खुमारी लगी है...भाई जब चाभी वाली आती है तभी तो ढंग कि चाय नसीब होती हैं न..
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
एक दम सही.....जो मज़ा लहरा के चलने में है वो लुत्फ़ सीधी चाल में कहाँ है हजूर...
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
क्या बात कह दी आपने.....पुरानी चिट्ठियां यादों का मजमा जो लगा जातीं हैं..
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
अब इस बात पर हम का कहें भाई ....इ तो आप दोनों का मामला है.....वैसे हम भी वेदर रिपोर्ट पर ज्यादा यकीन नहीं करते हैं......
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
अपनी भी दुआओं का यही हाल है जी.....लगता है साइबर स्पेस में गुम ही हो जाती है..ठिकाने तक पहुँचती ही नहीं..
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
रणभूमि में अभी जाने कि ज़रुरत नहीं...हाँ दौड़ना शुरू कीजिये नहीं तो आपके क्षेत्रफल पर असर पड़ेगा.....हा हा हा हा
दिल खींच लेती है आपकी ग़ज़ल गौतम जी ........... क्या कमाल के शेर गढ़ते हैं आप .......... बखूबी निभाया है आपने काफिया ........... बधाई बधाई बस बधाई ............
ReplyDeleteबहुत लाजवाब रचना, अनंत बधाई और शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
हम भी आज कोई गज़ल लिख ही मारते हैं,
ReplyDeleteजो होगा देखा जाएगा :)
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
ReplyDeleteगुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल....गहरी अनुभूतियों से लबरेज़...
Aaj somvaar hai per umeed nahi thi ki itni jaldi aap nayee post lagayenge.To ye bonus post ho gaya hamare liye...gajal ke liye to mein kya kahoon aapki likhi to ek ek lne v mujhe bahut pasand hai..
ReplyDeletekoi option nahi...
song bahut pasand aaya... addhe ghante tak kuchh kuchh karti rahi per download nahi kar pa rahi thi. finally kar liya :) :) ..to ise meine apne fav folder mein rakh liya hai...
hmmmmm.....to nurse ke sang khoob dosti ho rahi hai aapki ...achha hai hum jaise log v inspire hote hain isse naye naye dost banane ko....
thanx
naina
आज ये गजल दूसरी बार पढ़ रहा हूँ...
ReplyDeleteमहीनो बाद एक बार हिंद युग्म खुला था पिछले दिनों
हवा चले लगी है,,,देखा तो आपकी खुशबू आयी..
मगर एक परसेंट भी यकीन नहीं था के जब आप की तबियत ऐसी है तो वहाँ पर ये गजल छपी होगी..
पर देखा तो बहुत हैरानी हुयी...
मतले में कुछ ऐसा है के उसी दिन से एक दो बार जबान पे आ जाता है,,,
खासकर पहली पंक्ति...बेहद बेहद अपनी लगती है...
काश........इस ''ऊँड़स ली'' शब्द का प्रयोग हमने किया होता ....
और आप कहते ...
ऊऊऊऊऊओफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़
क्या लिख मारे हो .... माई god...
@ विवेक जी,
ReplyDeleteअब होगा का !!!
कुछ ग़ज़लगो आज औंधे मुंह नज़र आवेंगे
और बाकि बचे-खुचे उनको दौड़-दौड़ के उठावेंगे...
@ nainaa ji-----:)
ReplyDelete:)
:)
sabhi tareef kar rahe hai....ham bhi kar dete hai....sach mein khoobsoorat gazal hai
ReplyDeleteऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
ReplyDeleteहुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
पुरानी बंगाली किसी टीवी सीरियल की याद आ गई :-)
बधाई गौतम।
इसी बहर पर ये गीत भी है-
ReplyDeleteमुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
अगर तूफ़ां नहीं आता किनारा मिल गया होता
गज़ल तो लाजवाब है, बिल्कुल दीपावली के फूलझड़ियों जैसी। देसी शब्दों का प्रयोग और भी आनंद दे रहा है।....पसंदीदा फ़िल्मों की सूची बना लें और कानपुर आ जाएं, सारी मिल जाएंगी।
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
ReplyDeleteचलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
wah behatareen, har sher lajawaab. bahut mubarak.
गौतम जी क्या हाल है? सबसे पहले तो पोस्ट के शीर्षक ने दिल जीता और फिर आपकी इस गजल ने। कुछ शेर तो एक अलग ही हवा लिए हुए है। चाहे वो पहला शेर हो या चौथा शेर और या फिर छठा शेर। बस इस हवा में रहने को जी चाहे। और आखिर वाले शेर पर जी कुछ कहने को चाहे और सीना गर्व से चौडा हो जाए। और कैडबरिज के गिफ्ट की बात पढकर हमारा हाथ भी अलमारी की तरफ बढ जाए।
ReplyDeleteसच कहूं तो अपने आपको इस गजल पर वाह वाही करने लायक भी नहीं मानता ! लेकिन रहा भी नहीं जाता... ऐसी कमाल की गजल ही है.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteये ऐसी ग़ज़ल है जिसे मैं जितनी भी बार पढ़ूँ रिमार्क्स एक से ही आते हैं।
ReplyDeleteउँड़स ली चाभी वाले शेर के नयेपन पे दाद...!
पुरानी चिट्ठियों की पोटली के खोने वाले शेर पर अपनी बहुत सी खोई चीजों की याद...!
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
के बाद सोचना कि नीली खिड़की कभी खुलती भी थी या नही...!
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी छोटी घंटियों वाली...!
शेर पर एक उड़ती हुई रुनझुन ओढ़नी का का आँखों के आगे फैलाव....!
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
वाले शेर में लगना कि, याद तो नही मगर ऐसा क्यों लग रहा है कि ये शेर मेरा है।
और
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
में मेजर गौतम राजरिशी की खुशबू
हर बार एक से रिएक्शन... जब आपसे फोन पर सुनी तब भी, जब आप हिंदी युग्म पर पढ़ी तब भी, जब वागर्थ में पढ़ी तब भी और आज अब भी....!!
@ अर्श उम्मीद है वागर्थ तो तुम पढ़ते नही होगे तो तुमने ये ग़ज़ल हिंदी युग्म में पढ़ी होगी...! और अच्छा बच्चा वो है जो अपना हिस्सा ले..तुम अपनी चीजों पर नज़र रखो ..वहाँ काश्मीर में नर्स कैसी हैं, इस के विषय में मत सोचो....!!!! ऐसा ना हो इधर वाला हिस्सा बी चला जाये...!
नैना जी..! इस प्रेरण से प्रेरित हो कर नर्स के जवाब में जब डॉक्टर से दोस्ती हो जाये तो हमें खबर करियेगा :)
छोटी छोटी खुशियाँ...जैसे तीन दिन की छुट्टी के बाद ऑफिस की अनमनी सी सुबह को आपकी कोई ग़ज़ल पढने को मिल जाए...और ग़ज़ल भी ऐसी की उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़
ReplyDeleteआपकी ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए आपका ही तकियाकलाम चुराना पड़ा :)
नमस्ते भैय्या,
ReplyDeleteकुछ कहूं तो ख़ुद को लगेगा कम कहा, लेकिन कुछ टिप्पणियों को पढ़कर लगा की मैं भी यही कहना चाहता हूँ............तो कह रहा हूँ उधार के लफ्जों से अपनी बात.
- नोस्टेल्जिक कर देती है ग़ज़ल।(दिनेश राय जी)
- छा भी गये और छू भी गये!!! (समीर लाल जी)
- ये शेर अपने साथ लिए जा रहा हूँ इस उम्मीद के साथ के कभी मैं भी ऐसा लिख पाउँगा (नीरज जी)
- आज मैं आपकी अब तक पढी हुई सबसे बेहतरी ग़ज़ल पढ रहा हूं शायद. शायद इसलिये क्योंकि अभी आपका सब कुछ नहीं पढा है. (संजीव जी)
- इस कमाल वाली ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई और हाँ कैडवरी में से कुछ बचा है के नै (अर्श जी), मगर नर्स के बारे में उन्हें ही बताना नहीं तो कहेंगे अंकित हर बार टंगरी मारता है.
- अब वो कैडबरिज या डीवीडी तो आपलोगों के साथ शेयर नहीं कर सकता..kar nahi sakta ya karna nahi chahte? (दर्पण ज्ञि०
- ये ऐसी ग़ज़ल है जिसे मैं जितनी भी बार पढ़ूँ रिमार्क्स एक से ही आते हैं। (कंचन दीदी)
- ग़ज़ल भी ऐसी की उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़ आपकी ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए आपका ही तकियाकलाम चुराना पड़ा :) (पूजा जी)
.
.
जिन जिन के लफ्ज़ मैंने बिना पूछे उधार पे ले लिए हैं उन सबका बहुत बहुत शुक्रिया, और उसके लिए मैं आप सब की तरफ से गौतम जी बहुत बहुत शुक्रिया कर देता हूँ इस बेहतरीन ग़ज़ल केलिए.
बेहतरीन लाजवाब ..देर से पढ़ी पर दिल से हर लफ्ज़ को दिल में उतार कर पढ़ी ..
ReplyDeleteभरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
ReplyDeleteगुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
bahut khoob
-Sheena
Gautam sir badla poora hua....
ReplyDelete...Cease fire. ( friends??)
haha....
aur main "Ankit Bhai" ki tarah chor to hoon nahi jo sab ki tippani chori karoon....
...Bus ek ki kar raha hoon....
"Ankit Bhai" ki tippani meri bhi maani jaiye...
And when i say (i mean people say) i mean it !!
One of the best ghazals of urs i've ever read.
I doubt that is it a 'Benchmark' for u or obstacle?
"Nurse ko nurse kyun kehte hain?"
:(
"खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली"
aap jante ho na gulzaar mujhe bahuttt.... pasand hai ?
baaki kum ko zayada aur tippani ko post samajhna....
Kuch bakwaas individual tippaniya har sher ke liye (samay bitne ke liye karna hai kuch kaam u know !!):
ReplyDeleteऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
Not my cup of tea !!
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली.
300000 kasmari pandit aur ek main !
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली.
Effects of Global warming upon Giant nations !
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
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बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली.
Tumhari aankho ka rang ab bhi nahi badla shayad.
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली.
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
height of corruption.
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली.
Wo patta dil tha ! dil tha !!dil se rey...
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली.
Ek baudadh dharm ka anuyayi sikh ho gaya aaj!!
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
ReplyDeleteउड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली.
is wali virgin sh'er se to main shaadi kar raha hoon....
to isko kaise?
And once again hat's off !!
Thousand times and over !!
koi best comment ka award hota hai kya?? agar hota hai to darpan ji ko de dijiye...
ReplyDelete"Bahut din ho chuke..." door ateet me man chala gaya..
ReplyDelete"bikhare sitare'pe katha intezaar me aapke..
Diwali gharpe manee ya asptaal me?...jitne comments aaye hain, raunak to wahan lag gayee hogee...haan,ek saathee ke janeka dard samete hue..
Aglee kadee se katha nayika swayam baag dor sambhalegee...
Aapke padh lene ke intezaar me hai..
ओय जवान,
ReplyDeleteजय हिन्द भाई। क्या शान से लौटे हो गौतम भाई। बहुत खू़ब बात कही। बहुत मिस किया आपको और अब अस्पताल न जाना यार। रुला दिया ना चाहने वालों को।
मालिक आपको सेहत और शोहरत बक्शे। दीपावली की शुभकामानाओं सहित।
itna kuch sbne kh diya hai mai sbke sath hi hoo.
ReplyDeletesubhanalah .......
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
ReplyDeleteचलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली ।
मेज़र साहब कमाल की गज़ल है और आखरी पढ कर तो आँख भर आई । ये फौजी भी किस मिट्टी के बने होते हैं । काश सारे नो जवानो में ये जज्बा हो ।
इतनी पुख्ता, उस्तादों के लहजे में कही गयी गजल कि मन ईर्ष्या से भर गया. मैं पहली बार आपके ब्लॉग तक आया और अब वापसी का सफर दुश्वार है. मैं पूरी गजल को फुल मार्क्स दे रहा हूँ, किसी एक शेर को कोट करना, गजल के साथ नाइंसाफी होगी.....और ये नर्स वाली बात.... उम्र के इस....!! मन कला होना चाहिए, उम्र से क्या होता है.
ReplyDeleteभाई मजा आ गया
ReplyDeleteछा गए जी !!
ये बताईये वीर जी कि इस दर्पण को रोमन टिप्पणी के लिये आदेश कब जारी किये जायेंगे ?? मेरे लिये तो बोल दिया था आपने कमजोर समझ कर... अब इसपे लगाम लगाईये तब जानूँ...???
ReplyDeleteब्लॉगर kshama ने कहा…
ReplyDeleteआज मैंने 'छोटी छोटी ' खुशियों वाली 'बड़ी गहन' बात पढी ..यही बचपन को जिलाए रखना चाहिए ...इसीमे संजीदगी छुपी होती है ...जो लोग 'बड़े ' होने का आभास देते हैं , वो अपना बचपन खोके बचपना करते हैं . ...
मै भी अपने अन्दर एक छोटी नटखट बच्ची लिए घूमती हूँ ...जब उसके चुलबुले पन का गला घोंटना पड़ता है, तब, तब, मन उदास हो जाता है...जैसे एक जानदार , चुलबुला बच्चा कोमा में चला गया हो...
आपका कभी पुणे आना हुआ तो पूजा से मुलाक़ात करवा दूँगी..ये वादा रहा...तब सभी संभ्रम ख़त्म हो जायेंगे...लेकिन kahanee ख़त्म होने के बाद...!!!!
कहानी असली जीवनी है...उसमे तो आगे चल बेहद ट्विस्ट हैं, अजीब, अबीब पड़ाव हैं...इसीलिए तो लिखना आरंभ की..life is stranger than fiction.....
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ReplyDeleteभरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
ReplyDeleteगुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
बहुत सुन्दर.
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
ReplyDeleteहुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
kya sadgi hai!
Clarity in expression, purity in presentation, serenity in connection – highly satisfying but still much more is needed
ReplyDeleteकमाल हैं आप. कमाल की आपकी रचना. और कमाल की हौसलाअफज़ाई.
ReplyDeleteइतना मगन हूं कि कुछ लिख पाने में असमर्थ हूं. आपकी रचनाओं में जितना आनंद है, उतना ही हम लोगों से स्नेह...,
इस ग़ज़ल के लिये मुझे हिंदी में कोई ठीक वाक्य नहीं मिल रहा इसलिये पहली बार अंग्रेजी के शब्द उधार ले रहा हूं i am proud of you.
ReplyDeleteऔर ये संजीता के साथ अन्याय है कि तुमने कहीं नहीं लिखा कि मतले की दूसरी पंक्ति (मिसरा सानी) उसकी लिखी हुई है ।
ReplyDelete@ Kanchan Di...
ReplyDeleteDevnagari tippani 'Mukammil'
...Roman tippani 'Khariz??'
Gurrrrrrr.......
लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भर
ReplyDeleteहवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
Jai Ho.....
अनुराग भाई के साथ मैंने बधाई के शब्दों से भरी टोकरी आपको भेजी है...मिल जाये तो बता दीजियेगा...कभी रूबरू मिलेंगे तो ऐसी ढेर सी टोकरियाँ आप पर लुटा दूंगा...
ReplyDeleteनीरज
behtareen ghazal har sher mein dum hai.
ReplyDeleteनिशब्द!
ReplyDeleteफ़िर से आऊँगी जब जुबां खुलेगी!
नमन!
शार्दुला
**ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में ....
ReplyDeleteगौतम जी, आपने किनारा का वह गीत सुना है "एक ही ख्वाब . . .तूने साड़ी में ऊँड़स लीं हैं चाबियाँ . . . "? ये मेरे पसंदीदा गीतों में एक है. उसकी याद आगयी आपका यह शेर पढ़ के! साथ याद आ गयीं वो दोपहरें जब यह गाना इन्हें रिकार्ड कर के कैसेट (हाँ, हम कैसेट के ज़माने के हैं! :) में देने के लिए जाने कितने म्यूजिक स्टोर्स भटकी थी !
**कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला ... वाह!
**जिन्हें झुकना नहीं आया. . . कितना उम्दा! बहुत पहले एक शेर पढ़ा था, जाने किनका है! "आँधी मगरूर दरख्तों को पटक जायेगी / बस वही शाख बचेगी जो लचक जायेगी "
**गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली .. ओह!
**...बरसात की रुन-झुन .... वो छोटी-छोटी घंटियों वाली -- कितनी नज़ाकत!
**दुआओं का हमारे...लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली --- बहुत far reaching शेर, यही लेखन की कामयाबी है, कि जो पढ़े उसे लगे, मेरी बात कही है !!
**लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता ...हवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली --- नमन!
**बहुत दिन हो चुके ..चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली --- विजयी भव! जीवन के हर मोर्चे पे यूँ ही कामयाब रहें!
जीते रहें, जीतते रहें !
सादर शार्दुला
वाह....वाह....वाह......!!
ReplyDeleteगौतम जी घर लौट आये हैं लगता है .....?
तभी तो ये कमाल हुआ ......कमाल तो मिली टिप्पणियाँ भी बता रहीं हैं .....!!
एक से बढ़ कर एक ......
ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली
हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
बल्ले बल्ले ......!! ( तभी तो पता चलेगा किसी पंजाबी ने कमेन्ट किया है )
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
हवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
बैजा बैजा कर दित्ती जी तुसीं तां .......!! ( नहीं पता लगे तो नीरज जी से पुच लीजियेगा )
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
वो तो मेरे पास है भिजवा दूँ ...??
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
ओये होए ....आपके इस शे'र से ओढ़नी में सभी घंटियां बंधने लग जायें कहीं ....??
हुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
और ये फौजियों वाला शे'र ......इसके लिए सैल्यूट ...!!
मेजर साब ग़ज़लें कहती हैं कि आप कुछ भी होते तो भी ख़ास ही होते
ReplyDeleteपहले पढ़ी थी बिस्तर पे औंधे लेटे हुए और किनारा फिल्म ही दिमाग में घूमती रही, किसका असर था पता नहीं जब से रेडियो में आया हर स्टेशन पर किनारा फिल्म का रिकार्ड अपने साथ चिपकाए घूमा हूँ अब समझिये कि ये ग़ज़लें और ख़ास कर कुछ शेर आँखों में बसे रहेंगे.
ये शेर किस घड़ी में कहे होंगे आपने कि मुझे इनमे कई मौसम एक साथ दिखाई देते हैं. बस ऐसे ही लिखते रहिये.
जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरे
ReplyDeleteहवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
aha kya baat kah di
भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
waah waah
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
aajkal sabki dua ka yahi haal hai
aur zor se maangni houngi
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ’गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
bahut khoob maqta
vagarth mein aapki gazal chhpane ke liye aapko bahut bahut badhayi
बहुत ही संवेदनशील,सुंदर रचना....शुभकामनाएं.
ReplyDeleteगौतम साहब, कभी-कभी किसी ग़ज़ल के मतले का इतना खूबसूरत होना बाकी के अशआरों के साथ बेहद नाइंसाफ़ी हो जाता है, पिछले दो दिनों मे कई-एक बार पढी ग़ज़ल..मगर पहले शेर की चुस्कियों मे चीनी इतनी ज्यादा हो जाती थी कि आगे के शेरों का स्वाद फ़ीका पड़ने लगता था..सो इस बार पहले वाले को स्किप कर दिया बस..और देखिये..जैसे सेठ जी का घर खुला मिल गया..चिट्ठी वाली पोटलियाँ, ओढ़नी वाली घंटियाँ, नीली वाली खिडकियाँ, और फ़ाइल की अर्जियाँ सब चुराये लिये जा रहा हूँ....वैसे दर्पण साहब ने मोहर लगा भी दी है सब पर..
ReplyDeleteअपूर्व की ही बात दोहराता हूं...
ReplyDeleteगौतम साहब, कभी-कभी किसी ग़ज़ल के मतले का इतना खूबसूरत होना बाकी के अशआरों के साथ बेहद नाइंसाफ़ी हो जाता है
आप तो क्या खाक सहमत होंगे, पर हमें भी कुछ कहना था, सो कह दिया।
जल्दी स्वस्थ हों।
आपका ब्लॉग देखा ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ........
बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
ReplyDeleteजो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
kya baat hai........ yah gazal kitni baar padhoon..!
shukriya